शनिवार, 5 अप्रैल 2014

ज्योतिष के आइने में मर्यादा पुरुषोत्तम राम


ब्रह्माण्ड नायक प्रभु श्रीराम के जन्मोत्सव पर विशेष

सृष्टि संचालक विराट महापुरूष की सूर्य व चन्द्रमा के समान ये दोनों ऑखे, सम्पूर्ण मानव सभ्यता को प्रेरणा देती रहेंगी। मर्यादा पुरूषोत्तम राम युग -युगाव्द तक याद किये जायेंगे। भगवान श्रीराम राघवेन्द्र थे। इनका जन्म अयोध्या में हुआ। वे समस्त भारत भू मण्डल के चक्रवर्ती सम्राट कहलाते थे। सूर्यवंषीय श्रीराम चैत्र षुक्ल, नवमी, दिन को ठीक 12 बजे अभिजित मुहूर्त में अवतीर्ण हुऐ। भगवान श्रीराम की कुण्डली में सूर्य, मंगल, गुरू, षनि उच्च राषिगत तथा चन्द्र स्वक्षेत्री थे। भगवान राम का जन्म चर लग्न में हुआ। उनकी जन्म पत्रिका कें चारों केन्द्रों में उच्च के ग्रह पंच महापुरूष के योग, का निर्माण कर रहे है। वृृहस्पति से हंस योग, षनि से षष योग, मंगल से रूचक योग का निर्माण हो रहा है। लग्नस्थ कर्क राषि गत गुरू और चंद्र गजकेसरी योग। कर्क लग्न में सप्तमस्थ उच्च राषिगत मंगल पंचमेष और राज्येष बन कर प्रबल राजयोग बना रहा है सूर्य उच्च राषिगत होकर राज्य भाव (कर्म भाव) में होने से भगवान राम चक्रवर्ती बने। उन्होने युगों तक राज्य किया। भगवान श्रीरामचन्द्र जी की जन्म कुण्डली पर अपनी अल्प बुद्धि से ज्योतिषीय विवेचना का प्रयास किया। विद्वतजनों से आग्रह है त्रुटियों को क्षमा करें। भगवान श्रीराम के जन्मदिन पर प्रस्तुत हैं बड़े विनम्र भक्तभाव से यह ज्योतिषीय कलेवर, कौतुकता से इसे निहारें। भगवान श्रीराम दीर्घकाल तक सभी जातकों की रक्षा करें।

भगवान श्रीराम की जन्म कुडली


भगवान श्रीराम की कुण्डली के दसम भवन में सूर्य उच्च राषि में विराजमान हैं। सूर्य देव 12 कलाओं में मर्यादित हैं फलत: श्रीराम का चरित्र मर्यादित है। इसलिये उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम भी कहा गया है। वे सत्य वक्ता थे। उनके मुख से जो वचन निकल गया वह सत्य होता था। पूर्ण होता था। अमोघ होता था। महाकवि तुलसीदास जी ने रामायण में लिखा है रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाहि पर वचन नहीं जाही। सूर्य, दसम भवन में राज्य, कीर्ति का कारक ग्रह भी हैं अस्तु प्रभु राम चाहें वे अयोध्या में रहे हो या अपने विद्याकाल में गुरू वसिष्ठ के गुरूकुल में अथवा वन में या चक्रवर्ती सम्राट के रूप में अयोध्या में रहे हों। उनकी यष, कीर्ति न्याय व्यवस्था मानव सभ्यता में सदैव स्तुत्यनीय तथा अनंतकाल तक कीर्ति पताका दिग्दिगंत तक फहराती रहेगी। दषरथ पुत्र राम की जन्म कुण्डली में चन्द्र देव स्वक्षेत्री कर्क लग्न में उच्च राषिगत देव गुरू वृहस्पति के साथ विराजमान होकर कह रहे है कि यह जातक तन, मन से विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न होकर सुदर्षनीय तो होगा ही साथ ही, षील तत्व, स्वभाव कार्यकुषलता की दृष्टि से एक ऐेसे विराट व्यक्तित्व का धनी होगा, जिसे विष्व मानव समाज श्रद्धामयी दृष्टि से अपलक निहारता हुआ राममय हो जायेगा।
द्वितीय भवन : भरताग्रज राम की कुण्डली के द्वितीय भवन का स्वामी नवग्रहों का राजा सूर्य विराजमान है, सूर्य कुलभूषण श्री राम इक्ष्वाकु वंष की महानता को कलकल करती गंगा की तरह सदैव यषस्वी बनाये रखेंगे। द्वितीय भवन  ज्योतिषीय गंरथों में द्वितीय भवन से जातक के नाक, कान, नेत्र, मुख, दंत, कण्ठ स्वर, सौन्दर्य, प्रेम आदि से जातक के व्यक्तित्व को देखा जाता है। भगवान श्रीराम सौन्दर्य की अदभुत प्रतिमा तथा प्रेम के अर्थ को समझने के लिए तीनों माताओं के प्रति श्रद्धा, भाईयों के प्रति अगाध स्नेह, सुमंत से लेकर समस्त अयोध्यावासियों के प्रति कर्तव्यपरायणता, सुग्रीव, विभीषण आदि अनगिनत मित्रों के प्रति चिरस्मरणीय स्नेहमूर्ति तथा भार्या जनकनंदिनी सीता के प्रति अलौकिक प्रीति ने ही उन्हें लंकापति रावण से युद्ध की अनिवार्यता स्वीकारी थी।
तृतीय भवन - पवन पुुत्र हनुमानजी के इष्ट प्रभु श्रीराम की कुण्डली के तृतीय भवन में कन्या राषिगत स्वक्षेत्री राहु विराजमान है। तृतीय भवन बन्धु , पराक्रम, षौर्य, योगाभ्यास, साहस आदि का मीमांसा का गृह है। भगवान श्रीराम का षौर्य, पराक्रम तो राम रावण के भीषण युद्ध में परिलक्षित होकर सदैव अविस्मरणीय रहेगा। भ्रात प्रेम में तो प्रभु श्रीराम का भरत प्रेम, जो समस्त प्रेमों की ज्ञानगंगा है।
चतुर्थ भवन -  कौषल्यानंदन श्रीराम की जन्म कुण्डली के चतुर्थ भवन में तुला राषि में उच्च राषिगत षनिदेव विराजमान हैं ज्योतिष ग्रंथों में चतुर्थ भवन से व्यक्ति के अन्त:करण, सुख, षान्ति, भूमि, भवन बाग बगीचा, निधि, दया, औदार्य, परोपकार, मातृ सुख आदि का निरूपण जातक की जीवन षैली में देखा जा सकता है।  प्रभु श्रीराम की कुण्डली का चतुर्थेष षुक्र, भाग्य भवन में अपनी उच्च राषि मीन में विराजमान है। उच्च राषिगत षनि प्रभु श्रीराम से मर्यादित जीवन के प्रति आग्रहषील हैं। भूमि, भवन का सुख तो चक्रवर्ती राजा के लिए सहज सुलभ हैं। अन्त:करण की दृष्टि से सर्वत्र प्रेम का अनुग्रह तथा दया और औदार्यता महार्षि गौतम की पत्नि अहिल्या को श्रापमुक्त कर पाषाण से नारी रूप प्रदान करना तथा षबरी के जूठे बेर खाना औदार्यता का सुखद पक्ष है। मातात्रय कैकयी कौषल्या, सुमित्रा के प्रति मातृ भक्ति सदैव स्तुत्यणीय एवं प्रेरणास्पद रहेगी।
पंचम भवन - लव कुष के पिता प्रभु श्रीराम की जन्म कुण्डली में पंचम भवन में वृष्चिक राषि है। वृष्चिक राषि का स्वामी मंगल सप्तम भवन में उच्च राषि में (मकर में )  विराजमान है। पंचम भवन से जातक की संतान, स्थावर जंगम, हाथ का यष, बुद्धि चातुर्य, विवेकषीलता, सौजन्य तथा परीक्षा में यष प्राप्ति से जुड़ी है। लव कुष के रूप में महान प्रतापी पुत्र तथा स्थावर संपत्ति के रूप अयोध्या का चक्रवर्ती साम्राज्य एवं अपनी बुद्धि विवेक के बल सीता की खोज में सुग्रीव से मित्रता, लंका विजय में लंकापति रावण के अनुज विभीषण का युद्ध के पूर्व लंकापति बनाने के लिए राजतिलक करना तथा मर्यादा में रहते हुए खर दूषण, कुम्भकरण, लंकापति रावण से लेकर अनेक आतातायी असुरों का वध कर रामराज्य की स्थापना करना बुद्धिचातुर्य की रहस्यमयी परिणिति के सिवा और क्या है ?
असुर विजेता राम
षष्टम् भवन - श्रीराम की जन्म कुण्डली षष्टम् भवन धनु राषि अवस्थित है। षष्टम् भवन रोग, षत्रुओं से जातक की कथा व्यथा का संाकेेतिक है। इस भाव से षत्रु कष्ट के अभाव से जुड़े प्रष्नों की रहस्यमयता को उजागर करते है।
श्रीराम की कुण्डली का षष्ठेष धनु राषि के स्वामी देव गुरू वृहस्पति लग्न भवन में कर्क राषिगत चन्द्रमा के साथ अपनी उच्च राषि (कर्क) में विराजमान होकर श्गजकेसरी योगश् बना रहे हैं। जिसका सामान्य भाषा में अर्थ है: वनराज सिंह हाथियों को अपनी एक हुंकार (गर्जना) में भगा देता है। गज याने हाथी, केषरी याने सिंह।
गुरू विष्वामित्र से षस्त्र षिक्षा में अनेक रहस्यमयी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया। जिसका सर्वप्रथम प्रयोग ताड़का और सुबाहु के बध के रूप में घटित हुआ। श्री रामचंद्र जी ने जहॉ जहॉ अपने पग रखे, वहॉं उन्हें यष मिला। षत्रु विजय सीता स्वयंवर से लेकर खरदूषण तथा वानरराज बालि तथा दषानन रावण तक अनेक षक्तिषाली अपराजेय योद्धाओं का वध किया।

तुलसी की रामचरित मानस में
खरदूषण मो सम बलबन्ता। मार सकें न बिनु भगवन्ता
   रावण संहिता में दषानन रावण ने धनु राषि गत षष्टम् भवन की व्याख्या  करते हुये लिखा है ऐसा जातक षुत्रओं का घमण्ड चूर करने वाला तथा अपने बड़ों को मान देने वाला होता है। त्रेतायुगीन राम ने धरती पर आसुरी षक्तियों का तो नाष किया साथ ही अपने गुरूओं, ऋषियों मुनियों को यथेष्ठ सम्मान देकर उनका मान भी बढ़ाया है।

सीता पति रघुनन्दन श्री राम सप्तम भवन: रघुनन्दन श्रीराम की जन्म कुण्डली के सप्तम भवन में मकर राषि में उच्च राषि गत भूमि पुत्र मंगल विराजमान हैं। सप्तमस्य मंगल होने सेे श्रीरामजी की कुण्डली मंगली बन गई। मंगल पंचमेष और राज्येष है। गजकेषरी योग की सप्तम दृष्टि दाम्पत्य जीवन को भी प्रभावित कर रही है। जनकनंदिनी सीताजी सेे उनका विवाह धनुषभंजन के बाद विवाह हुआ। किन्तु भूमि पुत्र मंगल उच्चासीन होकर कह रहे हंै। जातक को दाम्पत्य जीवन का सुख तो दूंगा, किन्तु अल्पकालीन।
सप्तम भवन : से पारिवारिक झगड़े तथा भूत भविष्य, वर्तमान की स्थिति का सिंहावलोकन भी किया जाता है। मंथरा की षडय़ंत्रमयी योजना ने कैकेयी की मति भ्रष्ट की। परिणितीवष श्रीराम को वनगमन, सीताहरण आसुरी षक्तियों का विनाष, लंका विजय के पष्चात् अध्योध्या में राजतिलक, वैदेही सीता का त्याग, ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में श्रीसीताराम के पुत्रों लव कुष का जन्म, जनकनंदिनी सीता का भूमि के प्रवेष। ये सारे कथानक सप्तमस्थ उच्च राषिगत मंगल की चेष्टाओं का फल है।

रघुनंदन का आयु भवन 
अष्टम भवन : श्रीराम जी की कुण्डली में अष्टम भवन में कुम्भ राषि का स्वामी षनि चतुर्थ भवन में अपनी उच्चराषि तुला में विराजमान है। अष्टमेष षनि जातक की दीर्घायु का परिचायक है। किन्तु सप्तमेष और अष्टमेष षनि बलवान स्थिति में होकर जातक को दीर्घायु तो देता है, वहीं दूसरी ओर दाम्पत्य जीवन में अषुभता भी लाता है। साथ ही मृत्यु स्थान भी यह निर्धारित करता है। अष्टमेष षनि चतुर्थ भवन में होने से पारिवारिक विवाद के कारण वनगमन से सुख की हानि हुई। किन्तु वहॉ असुरों का विनाष कर यष मिला। रण रिपु अर्थात युद्ध क्षेत्रों में षत्रुओं का वमन भी किया पृथ्वीं से प्रस्थान के बाद चिरकाल तक यषोगाथा अनेक प्रतीकों में बनी रहेगी। यह भी उनके अष्टमेंष उच्च राषिगत न्याय के देवता षनि की महिमा का फल है।

भाग्य भवनस्थ षुक्र
श्री राघव की कुण्डली का भाग्य भवन कम चमत्कारी नहीं है। भाग्य भवन का स्वामी नवमेष गुरू अपनी उच्च राषि कर्क में चन्द्रदेव की युति के साथ लगनस्थ है। भाग्येष गजकेषरी योग बन रहा है, लग्न भवन में। भाग्य भवन में उच्च राषिगत षुक्र चतुर्थेष तथा द्वादषेष का स्वामी है। माता से लेकर भूमि, भवन, वाहन (रथ) आदि सभी सुखों से पूरित रहे किन्तु अपनी सप्तम् दृष्टि से पराक्रम भवन को निहारते षुक्र ने पराक्रम के प्रदर्षन का माध्यम नारी जाति को बनाया। षुक्र स्त्री ग्रह है। महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या की मुक्ति, रावण से युद्ध में विजयश्री प्राप्त कर अषोक वाटिका से जनक नंदिनी सीता जी की मुक्ति, बालि वध से सुग्रीव की पत्नि रोमा की मुक्ति, श्री राम की यषोगाथा का एक पक्ष हैं। वही दूसरी ओर आसुरी षक्तियों का नाष कर ऋषियों तथा जन जन को निर्भय जीवन दिया, यह प्रभु श्रीराम के भाग्य भवन का पुण्य प्रताप ही तो था।

दसमस्थ सूर्य बुध

रघुनंदन श्री राम की कुण्डली के दसम भाव अर्थात राज्य भवन में सूर्य के साथ बुध की युति बुध आदित्य योग तो बना रहा है किन्तु बुध व्ययेष होने से राजतिलक होते होते 14 वर्षीय वनवास का योग बन गया। व्ययेष बुध ने राजयोग खण्डित किया। क्योंकि व्ययेष जिस भवन में विराजमान होता उसे किंचित सम्मान की हानि तो देता ही है। बुध ने ही उन्हें पिता के सुख से वंचित किया। किन्तु सूर्य उच्च राषिगत होकर राजभवन में विराजने से गौरव, ऐष्वर्य एवं नेतृत्व का स्वामी बनाया। पिता की आज्ञा से वन गये। पिता का मान बढ़ाया। आसुरी षक्तियों के विनाष हेतु वानर जाति की सेना का नेतृत्व कर विजयश्री प्राप्त की। अधिकार प्राप्ति के रूप में सम्राट बने अयोध्या के। ईष्वर प्राप्ति भी दसम भवन से देखी जाती है, तो जो स्वयं त्रिभुवनपति हो उसे अपनी भक्ति में लगाकर मोक्ष प्रदान कराने में बुध का योगदान महत्वपूर्ण है। क्योंकि द्वादष भवन मोक्ष का भवन भी है। अपनी भक्ति से अनेक साधु, संतो, भक्तों तथा पापियों को भी मोक्षगामी बनाने में पथ पथ पर प्रेरणा दी। प्रभुता भी दसम भवन का एक गुण है। तो श्री राम प्रभुता पाकर भी दीनों के प्रति भी सहृदय बने रहे यही उनकी अनुग्रहमयी प्रभुता है। किन्तु स्मरणीय रहे। चतुर्थ भवन उच्चराषिगत षनि की सप्तम दृष्टि नीच राषि पर होने के कारण ही उन्हें वनवास में 14 वर्षीय वनवासी जीवन बिताना पड़ा। भले ही प्रकृति की रहस्यमयता आसुरी षक्तियों के विनाष के रूप मेें रूपांन्तरित हो गयी हो। किन्तु मंगल की चतुर्थ स्वक्षेत्री दृष्टि और सूर्य के उच्च राषिगत प्रभाव से वनवास की समाप्ति के पष्चात् पुन: राज्यारोहण ग्रहों की अपनी रहस्यमयी कलात्मक षक्तियों की ओजस्वीयता है।

एकादष: लाभस्थ भवन
एकादष भवन मूलत: लाभ, सम्पन्नता, वाहन, वैभव, स्वतंत्र चिन्तन के रूप में ज्योतिषीय ग्रंथों में स्वीकारा गया है। जन जन के प्रभु राम स्वतंत्र चिन्तन के रूप में नैसर्गिक अर्थात प्राकृतिक सम्पदाओं से मुक्ति का बोध कराते हैं। भक्तवत्सल श्रीराम का मानव से लेकर समस्त जीवों के प्रति उदार भाव तो था ही किन्तु एकादषेष षुक्र भाग्य भवन में अपनी उच्च राषि मीन में विराजने से सभी के प्रति करूणा भाव बनाये रखने के प्रति संकल्पित रहे। अवतारी होने के बाद भी अपनी मानवीय मर्यादा में बने रहे। एक पत्नि व्र्रतधारी होने से उन्होंने सम्पूर्ण नारी समाज को गरिमा प्रदान की। मित्रों को सहोदर की तरह मान दिया। षत्रुओं के प्रति भी मानवीय मूल्यों का क्षरण उन्होंने  नहीं स्वीकारा। वचन बद्धता राघव की निष्ठा का अमोघ षस्त्र रही।

मोक्ष का पर्याय द्वादष भवन
सीता पति राघव की कुण्डली के बारहवें भवन में मिथुन राषि की स्थापना ने मर्यादा पुरूषोत्तम राम की कथनी करनी में कहीं भी अवरोध पैदा नहीं होने दिया। द्वादष भवन से ज्ञान तन्तु, स्वभाव, षान्ति, विवेक, व्यसन, सन्यास, षत्रु की रोक तथा धन सुख सम्मान का व्यय आदि का लेखा जोखा देखा जाता है।  द्वादष भवन में मिथुन राषि होने सीता पति राघव भावुक थे। वेदेही हरण एवं लक्ष्मण को षक्ति लगने पर वे कैसे व्यथित हुए, यह तुलसीकृत रामायण में रोमांचकारी षब्दषैली में अंकित है। वनवास में राज सत्ता से 14 वर्षो तक दूर रहे किन्तु पिता की आज्ञा को सर्वोपरि माना। सीता हरण में सुख और सम्मान का व्यय हुआ किन्तु अपने विवेक से वानर सेना का नेतृत्व कर षत्रुओं पर रोक ही नहीं लगाई अपितु उनका नाष भी किया। वनवासी राम ने एक सन्यासी के रूप में 14 वर्ष वनों में बितायें। किसी भी नगर में 14 वर्षो की अवधि में उन्होंने प्रवेष नहीं किया, ऐसे थे सन्यासी राम।

ब्रह्माण्ड नायक राम
राम, ब्रह्मवादियों का ब्रह्म, ईष्वरवादियों का ईष्वर, अवतारवादियों का अवतार, आत्मवादियों वं जीववादियों का आत्म एवं जीव है। रामायण महाकाव्य बना। उतरोत्तर राम नाम के साथ साहित्य में भक्तिभाव का वातावरण बनता गया। ईसा के पॉंच सौ वर्ष के बाद इसका ज्यादा विस्तार हुआ तथा ईसा के एक हजार वर्ष बाद दाषरथि राम परमात्मा के रूप में गूंज गये।हमारी भारतीय सभ्यता के उषाकाल में साहित्य चार वेदों में था, जिनमें ऋग्वेद प्रथम था। वैदिक साहित्य में खेती की अधिष्ठात्री देवी का नाम सीता था, क्योंकि मूल में सीता लांगलपद्धति (खेत की हराई) थी। इसीलिए मिथिला में जनक के हल चलाते समय खेत में, जो नवजात बच्ची पायी गई, उसका नाम सीता रखा गया। ऋग्वेद में इक्ष्वाकु दषरथ और राम के नाम आए है। ऐतिहासिक ढंग से अध्ययन करने वाले प्राय: समस्त विद्वान एक स्वर में कहते हैं कि महाभारत तथा प्रचलित वाल्मीकि रामायण के पूर्व राम कथा संबंधी आख्यान प्रचलित थे। ये आख्यान निष्चित रूप से बुद्धकाल के आसपास के रहे होंगे। इसी आधार पर भारत (महाभारत का प्रथम रूप) तथा बौद्ध जातक कथाओं में राम कथा के अंष आये हंै। वाल्मीकि रामायण में महाभारत के पात्रों तथा कथानकों की चर्चा नहीं है। परन्तु महाभारत के प्राचीन अंषों में रामकथा के पात्रों की चर्चा है। महाभारत के षान्ति पर्व के 29 वे अध्याय के 12 वें ष्लोक में नारद संजय को उपदेष देते हुये कहते हैं कि संसार में कौन नित्य रहने वाला है। सुना गया है कि दषरथ पुत्र राम बड़े प्रजापालक थे, किन्तु उन्हें भी इस संसार से जाना पड़ा। महाभारत में भी राम का अवतार रूप पहुुंच गया था। बौद्ध साहित्य में अनामक जातकम् के नाम से अन्य कथा भी है, जिसमें राम कथा है, इस जातक में राम सीता का वनवास, सीता हरण, जटायु वृतान्त, बाली और सुग्रीव का युद्ध, सेतु बन्ध, सीता की अग्नि परीक्षा, इन सबों के संकेत मिलते हैं।

वाल्मीकि रामायण और अवतारवाद
    रामकथा के स्फुट रूप देषी भाषा में बुद्ध काल के थोड़े पूर्व से ही उत्तरी भारत में प्रचलित थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व वाल्मीकि ऋषि ने रामकथा के स्फुट रूप एवं लोकगीत को एक काव्य रूप में गुंफित किया। भगवतगीता के लेखक श्रीकृष्ण के मुख से कहलाते हैं श्मैं षस्त्रधारियों में राम हॅूश् श्राम: षस्त्रभृतामहम् (गीता 10:31) तक राम की प्रसिद्धी केवल षस्त्रधारी योद्धा के रूप में थी। किन्तु श्रीकृष्ण को अवतार के रूप में मान्यता पहले मिल चुकी बाद में श्रीराम को। अवतारवाद के विकास में छठी या सातवीं षताब्दी में महात्मा बुद्ध भी विष्णु के अवतार माने जाने लगे।

पुराण साहित्य
हरिव पुराण, मार्केडेय पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, भागवत पुराण, कूर्मपुराण आदि सभी पुराणों में भगवान राम को विष्णु का अवतार मानने की बात दोहराई गई है। इसके आगे वाराह पुराण (800 ई.) अग्नि पुराण तथा स्कंद पुराण (900 ई.) लिंग पुराण, गरूण पुराण (1000 ई.) वामन पुराण और भविष्य पुराण अधिक अर्वाचीन है। इन सब पुराणों में रामावतार तथा राम भक्ति का प्राबल्य होता गया।

रामायण साहित्य
योग वासिष्ठ महारामायण (11 वीं सदी) अध्यात्म रामायण (1500 ई.) अदभुत रामायण (1600 ई.) आनंद रामायण (1600 ई.) तत्व संग्रह रामायण (1700 ई.) कालनिर्णय रामायण तथा अन्य रामायण जिसमें अपने अपने ढंग से राम चरित्र वर्णन है। अन्य बीस रामायणों की सूची
1. महारामायण (35000 ष्लोक),
2. संवृत रामायण (2400 ष्लोक),
3. अगस्त्य रामायण (16000 ष्लोक),
4. ओम रामायण (32000 ष्लोक)
5. राम रहस्य रामायण (22000 ष्लोक)
6. मंजुल रामायण (120000 ष्लोक)
7. सौ पद्म रामायण (62000 ष्लोक)
8. रामायण महामाला (56000 ष्लोक)
9. सौहार्द्र रामायण (40000 ष्लोक)
10. रामायण मणिरत्न (3600 ष्लोक)
11. षौर्य रामायण (62000 ष्लोक)
12. चांन्द्र रामायण (75000 ष्लोक)
13. भैंद रामायण (52000 ष्लोक)
14. स्वायंभुव रामायण (18000 ष्लोक)
15. सुब्रह रामायण (32000 ष्लोक)
16. सुवर्चस रामायण (15000 ष्लोक)
17. देव रामायण (100000 ष्लोक)
18. श्रमण रामायण (125000 ष्लोक)
19. दुरन्त रामायण (61000 ष्लोक)
20. रामायण चंपू (15000 ष्लोक)

महाकाव्य रामायण
वाल्मीकि रामायण का कवि जगत में बहुत प्रभाव पड़ा और राम कथा लिखने की एक बाढ़ सी आ गई। ईसा की चैथी षताब्दी से संस्कृत ललित (श्रृंगार प्रधान) साहित्य में महाकाव्य, नाटक, खण्ड काव्य आदि लिखे जाने लगे।

विदेषी भाषाओं में राम कथा
1. तिब्बती रामायण (800 ई.) 2. खेतानी रामायण (900 ई.)
3. रामायण ककविन (हिंदेनेषिया 1000 ई.) 4. हिकायत सेरीराम 5. राम केलिंग 6. पतानी राम कथा 7. सेरत कांड 8. रामकेर्ति 9. रामकियेन
10. राम गायन (1800 ई.)
पाष्चात्य भाषा में राम कथा
1.लिब्रो डा सैंटा: लेखक: जे. फेनिचियों (1609 ई.)
2.दि ओपन दोरे: लेखक ए. रोजेरियुस (1700 ई.)
3.आफ गोडेरैयउर इण्डिषेहाइडेनन: लेखक पी. बलडेयुस (1700 ई.)
4.असिया: लेखक ओ. डेप्पर (1700 ई.)
5.असिया पोर्तुगेसा: लेखक डे फरिया (1700 ई.)
6.रलसियों डे एरयर (1700 ई.)
7.ला जानिटिलिटे डु वेंगाल (1700 ई.)
8.पुर्तगाली वृतांत, क (1700 ई.)
9.पुर्तगाली वृतांत, ख (1800 ई.)
10.पुर्तगाली वृतांत, ग (1800 ई.)
11.ट्रावल्स इन इंडिया: लेखक जे. पी. टापर्निये (1700 ई.)
12.वोयाज ओस एन्ड आरियन्टाल: लेखक एम सोनेरा (1800 ई.)
13.मिथोलॉजी डेस इण्डू: लेखक डे. पोलियो (1800 ई.)
14. हिन्दु मेनर्स, कस्टम एन्ड सेरेमोनिस: लेखक जे. ए. दुब्वा (1900 ई.)
15. इलवियाजियो अल इन्डिये आरियेन्टालि: लेखक पी. एफ. विनजेनजा मरिया (1700 ई.)
16. स्टोरिया डी मोगोर: लेखक एन. मनुच्ची (1700 ई.)
17.हिस्तोरिया दो मालावार: लेखक दिओगो गोंसाल्वेस (1700 ई.)