बुधवार, 9 मई 2012

पुरुषार्थी अपना भाग्य स्वयं बनाता है



    - राजकुमार सोनी


मनुष्य के द्वारा की गई छोटी सी चूक उसके जीवन की सारी बुनावट को उधेड़ देती है जबकि दुविधाओं की घड़ी में उसके द्वारा लिये गये सक्षम निर्णय विखरे हुये जीवन को पुन: सँजो देते हैं। मनुष्य का वर्तमान व भविष्य उसकी अपनी ही रचना होती है अत: एक ईमानदार सोच रखने वाले व्यक्ति को अपनी किसी असफलता या पतन के लिये दूसरों को दोष देने की गुंजाइश बहुत कम ही रहती है। क्योंकि प्रतिपक्षी की करतूतों को समय रहते न पहचान पाना अथवा उसके प्रहारों से अपनी रक्षा न कर पाना व्यक्ति की अपनी ही अयोग्यता होती है। अत: मनुष्य को अपने पुरुषार्थ को सदा ही जाग्रत व क्रियाशील बनाये रखना चाहिये। 'पुरुषार्थी अपना भाग्य स्वयं बनाता हैÓ आलेख में श्री राजेन्द्र प्रसाद त्रिवेदी ने इसी मनोवैज्ञानिक में सूझबूझ को बड़ी बारीकी से चित्रित किया है।

वैयक्तिक शक्ति से परे, सनातन सत्ता को यदि स्वीकार न करें तो इसे हमारा अहंकार ही माना जाएगा। यह भूल मनुष्य को करनी भी नहीं चाहिए। इस सृष्टिï के कण-कण का विधान परमात्मा के हाथ में है। उसे चाहे अटल नियम कहें, काल कहें, विधाता या परमेश्वर कहें, बात एक ही है। उसे मानना अïवश्य पड़ता है, उसे माने बिना मनुष्य को न तो विश्राम मिलता है, न अहंकार ही छूट पाता है, साथ ही बुद्धि भी भ्रमित रहती है।
    किन्तु यह भी सत्य है कि मनुष्य का निज का भी अपने भाग्य विधान से कुछ संबंध अवश्य है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि मनुष्य स्वाधीन नहीं है, उसका जीवन परमात्मा के विधान के अनुसार ही चलता है। न्याय की दृष्टिï से उसका विधान भी स्वतंत्र होना चाहिए। यह बात ठीक भी है। ईश्वर ने कर्म-फल का एक सुदृढ़ नियम बना दिया है, इसी के अनुसार मनुष्य का भाग्य बनता बिगड़ता है।
    भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि कई बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं तो लोग उसे भाग्य चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं, किन्तु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। मनुष्य जीवन के विराट रूप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टिï से भी जिसे आज हम भाग्य कह के पुकारते हैं वह भी कल के अपने ही कर्म का परिणाम है।
    भाग्य का रोना-रोने का अर्थ तो इतना ही समझ में आता है कि हम अपने कर्म के लिए सचेत नहीं हो पाये हैं। अपनी शक्तियों का दुरुपयोग 'अब नहींÓ तब किया था जिसका कटु आघात भोगना पड़ रहा है। पर प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने ही किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है। कोई भी प्राणी शुभ या अशुभ किसी प्रकार का कार्य करे फिर वह देवता ही क्यों न हो, उसे उसका फल भुगतना ही पड़ता है, बिना भोगे किसी का छुटकारा नहीं।
    वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल ऊर्जा की तरह किसी भी दशा में नष्टï नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय पर इससे कर्मफल का सिद्धान्त तो नहीं मिट सकता। हम जैसा करेंगे वैसा ही तो भरेंगे। अपना कल्याण करने का अधिकार हमें ही है। न इसके लिए किसी को दोषी ठहराया जा सकता है और न किसी के भरोसे ही बैठा जा सकता है।
    अपने सुख-दु:ख, उन्नति, अवनति, कल्याण, अकल्याण, स्वर्ग और नर्क का कारण मनुष्य स्वयं है फिर दु:ख या आपत्ति के समय भाग्य के नाम पर संतोष कर लेना और भावी सुधार के प्रति अकर्मण्य बन जाना ठीक नहीं है। ऐसी स्थिति आने पर तो हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हम से जरूर कोई भूल हुई है और उस पर पश्चाताप करना चाहिए। एक उदाहरण लें- संयम न रखने के कारण आपका स्वास्थ्य गिर गया है। शरीर में ऋतु-परिवर्तन को भी वरदाश्त करने की शक्ति नहीं रही। थोड़ी सी असावधानी से कभी पेट में गड़बड़ी पैदा हो जाती है, कभी सिरदर्द करता है, जुकाम हो जाता है, सर्दी लग जाती है। आप कहेंगे क्या करें हमारा भाग्य ही खराब है। वस्तुत: यह भाग्य का खेल नहीं है, आप थोड़ा सा भी निष्पक्ष रूप से चिंतन करें तो यह मानने के लिए विवश होंगे कि आपने असंयम के कारण ही यह स्थिति बना ली है जिसके कारण आपको स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यदि आप संकल्प से काम लें, जिह्वïा तथा कर्मेन्द्रियों पर कसकर अंकुश लगाकर रखें तो आपका खोया हुआ स्वास्थ्य फिर से वापस आ सकता है। पाना या खोना भाग्य के हाथ की बात नहीं है, वह तो मनुष्य के कर्मों का फल है। इसे ही बाद में भाग्य कह सकते हैं।
    कुछ व्यक्ति अपने पास के साधन सम्पन्न व्यक्तियों को देखकर ईर्षा से जलते रहते हैं। सोचते हैं वह व्यक्ति कितना भाग्यशाली है, भगवान ने उसे मोटर दी है, रहने के लिए सुसज्जित बंगला है, नौकर-चाकर सभी कुछ है, धन से तिजोरियां भरी पड़ी हैं, किन्तु अपना तो जीवन ही कठिनाई से बीतता है। बड़ा कष्टï है। एक-एक पैसे के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है, सच है आप बड़ी मुसीबत में हैं, किन्तु दरअसल क्या आप उन गहराइयों में गए हैं जिसके कारण आप निर्धन हैं।
    संसार के 60 प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति विधिवत खाते-कमाते हैं, फिर आप ही क्यों परेशान हैं? आप देखिए आपके जीवन में जरूर कहीं आलस्य,अकर्मण्यता, निरुद्योगता का चोर छिपा हुआ है। इसे भगाइए! इसने ही आपको निर्धन बनाया है। भगवान को तो आप नाहक कोसते हैं। भाग्य साहसी और कर्मठ व्यक्ति की सहायता करता है। हम अपना ऐश्वर्य स्वयं बनाते हैं और उसी को अपना भाग्य कहते हैं।
    भाग्यवाद का नाम लेकर अपने जीवन में निराशा, निरुत्साह के लिए स्थान मत दीजिए। आपका गौरव निरंतर बढ़ते रहने में है। भगवान का वरद-हस्त सदैव आपके मस्तक पर है, वह तो आपका पिता, अभिभावक, संरक्षक, पालक सभी कुछ है। उसकी अकृपा भला आप पर क्यों होगी। क्या यह सच नहीं है कि उसने आपको यह अमूल्य मनुष्य शरीर दिया है, बुद्धि दी है, विवेक दिया है। कुछ अपनी इन शक्तियों से भी काम लीजिए, देखिए आपका भाग्य बनता है कि नहीं। निश्चित भाग्य सदैव पुरुषार्थी का साथ देता है।
    परिस्थितिवश यदि प्रयत्न करने पर भी आपको उचित सफलता नहीं मिलती तो आप इसे अपने पूर्वकृत कर्मों का फल मानकर तात्कालिक संतोष प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु अपने प्रयत्नों को यों ही ढीला मत छोडि़ए। आज जो कर लेंगे, वही तो कल भाग्य बनेगा। कल आप अधिक सुख प्राप्त करें, इसकी तैयारी आज नहीं तो कब करेंगे? प्राणी की प्रकृति ही उसके कर्मों का कारण कही जाती है, इसलिए आज अपनी विश्वास शक्ति को जगाकर अपने जीवन के सदगुणों को बढ़ाने का प्रयत्न कीजिए। इससे आपका भावी जीवन अवश्य ही सुखी और समुन्नत हो सकेगा।
    कर्म चाहे वह आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह से भोगना ही पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सच्चा भाग्यशाली है और इसके लिए किसी देव के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का सम्पादन मनुष्य स्वयं करता है। अत: अपने अच्छे-बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। अपने भाग्य को वह कर्मों द्वारा बनाया-बिगाड़ा करता है। हमारा श्रेय इसमें है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बात को समझ लेंगे और इस पर अमल करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा। वे हमेशा स्वयं हसेंगे और दूसरों को भी हँँसायेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें