शनिवार, 12 मई 2012

ग्वालियर गौरव गाथा






- राजकुमार सोनी

    ग्वालियर-विभूति की धरती-सहस्त्रों वर्षों से आत्मकल्याण का सन्देश देती रही है। इसकी पावन धरती पर एक ऐसे महान व्यक्तित्व की पवित्र भावना का तेज पुञ्ज है जो युगों-युगों तक शाश्वत सत्य बनकर असत् पर सत्य की सत्ता, हिंसा पर अहिंसा और प्रेम की विजय स्थापित कर प्राणीमात्र के आत्मोत्थान के लिये प्रकाश स्तंभ की भाँति दिशा निर्देशन करता रहेगी। ऐसी महान विभूति थे - 'सुप्रतिष्ठिïत केवलीÓ जिन्होंने गोपाचल (ग्वालियर) पर महाभारत से पूर्व इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीर्थकाल में निर्वाण प्राप्त किया था।
   'श्री गोपाचल से सुप्रतिष्ठिïत केवली मोक्ष गए हैं सो यह निर्वाण भूमि है।Ó
- 'शौरीपुर पट्टïावली-लवेंचू इतिहासÓ , पं. झम्मनलाल तर्कतीर्थ।

    एक बार शौर्यपुर के उद्यान में सुप्रतिष्ठिïत मुनिराज जन प्रतिमायोग से ध्यानारूढ़ थे तब एक यक्ष ने उनके ऊपर भयानक उपसर्ग किये। किन्तु मुनिराज ध्यान में अचल रहे और उन भयानक उपसर्गों के बीच उनके मन की शांति और समता भाव तनिक भी भंग नहीं हुये। आत्मा में स्थिर रहकर संचित कर्मों का शुक्ल ध्यान द्वारा क्षय करते रहे। वे श्रेणी आरोहण करके उस स्थिति को प्राप्त हो गये जहाँ ध्यान और ध्येय, चैतन्य भाव, चैतन्य कर्म और चैतन्य की क्रिया अभिन्न एकाकार हो जाती है। उसी समय उन्होंने ज्ञानावरणी, दर्शनावणी, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का विनाश कर दिया। तब उनकी आत्मा विशुद्ध केवल ज्ञान की अनन्त आभा से आलौकित हो उठी। उसी समय चारों निकाय के देव और इन्द्र सुप्रतिष्ठिïत केवली भगवान की वन्दना और पूजा कर यथास्थान बैठ गये। तभी भगवान का उपदेश हुआ।
    सुप्रतिष्ठिïत केवली के उपदेश सुनकर शौर्यपुर नरेश अन्धकवृष्णि के मन में सांसारिक भोगों से विरक्ति हो गई। उसने शौर्यपुर का राज्य अपने पुत्र समुद्रविजय को देकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। इन्ही सुप्रतिष्ठिïत केवली का निर्वाण गोपाचल (ग्वालियर) पर हुआ। इस कारण यह सुप्रतिष्ठिïत निर्वाण क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ। आचार्य पूज्यपाद (देवनंदि) ने जिन निर्वाण क्षेत्रों के नाम बताये हैं उनमें सुप्रतिष्ठिïत निर्वाण क्षेत्र भी एक है।
गोपाद्रौ देवपत्तने -
    ''विक्रमादित्य राज्येऽस्मिश्चतुर्दयरेशते।
    नवषष्ठïयायुते किनु गोपाद्रौ देवपत्तने॥ÓÓ

    वीरेन्द्रदेव ग्वालियर के तोमर राजा (सन् 1402 -1423) थे। कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्व प्रदीपिका की एक प्रतिलिपि वीरमेन्द्रदेव के राज्यकाल में सन् 1412 ई. में की गई थी। उक्त टीका के प्रतिलिपिकार ने उनके गढ़ गोपाचल को देवपत्तन कहा है।
                                                                                                                  - डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी।
    तीर्थमालाओं में ग्वालियर का उल्लेख प्रसिद्ध जैन तीर्थ के रूप में किया गया है जो बावनगजा तीर्थ क्षेत्र से प्रसिद्ध रहा है -
    ''गोपाचल जिनथान बावनगजा महिमावर।
    भविक जीव आधार जन्म कोटि पातक हर॥
    जेसुमिरे दिनरात तास पातक सवि नाशे।
    विघन सदा विघटित सुख आवे सवि पाशे॥
    बावनगजा महिमाघणी सुरनर वर पूजा करे।
    ब्रह्मïज्ञानसागर वदति जे दीठे पातक हरे॥ÓÓ

        - सर्वतीर्थ वन्दना - ज्ञानासागर ईसा की 16 वी 17 वीं सदी।
    इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ग्वालियर जैनियों के लिये देवपत्तन था और इसकी गणना जैन तीर्थों में की जाती थी।
    अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइघू (विक्रम की 15 वीं शताब्दी का पूर्वाध) ने पासणाह चरिउ में लिखा है -
    'जहि सहहिणिरंतर जिणणिणेव। पंडुर सुवण्ण धमयड-समेयÓ
    भावार्थ - जहाँ पंाडुर एवं सुवर्ण वाली अनेक पताकाओं से युक्त जिन मंदिर शोभायमान रहते हैं।
    'सम्मतगुणणियुण कव्वÓ ग्रंथ में उक्त कवि ने ग्वालियर नगर प्रसंग में लिखा है - उसने (राजा डूंगर सिंह ने) अगणित जैन मूर्तियों का निर्माण कराया था जिन्हें ब्रह्मïा भी गिनने में असमर्थ हैं।
    यह ऐतिहासिक सत्य है कि तोमरवंश के राजा डूंगरसिंह ने विक्रम सम्वत् 1481 में राज्य संभाला। उसी समय से ग्वालियर किले के पहाड़ की चट्टïानों में अनेकों जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने का कार्य प्रारंभ हुआ जो उसके पुत्र कीर्तिसिंह के काल तक चला। ये कला एवं पुरातात्विक दृष्टिï से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
    गोपाचल का नाम आते ही हिन्दी के कवि केशवदास की 'कवि प्रियाÓ (सन् 1600-1601) की निम्न पंक्तियां मस्तिष्क में गूँज उठती हैं :-
    'आछे आछे वसन, असन, वसु, वासु पसु ,
    दान, सनमान, यान, वाहन वखानिये।
    लोग, भोग, योग, भाग, बाग, राग, रूपयुक्त,
    भूषननि, भाषित, सुभाषा मुख जानिये।Ó
    सातो पुरी, तीरथ, सरित सव गंगादिक,
    केशोदास पूरण पुराण गुन जानिये।
    गोपाचल ऐसे गढ़ राजा रामसिंह जू से,
    देशनि की मणि, महि मध्य प्रदेश मानिये।

    केशवदास ने मध्यप्रदेश को देशों का मणि कहा है इसके निवासियों के मुख में सुभाषा का वास बतलाया है। मध्यप्रदेश के अन्तर्गत बुन्देला रामसिंह का राज्य है और गोपाचल जैसा गढ़ है और पुण्य तीर्थराज गढ़ गोपाचल तीर्थराज की मणिमाला का मणि है।

प्राचीनता
    मध्यभारत भारत-भूमि का हृदय स्थल है, तथा ग्वालियर उस मध्यभारत का पुण्य तीर्थराज है। शताब्दियों से यह भूमि इतिहास, कला, संस्कृति एवं साहित्य की क्रीड़ा भूमि रही है। विद्वत जनों ने अपने कार्यकलापों एवं कृतियों से इस तीर्थराज को अपने आपको समर्पित किया है। ग्वालियर का इतिहास अति प्राचीन है -
    'इतिहास जैनागम विषे, इस दुर्ग को सम्मान से।
    देखा गया अति प्रेम से, प्राचीनतम युगकाल से॥Ó

                                                                                    - ग्वालियर का अतीत : पं. छोटेलाल वरैया।
ग्वालियर दुर्ग की प्राचीनता के संबंध में आख्यान मिलते हैं :-
    'पुण्य नक्षत्र जोग शुभ लियो। तेरस सकल ठाठ विधि कियो।।
    तिहि विधि सकल वेद विधि ठई, तबै नींव गोपाचल दई॥
    द्वापर अंत जु कलियुग आदि, संवत धरयो महूरत साधि॥
    धर्म जुधिष्ठिïर संवत, लह्यïो, आदि ग्रंथ में ते मैं कहयो॥Ó

    - गोपाचल आख्यान - खड्गराय।
    द्वापर के द्वय मास रहे, पुनि प्रवेश कलिकाल।
    सो संवत् मिति जानियो, गढ़ की नींव मुवाल॥

        - (गोपाचल आख्यान - नाना कवि)
लेकिन इससे भी आगे -
    श्री रमाकान्त चतुर्वेदी संग्रहालयाध्यक्ष नगर निगम संग्रहालय, ग्वालियर ने सन् 1987 में प्रकाशित 'शताब्दीÓ नगरपालिका निगम ग्वालियर में  'ग्वालियर पुराख्यानÓ लेख में लिखा है - '12 वर्ष बीत गये यह खोज किये हुये तथा अन्तर राष्टï्रीय पुरातत्व जगत में यह मान्यता प्रदत्त कराते हुये कि ग्वालियर में मानव संस्कृति आज से पाँच लाख वर्ष पूर्व विद्यमान थी।Ó
    लेकिन इस बात का दु:ख है कि आज भी जितने इतिहास परक ग्रंथ लिखे जा रहे हैं अथवा विद्वानों द्वारा यत्र-तत्र लेख लिखे जा रहे हैं, उनमें ग्वालियर का इतिहास अथवा सभ्यता की प्राचीनता को केवल 1400 वर्ष प्राचीन निरुपित किया जा रहा है। इसे ज्ञान शून्यता कहा जाये अथवा जिज्ञासा शून्य।
इसके ही प्रमाण में :- डॉ. हरिहरनिवास द्विवेदी भी इसी शताब्दि में लिखते हैं -  'ग्वालियर नगर के सीमान्त पर गुप्तेश्वर और देवखोह के शैलाश्रयों के शैलचित्र इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव के निवास के साक्षी हैं, अपितु ग्वालियरगढ़ का महत्व मौर्यकाल में ही स्थापित हो चुका था तथापि, अभी तक गढ़ पर तीसरी शताब्दी के पूर्व के अवशेष प्राप्त नहीं हुये हैं। उस समय की पूरी या टूटी मूर्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी प्राप्त हो जाती हैं।Ó लेकिन - अभी-अभी अगस्त 2003 में ग्वालियर किले के उरवायी गेट के पास खुदाई में कुषाण काल की ईंटें प्राप्त होने से ग्वालियर के इतिहास की जो नींव पड़ी थी उसकी अब जड़ हिलने लगी है। ग्वालियर का अस्तित्व तो ईसा से दो सौ साल पूर्व भी पाये जाने के संकेत मिलने लगे हैं।
    यह तो पुरातत्व की कहानी है, परन्तु जैन धर्म के अनुसार तो ग्वालियर महाभारत काल से पूर्व भी था - क्योंकि ग्वालियर दुर्ग की पहाड़ी से सुप्रतिष्ठिïत केवली मोक्ष गये हैं इसलिये यह निर्वाण भूमि है। परन्तु - काल ने कवलित कर लिया इसे और इसके इतिहास को भी।
    ग्वालियर की जैन संत परम्परा भी इसी का दुष्परिणाम है। अत: जो कुछ ज्ञात हो सका वह लिखा जा रहा है।



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