बुधवार, 9 मई 2012

प्रकृति से दूर मनुष्य


- राजकुमार सोनी


    मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठï रचना है तथा सबसे प्रिय रचना भी है। सबसे अधिक मनुज मोहि भाये। परमात्मा ने एक दृष्टिï से विचार करें तो मनुष्य के विकास व विकास के लिये यह बहुत सम्पन्न मनोरम संसार रचा है। रत्नगर्भा सुधा सुरभित बहु सम्पन्न मनोरम संसार रचना है। रत्नगर्भा ज्योतिस्फुर ग्रह नक्षत्रों से सुसज्जित दीपित यह नभ मण्डल, उत्तुंग पर्वत श्रेणियाँ, अनंत सलिला सरिताएं,  मुक्त पवन, ग्रीष्म वर्षा,शरद, हेमंत, शिशिर और बसंत धर्मी षडऋतु चक्र, कीट ,पतंग, खग, वन, मृग, पशु इत्यादि सब कुछ मनुष्य द्वारा विवेकपूर्ण उपयोग एवं उपभोग करने के लिये ही परमात्मा ने रचे हैं। सृष्टिï की रचयिता प्रकृति है। तथा प्रकृति के रचयिता व नियंता स्वयं परात्पर परमात्मा हैं। सूर्य, चन्द्रमा, सप्त विवर, सप्त स्वर्ग तथा भूलोक की रचना करने वाली  तथा इन्हें उनके अखण्ड काल चक्र एवं गुणधर्म में बांधने वाली आखिरकार कोई  न कोई शक्ति तो है ही जो अदृश्य, अरूप होकर भी  सदृश्य स्वरूपवत सृष्टिï का अविराम नियंत्रण करती रहती है। मनुष्य सभी चर-अचर प्राणियों से इसलिये श्रेष्ठï माना जाता है क्योंकि इसे ईश्वर ने विवेक की सम्पूर्ण मात्रा प्रदान की है।
    भूख प्यास आदि शरीर धर्म तो पशु पक्षियों एवं कीट पतंगों में भी पाये जाते हैं, अपना हित-अहित तो पशु पक्षी भी समझ लेते हैं लेकिन मनुष्य के ज्ञान की परिधि असीमित है। सृष्टिï के रहस्यों को उद्घाटित करने तथा उनका परहित व स्वहित में उपयोग करने की समझ तो केवल मनुष्य की मेधा में ही विद्यमान है।
    परमात्मा की इच्छा है कि मनुष्य उसे दिये गये विवेक का सम्यक उपयोग करे किन्तु जब मनुष्य अपनी दैवीय सम्पदा के सदाचारी गुणों की अवहेलना कर आसुरी सम्पदा के दुर्गुणों अर्थात् स्वार्थ छल-छिद्र लोभ तृष्णा, वंचना, मद, मोह से उत्पन्न होने वाली हिंसक वृत्तियों का संधारक व भोक्ता बन जाता है। तब प्रकृति उससे रूठने लगती है तथा मनुष्य को उदार अमूल्य वरदान या तो प्राप्त ही नहीं होते हैं अथवा अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं। उदाहरण के तौर हम विचार करें तो पाते हैं कि समाज या परिवार में जब कोई पुण्यात्मा,पराक्रमी सदाचारी, सेवाभावी, सहृदय, उदारमना व्यकित उत्पन्न होता है तथा सक्रिय होता है । तो परिवार व समाज बहुत छोटे-छोटे साधनों से फलीभूत होकर उन्नत हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत समाज में या परिवार में जब कोई अनाचारी, कपटी, निर्दयी व्यक्ति जन्म लेता है तो पहले से चली आ रही प्रतिष्ठïा व सम्पन्नता भी धीरे -धीरे लुप्त हो जाती है तथा व्यक्ति कुंठित होकर हत्या आत्महत्या, भय, उद्वेग, निराशा, अवसाद का कारण दूसरों के लिये तथा स्वयं के लिये भी बन जाता है। कहते हैं रामजी के राज्य में प्रकृति का प्रत्येक तत्व समय पर मनुष्य की इच्छा व आवश्यकता के अनुसार फलीभूत होता था।
        रामराज कर सुख सम्पदा। वरणि न सकहिं फणीश शारदा।
    किन्तु जब मनुष्य दुष्टïकर्मी बन जाता है तो प्रकृति प्रयत्न करने पर भी इच्छित फल नहीं देती है। 'वये न  उपजें धानÓ अत: एक समझदार प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्य, दायित्व को समझे तथा प्रकृति से प्राप्त होने वाले अमूल्य वरदानों, सुफलों को प्राप्त करे।
    उक्त विवेचना के संदर्भ में यदि हम वर्तमान युग के तथाकथित बुद्घिजीवी व सुविधा सम्पन्न मनुष्य और उदार प्रकृति के संबंधों का विचार करते हैं तो पाते हैं कि आज का दंभी, उन्मादी मनुष्य कृत्रिम साधनों के दलदल में फंसता जा रहा है। लेकिन उसके आसपास जो प्रकृति का साम्राज्य है। उसकी वह न सिर्फ अनदेखी कर रहा है बल्कि उसका तिरस्कार भी कर रहा है। आधुनिक समाज के तथाकथित शिक्षित मनुष्य को कुओं से खींचकर पानी पीने, नदियों में स्नान करने, फलदार वृक्ष लगाने अथवा वृक्षों से हाथ से फल तोड़कर खाने, खुले आसमान के नीचे बैठने, सोने आदि प्राकृतिक दिनचर्याओं में खुशी प्राप्त नहीं होती है। उसे परिष्कृत व शोधित होने के नाम पर डिब्बाबंद पेय, पानी, कई दिनों पहले का डिब्बा बन्द जंकफूड खाने, फ्रिज में रखे हुये फल खाने, वातानुकूलित कक्षों में निवास करने, वातानुकूलित वाहनों में यात्रा करने में ज्यादा सुख प्रतीत होता है। जबकि वह यह भी समझता है कि कितने साधन भी जुटाकर धरती पर हर मनुष्य को ये वातानुकूलित भवन हिमीकृत खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है और  न ही उपलब्ध कराये जा सकते है। किन्तु कुछ मुठ्ठïी भर लोग अपना एक सम्पन्न वर्ग वनाकर आम आदमी पर अपना दंभ थोपना चाहते हैं। इस अहंकारी जीवन पद्धति के समानांतर ही एक कुंइित वर्ग व ंिहसंक वर्ग भी पनप रहा है जो स्वयं अपने लिये हानिकारक होने के साथ ही समाज व उच्च वर्ग के लिये भी आंतक का पर्याय बन रहा है। अतएव आज आवश्यक है कि एक उन्नत आदमी के रूप में हम दंभ व कुण्ठा दोनों से बचें तथा प्रकृति की छोटी-छोटी बातों में छिपी हुई बड़ी -बड़ी अच्छाइयों को अपनायें। उदाहरण के तौर पर यहाँ कुछ वर्षों पहले की जीवन पद्धति और वर्तमान जीवन पद्वति के बीच के अन्तर की चिह्न्ति करने वाली कुछ बातें नीचे चिह्न्ति की जा रही हैं। आज पर्यावरण संरक्षण नितांत आवश्यक है। हमारी पीढ़ी ने तो पर्यावरण का आनंद लिया है। उसका उपभोग भी किया है पर हमारी आने वाली पीढ़ी के अपने बच्चों को हम विरासत में क्या दे पायेंगे? क्या प्रकृति द्वारा दिया गया उपहार यह पर्यावरण भी संरक्षित नहीं रख पाएंगे, चलो हम अपनी ही बात करते हैं।
     जब हम पाठशाला जाते थे, पाठशाला जाने के लिये सुबह से ही हमारा बालपन खुश होने लगता था। रास्ते में पानी से भरे पोखर में कागज की नाव डालते हुये जाते थे । पाठशाला से आते हुये बाग बगीचे मिलते थे कभी विद्यालय के पेड़ों की पत्ती तोड़कर अपनी पुस्तक में रख लेते थे। आम, अमरूद, जामुन, इमली ,शहतूत , बेर, महुआ, गिलोदें, कैथ आदि आये दिन तोडऩे-खाने को मिल ही जाते थे । कभी पाठशालाा के बाग -बगीचों से मोर के पंख उठा लेते थे और इस तरह मौज मस्ती में कब पाठशाला का समय बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। हर एक दिन रोमांचक महसूस होता था, पर आजकल के बच्चों में पाठशाला को लेकर वह रोमांच एवं आनंद दिखाई नहीं देता। बच्चा रोता हुआ उठता है। स्कूल जाने के नाम से मुंह बनाता है। बड़ा सा पांच किलो का बस्ता लादकर ऑटो में जबरन बैठकर किसी कॉन्वेन्ट की ओर चल देता है। स्कूल से आते हुये उसे न बाग बगीचे दिखते हैं न फल से लदे वृक्ष, न पशु न पक्षी दिखाई देते हैं । दिखते हैं तो सिर्फ कुछ इमारतें, प्रदूषण, शोर, धुंआ और गंदगी।
     आज का बच्चा स्कूल से थका सा आता है। हमारे समय में शहर में बहुत से आश्रम देखने को मिल जाते थे जहाँ की शुद्व हवा से मन को शांति मिलती थी। यज्ञ, हवन आदि की खुशबू आती थी । कई वृक्षों की पूजा की जाती थी। कई प्राचीन वृक्ष आश्रमों में संरक्षित रहते थे। परंतु आजकल आश्रम के नाम पर धनवान संस्थायें चल रही हैं। जिसमें प्राकृतिक दृश्य देखने को नही मिलते हैं। पक्के हॉल,टायल्स की दीवारों में भक्तों को बैठा दिया जाता है तथा वहीं कैसिटों में गीता या महाभारत का किस्सा सुनने को मिल जाता है। पहले सुबह के घूमाने का अलग ही आनंद था।
    सुबह की ठण्डी हवा, फलों की महक हमें जल्दी उठने पर मजबूर कर देती थी । बच्चे, कच्चे आम बीनने के लालच में तड़के ही उठ जाते थे। कई बुजुर्ग हाथ में छड़ी लेकर निकल पड़ते थे। रास्ते में बाग, बगीचों से फूलों को तोड़कर गुलदस्ते बनाने में अलग ही आनंद आता था।
    पहले तो हम लोग घर के आगे की कुछ जमीन बाग, बगीचों के लिये खाली छोड़ देते थे जिसमें तुलसी के पौधें, चम्पा, चमेली, गेंदा, गुलाब,नीम के वृक्ष मोगरा आदि के पौधे लगे होते थे। बगीचे की वागड़ में मेंहदी की झाडिय़ाँ उगाई जाती थीं जिन्हें तीज, त्यौहारों पर घर की स्त्रियाँ, लड़कियाँ बड़े ही शौक से तोड़कर पीसकर हाथों पर लगाती थीं। हिना रंग लाती है पत्थर पर पिस जाने के बाद। आलस भाग जाता है, घूमने के बाद।  घर के आँगन को गोबर आदि से लीपा जाता था जिस पर बनी रंगोली बड़ी ही मनोहर प्रतीत होती थी। परंतु आजकल इन्सान बड़े बड़े भवन  तो बनवा रहा है। परंतु बाग बगीचे के नाम पर पर थोड़ा सा लॉन  बनवा लेते हैं परन्तु उस जगह में खुशबूदार पेड़- पौधे न लगाकर बिना खुशबू के कुछ अंग्रेजी, काटेंदार हानिकारक पौधे लगा लेते हैं। उन्हें मालूम नहीं होता, वागड़ के नाम पर डिठोंनियाँ मेंहदी (अंग्रेजी मेंहदी) लगा लेते हैं। उसे कई लोग हैज मेंहदी भी कहते हैं। ताकि कोई गाय, बकरी आदि उस मेंहदी पर मुँह न मार सके। परंतु वह उसे दूर से देखकर आगे चली जाती है। इसका एक कारण है कि यह विषैली होती है। परंतु इसके पास में मनुष्य बड़े मजे से बैठ जाते हैं। यह मेंहदी हानिकारक है। इस मेंहदी के पास में बैठने से या चलने से स्टेमना कम होता है। सांस की बीमारी बन जाती है। केवल दिखने में हरी और घनी लगती है। जब हम घर की पक्की दीवारों को देख ऊब जाते हैं तो ऊब को मिटाने के लिये बाजार से रेडीमेड कागज या प्लास्टिक के गमले ले आते हैं अथवा कोई इंग्लिश शो प्लाण्ट हमारे घर की शोभा बढ़ाता है।
     पर्यावरण के बारे में कभी हम सोचें तो याद आता है जब रेल में बैठकर यात्रा करते थे तो रास्ते में बड़े ही मनोहर प्राकृतिक दृश्य, पहाड़, खेत, नदी, पनघट, वन आदि देख पाते थे। परंतु अब जंगल काट लिये गये हैं। सूने -सूने पहाडों ,मैदानों में हरियाली की जगह अब कंक्रीट से बनी बिल्डिंगें , इमारतें दिखाई देती हैं। क्या ये सभी प्राकृतिक चीजें  हमारी पीढ़ी, हमारे बच्चों को देखने नहीं मिल पाएंगीं? क्या हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि हम पर्यावरण का शोषण कर उसे समाप्त करने पर तुले हुये हैं? अत: हमें अपने लिये नहीं तो अपने बच्चों के लिये ही सही, पर्यावरण को संरक्षित रखना ही होगा, ताकि वे भी प्र्रकृति की इस अनुपम देन का उपभोग कर सकें।

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