रविवार, 13 मई 2012

चेतना का शिखर यात्री - ताल-मर्मज्ञ - दशग्रीव




कवि, लेखक अपने साहित्य जगत में स्वतंत्र विचरण करता है, परन्तु उसकी रचना समाज को दिशा अवश्य देती है, वह जनमानस का वैचारिक पोषक भी होता है, कवि, लेखक, चिंतक सनकी होकर, सनक की हद भी पार कर सकता है और फिर 'सनकुआ का निवासी यदि सनकी हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं, भले ही वह 'समालोचना का शिकार क्यों न हो जाय। फिर भी प्रस्तुत है - एक सनक रचना का उदाहरण, बानगी या प्रेरक प्रसंग।

जीवन सदैव, उत्सव मय, रहना चाहिये -''नित्योत्सवो,  नित्य सौख्य नित्य श्रीर्नित्य मंगलम यही हमारी ऋषि प्रणीत, परंपरा रही है। वैसे तो - हमारे यहाँ - प्रत्येक तिथि, वार, दिवस - व्रत-त्योहारों से भरे पड़े हैं, किन्तु उत्सव तो पांच हैं - जो सभी को विशेष कर मुझे अधिक प्रिय हैं :-
1. धनतेरस
2. काली चौदस (कार्तिक कृष्ण 14)
3. दीपावली
4. अन्नकूट
5. भाई दौज।
भावन्त से ओतप्रोत जीवन क्षण - रामनवमी
श्रद्धा समर्पण से, भरा जीवन क्षण - जन्माष्टïमी।
(इसे साधना व भक्ति की पराकाष्ठïा का समय भी कहते हैं।)
1. धनतेरस का अर्थ :-
    हमारे पास जो भी हो, या आवे - द्रव्य-पात्र-अन्न, मानव-दानव, उसे अपने रस में लिप्त कर - अपना बनाकर ही वापस करें। आपके पास जो भी है - अन्न, वस्त्र, द्रव्य, पात्र, विद्या, सुख-शांति आदि - उसे आवश्यकतानुसार सभी को वितरित करें - उससे जो रसोद्भूति होगी वही धन्य है-'धनतेरसÓ जिसको कि रावण ने पाया। वह रसधन्य है। प्रभु ने जो भी दिया है उसे रस की तरह वितरित करें। अभावग्रस्त को तो देना ही है - जो भाव से परे है उसे भी देना तभी वह धन्य है। वैसे तो -
    के हरि मूंछ-फणिन्द मणि, पतिव्रता की देह।
    सूर कटारी-विप्र धन, मरें चांय कोऊ लेय॥
    रावण ने सब को बाँटा, आज भी शिव पूजन विधान 'रावण प्रणीत प्रचलित हैÓ वह तो अपना मस्तक भी दे देता था- वह कहता था - 'सीस दिये जो गुरु मिले, - तो भी सस्ता जानÓ रावण जिस दिन धरा पर आया - वह दिन धनतेरस। (घेरण्ड संहिता द्वि.खं.)। उसके रस को धन्य है वह रसिक है, ज्ञानी भी। शंकर-रसमय, राम रस तो है ही (राम नहीं तो रस भी नहीं) नमक कृष्ण तो रसौ वैरस:, रस-सम्राट। कोई धरम जानता है कोई करम जानता है, किन्तु जो मरम जाने - वही ज्ञानी। पक्का चरित्र निर्माण - व्यक्ति के विचार (स्वभाव से) होता है। रावण ने कहा है -  'गिव मी योर हैबिट-आइ विल गिव यू करैक्टरÓ - मन के रुझान को स्वभाव और शरीर के अभ्यास को, आदत कहते हैं।
    रावण चरित्र-प्रतिभा युक्त है। उन्होंने अनेकों बार कहा है - नीति बदलती रहती है समयानुसार बदलना भी चाहिये - किन्तु प्रीति नहीं। कारण - प्रीति बिना भक्ति नहीं। 'वह शमा क्या बुझे-जिसे रोशन खुदा करेÓ लंकेश-कहीं भी अमर्यादित नहीं। श्रीराम यदि मर्यादा पुरुषोत्तम; तो रावण-मर्यादा पालक। वेद पुराण, इतिहास, शास्त्र किसी ने भी रावण को अमर्यादित निरुपित नहीं किया। महाराज रावण का कथन है - यदि उस परमेश्वरी की, गुरु की कृपा चाहते हो तो उन पर संदेह मत करो।
    स्वामी रामकृष्ण परमहंस को रात्रि में अपने आसन पर न देखकर कुछ शिष्यों को शंका हुई .... सोचने लगे शारदा वाई से मिलने तो नहीं गये? कांचन-कामिनी, त्याग कठिन है, किन्तु अर्धरात्रि में, जब खोजा, तो ज्ञात हुआ (पंचवटी गये हैं) लज्जित हुए।
    अरे! महाकाली से प्रत्यक्ष जिस की वार्ता हो, जिस गुरु से संदेह की निवृत्ति हो, उसी पर संदेह फिर समाधान कौन व कैसे करायेगा? गुरु कृपा पाने के लिये - श्रद्धा परमावश्यक है। स्वामी जी से एक शिष्य ने पूछा, महाराज! गुरु का त्याग किया जा सकता है या नहीं? उत्तर - जो गुरु धन एवं भौतिक पदार्थ चाहे, आध्यात्म मार्ग को न बता सके, वह गुरु ही नहीं ,ऐसे गुरु का त्याग किया जा सकता है। और जिसे - अपने माता-पिता, गुरु या इष्टï के प्रति निष्ठïा - आस्था नहीं, संदेह हो - ऐसे शिष्य का भी त्याग कर्तव्य है। अंत:करण की वृत्ति ही प्रमाण होती है। गुरु वाक्य ही प्रमाण है। अरे! हनुमान जी से स्वयं तुलसी बाबा ने कहा- मैं मात्र आपकी कृपा चाहता हूँ। (जय हनुमान गुसाईं - कृपा करहु गुरुदेव की नाई) गुरु की भांति मेरे ऊपर कृपा करें।
    आज भी भारत का युवा श्री मारुति का आश्रय लें, तो निश्चय ही कल्याण होगा - कारण वह अजर-अमर (महावीर हैं) चतुर्युग प्रतापी हैं - वह दाता हैं -
    तसबीह के दाने पर निगह कर दाना।
    गर्दिश में गिरफतार है - जो है दाना॥
    माला लेकर, जप करने वाला, असत्य नहीं बोल सकता। यदि बोलता है तो निश्चय है कि उसने, सत्संग नहीं किया। अधिकारी वह है जिसके पास जिम्मेदारी है। वानरराज ने जिम्मेदारी ली है अपनों के संरक्षण की। हनुमान चालीसा - स्त्री-पुरुष, सभी कर सकते हैं।
    मंगल मूरति - मारुति नंदन।
    सकल अमंगल मूल निकंदन॥
श्री हनुमंत योगाचार्य हैं। हमें यदि परमात्मा से जुडऩा है तो, हनुमान का आश्रय अत्यावश्यक है। चालीसा पाठ करे उस दिन कहीं भी, कोई भी बंदी मुक्त हो जाता है। इसे असत्य न समझा जाये। (छूटे बंदि - महासुख होई) यह तथ्य सत्य है। अपने शिष्य (रावण को) मार्गदर्शन सर्वप्रथम हनुमंत ने ही दिया। (उलटि-पुलटि लंका सब जारी) सर्वत्र हाहाकार! किन्तु रावण के मस्तक पर ज़रा भी शिकन नहीं, क्योंकि वह जानता था कि स्वर्णलंका नाशवान है, लंका मेरा घर नहीं क्योंकि घर वहाँ होता है - ''जहाँ दिल होता हैÓÓ मेरे गुरु ही तो हैं, वह मेरे विपरीत को - मेरे पापों को जला रहे हैं, ध्यान रखिये भौतिक साधन कितना ही बाहय सुख प्रदान करे - भीतर तो खाली ही रहेगा, गुरु ने मेरे हित में जो अच्छा समझा वही किया मेरी कोई क्षति नहीं। दुनियाँ गुरु द्वार खटखटाती है, गुरु मेरा द्वार खटखटा रहा है। यदि राम, परम पुरुष है तो वह भी मेरे दरवाजे आवेगा और सभी को ज्ञात है, सेतु बंधन द्वारा समुद्रोल्लंघन कर भी राम का - रावण के चौखट पर पहुँचाना। यही लंकेश का अपने गुरु तथा अपने इष्टï के प्रति, तन्मयता का प्रमाण है। महात्मा रावण का कथन है - 'जिसके बनकर आये हो - उसी के बनकर जाओÓ उन्होंने स्वयं भी इस सिद्धान्त को निभाया। मातृगर्भ में व्यथित जीव, प्रार्थना करता है, हमें इस बार मुक्त करें प्रभो!  मैं आजन्म आपका स्मरण करूँगा।
    ''आये ते कौल कर - जाय, हरि नाम लेय।
    आन कैं भुलानों - माया जाल में परो रहो॥ÓÓ
    अपने पुत्र इन्द्रजीत को - उत्तराधिकारी, नहीं बनाना चाहते थे, उसकी क्रूरता अविवेक के कारण विमुख ही रहा। सर्वप्रथम विभीषण को ही राम के पास पहुँचाया उपरांत - क्रमश: अपने मंत्रियों, कर्मचारियों तक को उस मार्ग का अनुसरण कराया। उदाहरणार्थ - शुक+पिकादि गुप्तचरों को वहाँ की माहिती लेने - रामादल में भेजा - वानर रूप धारण किया। भले ही पकड़े गये, प्रताडि़त भी हुये लक्ष्मण के कहने से विरूप नहीं हो पाये, उनका पत्र लेकर लंका वापस आये, किन्तु ऐसे प्रभावी हुए कि - राम के बनकर ही वापस लौटे और राम की छवि, स्वभाव, वातावरण, आनंद, सौन्दर्य-शौर्य तथा अद्भुतरस का वर्णन- रावण को सुनाया 'व्यक्ति के शील से - उसके जीवन की शैली बनती हैÓ जो रसज्ञ हैं - वही धन्य हैं (धन्य: ते रस: हे रस मय! तुम्हारे रस को धन्य है) गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में -
    सिगरे गुन को रिपु, लोभ भयो; -
    फिर औगुन और भयो, न भयो।
    जिनके मुख सों, चुगली-उगली-
    फिर पाप को बीज, बयो, न बयो।
    जिनकी अपकी रति फैल गई -
    वह जम लोक, गयो न गयो॥
    अर्थात् - मन को शुद्धकर 'रस को प्राप्त करने के प्रयास मेंÓ रत - रहकर - धन्य होना, यही धनतेरस है।
2. चौदस -
    रूप चतुर्दशी, या काली चौदस (नर्क चतुर्दशी) इसके पर्याय हैं।
    ''कालस्य शक्ति: - कालीÓÓ
    काल - अर्थात् समय।
    इस काल ने तो - ''बड़े-बड़े जौम बारे - मोम से, मरोर डारेÓÓ महिषासुर-हिरण्याक्ष।
    शिशुपाल-दुर्योधनादि मात्र पृष्ठïांकित रह गये। वह समय, जिसने हमें साधा कब? कहाँ? घोर अंधकार में - उसे नर्क में - जहाँ प्रकाश का नाम नहीं था, (मातृ गर्भ में) वह गर्भ में आया कहाँ से? पूर्वजों से।
    हम नर्क गति को पुन: प्राप्त न हों, (पुनरपि जनन, पुनरपि मरणं-पुनरपि जननी जठरे शयनं) की स्थिति से रहित हो। इष्टï का ध्यान करते हुए अपने पूर्वजों को नमन करना, तथा निर्दिष्टï मार्ग पर चलना ही इसका प्रमुख हेतु है। इष्टï माने लक्ष्य- इष्टï माने - देवता। उस दिन आटे के 14 दीपक, सन्ध्या समय शिव को अर्पित कर, धरके प्रत्येक-प्रकोष्ठï में, स्थापित कर - छोटी दिवाली मनाते हैं। यह है - दशेन्द्रिय + अंत:करण चतुष्टïय से, हम अपने इष्टï को, गुरु को समर्पित हों। यह तिथि - रावण के साधना प्रारंभ की तिथि है।
                    - घेरंड संहिता से।
3. तीसरा पर्व (अमा) - दर्श
अ, अर्थात् नहीं, मा = प्रकाश ''घनांधकार में दिवस जैसा प्रकाश उत्पन्न करनाÓÓ अर्थात् - स्वयं जलकर कष्टï सहन करते हुए, सभी को प्रमुदित कर - सन्मार्ग पर प्रवृत्त करना। अंधकार = पाप, घर-बाहर कहीं भी न रहने देना, और सभी को चैतन्य की ओर मोडऩा, यही दीपावली है। ''तमसो मा ज्योतिर्गमयÓÓ का लक्ष्य बताती है। नम्रता का संदेश देती है। दीपक रखोगे, तो झुकना पड़ेगा, घड़ा झुकता है तभी, उसमें पानी भरता है, हम झुकते हैं - तभी तो आशीर्वाद मिलता है। वरदान मिलता है और झुकने वाला - कृतकृत्य हो जाता है। ''कर सजदा, तो सर न उठाÓÓ खुदा से मांग, उसका वादा है, वह देगा।
    आशीर्वाद माने लूट नहीं आशीर्वाद - बहुमूल्य है। कीमत चुकाए बिना, न आशीर्वाद मिलता है न वरदान मिलता है न सिद्धि मिलती है, न चमत्कार मिलता है और न मनोकामना पूरी होती है, प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक वस्तु का, मूल्य चुकाना पड़ता है। महापुरुष की सफलता के मूल में - तप की ही प्रमुखता रही है।
    ब्रह्मïा + शंकर द्वारा रावण को वरदान या आशीर्वाद का दिवस (अमा) इसे दर्श भी कहते हैं। अपने तपोबल से तपस्वी रावण ने वरदान मांगा - 'हम काहू के मरहिं न मारे - वानर मनुज जाति, दोई बारेÓ वानर कौन? हनुमान। हनुमान कौन? मेरा शंकर मैं अपने गुरु शंकर के द्वारा ही मारा जाऊँ। यदि मनुष्य मारे तो साधारण पुरुष से नहीं; उस परम पुरुष से, जो मुझसे भी अधिक पुरुषार्थी हो इसे ही मैं अमरत्व मानूंगा - (व्यक्ति पवित्र मन से स्मरण करे - वही समाधि)।
    हे दशानन, राजेश्वर, लंकेश्वर! तुम्हारे विचार धन्य हैं; आप अनेकों विषयों के आचार्य हो। 'आचार्य ही जीवन के मर्म को जानता हैÓ वाणी की पहुँच तो कानों तक सीमित होती है - परन्तु आचरण, प्राणों तक पहुँचता है। तुम्हारे आचरण को तो, तुम्हारा गुरु ही समझ पाया। गुरु या इष्टï के प्रति समर्पित होकर - जीवन को प्रकाशित करना ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या है।
4. चौथा पर्व - अन्नकूट
अपनी प्राप्त विद्या का, साधना का, सत्पात्र को वितरित करना ताकि वह अधिकाधिक जनहित कर सके।
5. पाचवाँ पर्व - परम महोत्सव, अत्यन्त मार्मिक-
'भाई दौज-भाऊ-बीज, अथवा भ्रातृ द्वितीयाÓ
    परस्पर पवित्रता का संदेश या संकेत मस्त होकर ईश चिंतन का दिवस -प्रसन्न रहने के दो उपाय हैं-1. अपनी आवश्यकता कम करें एवं 2. परिस्थितियों से ताल-मेल बैठायें। कारण - विवाद से विषाद पैदा है।
    'मन की तरंग मार दे - हो गया भजन।
     आदत बुरी सुधार ले - हो गया भजन॥Ó
    शूर्पनखा ने रावण को जगाया कहा - तूने प्रेम को, वस विलास कर डाला। अब पतन की कोई सीमा नहीं रही, तुमने इतना विकास कर डाला। मेरी माया ही मेरा जुल्म बन गई। देख-मेरी दुर्दशा को? रावण ने कारण पूछा तो उत्तर देती है कि- दो सुंदर तपस्वियों से मैंने विवाह प्रस्ताव किया और बदले में यह प्रतिफल मिला।
रावण-शादी रस्मों से ज़रूर होती है। मगर हक (अधिकार) से नहीं। तूने हक जमाया होगा। हक से रिश्ता नहीं बनता। निश्चय ही तुमने कोई अभद्र व्यवहार किया होगा। क्या उनके सौन्दर्य को तूने नमन् किया था? किसको - कितना झुककर प्रणाम करे, यह भी एक हुनर है और उसे तुम नहीं जानतीं। उन्होंने नहीं तूने उनकी मुहब्बत पर डाका डालने की कोशिश की यही तेरा अपराध है। स्वप्नों का महल बनाने चली थी।
शूर्पनखा - मैं तेरा भाषण सुनने नहीं - तुझे अपनी दुर्गती बताने, व तेरा शासन बताने आई थी। 'तेरे घर पर आना - मेरा काम है, और मेरी बिगड़ी बनाना तेरा काम। धिक्कार है, तेरे शासन में होने वाले जुल्मों को। देख मेरी विरूपता को, तुझे मेरे एक-एक आँसू का जवाब देना होगा। जान सको तो जानो- मान सको तो मानो।Ó
रावण - जा बहिन जा - तूने मेरे शासन पर दावा किया, अब मैं उसका उल्टा वादा करता हूँ - जुल्म की रात भी कट जायगी, आस के दीप जलाये रक्खो। यदि तू विकृत हो गई है - तो संशोधन भी होगा। वह जागा - और उसी दिन से उसका जीवन बदला। गुप्त रूप से - प्रतिक्षण, प्रतिपल, जो आपके कृत्यों (कर्मों) का चित्र लेता रहे - वह चित्रगुप्त। जो आपका एकाउन्ट रखता है प्रति मिनट का विश्वास रखिये - आपके कर्म चित्र (स्वयमेव) आटोमैटेकली, दत्तकृतानुसारी निहंता के पास पहुँच रहे हैं। यह उस 'एकाउन्टटैंटÓ .... के पूजन का दिवस भी है। एक गुरु ने शिष्य से पूछा - कान और आँख में कितना अंतर है? पहिले ने कहा - चार अंगुल का। दूसरे ने कहा- कानों से सुनी और आँखों से देखी बात ही महत्व की होती है। तीसरे का उत्तर था - आँख, लौकिक देखती है, कान पारलौकिक भी। चौथे ने समाधानात्मक उत्तर दिया - गुरुदेव। कान-आँख दोनों ही आवश्यक इन्द्रियां हैं। अंतरमात्र इतना - कि, कान से पूर्व ही आँख रहस्य जान लेती है। नेत्र, शीघ्र ही वस्तुस्थिति को परख लेते हैं। ''नैन, ऐन कहिदेतÓÓ, नजर चली गई तो नजारे चले जाएंगे॥ यदि परमात्मा को चाहते हो तो, बरवाद होने से, बदनाम होने से, - बलिदान होने तक 'ममत्वÓ - जितना तोड़ सको, तोड़ दो। मोह के तंतुओं से, भगवत योजना नहीं बंधती। अपने इष्टï का स्मरण करे वही समाधि।
    मैं कांप उठता हूँ, यह सोचकर तनहाई में।
    मेरे चेहरे पै - तेरा नाम न पढ़ ले कोई॥
मीरा भी कहती थी -
काली करतूत वाली, काली दुनियाँ में। ताकि,
- काली -काली कोई आँख, मुझे देख पावै ना॥
अर्थात् - उस परम सत्ता के प्रति, अपने को, समर्पित करने तक, हमें - स्वयं को छिपाये रखना पड़ेगा। अन्यथा समाज हैरान करेगा।
    दिल को उस राह पै चलना ही नहीं है,
    जो मुझे, तुझसे जुदा करती है।
    चलना उस राह पै है ..... जो,
    तेरी खुशबू का पता करती है॥
    जिन्दगी मेरी थी, लेकिन,
    अब तो तेरे कहने में रहा करती है।
    दु:ख किया करता है कुछ और बयाँ -
    पर बात कुछ और हुआ करती है।
   
    जमाने में बेबफा, जिन्दा रहेगी।
    मगर, कुत्तों से - शर्मिन्दा रहेगी॥
   
    कुत्ता कातिक मास में, तजत, भूख अरु प्यास।
   तुलसी - कलि के नरनकों, कातिक बारउ मास॥
    विरक्ति - अनुरक्ति, यह सब मन का विषय है। जब तक लौ नहीं लगेगी, तब तक मजा नहीं आएगा।
    - 'लौ, लागी तब जानिये,
    जब आर-पार हुई जाय।Ó
    कहा जाता है - हम दीन हैं। दु:खी हैं। जो, सत्य की शरण में नहीं गया वही दीन है। बाहय या भौतिक पदार्थों के अभाव का जो अनुभव करे, वह दु:खी है।
महर्षि अगस्त के आश्रम का नाम था - वेदपुरी।
भरद्वाज का प्रयाग में - प्रशिक्षण शाला।
विश्वामित्र का - सिद्धाश्रम।
द्रोण का - चन्द्रमौलि।
सांदीपन का - चन्द्रचूड़ (अवंतिका में)।
वसिष्ठï का - कामधुक् ..... (वसिष्ठïाश्रम में)
    साठ हजार विद्यार्थी एक साथ पढ़ते थे। करोड़पति, लेखा-जोखा रखते थे। इन सभी ने अजनाभखण्ड (भारत) की संस्कृति को, विखंडित नहीं होने दिया। जो गुरु के आश्रम में नहीं गया, उसे आश्रम कहाँ? आज इसी कारण उस परंपरा को (एक दिन के लिये ही सही) गुरुपौर्णिमा को गुरु के यहाँ जाकर निभाया जाता है।
    जिस प्रकार शारीरिक दु:खों का नाम - व्याधि और मानसिक दु:खों का नाम - आधि। इन सभी से मुक्त होने का एक ही उपाय है - इष्टï से भ्रष्टï न होना।
अरे! सुख की तलाश में भागे - वह संसारी, पीड़ा में जो जागे - आध्यात्म या जीवन। विचार और कर्म के समन्वय से संस्कार बनते हैं। प्राय: का अर्थ - तप और चित्त का अर्थ है - निश्चय। तप का निश्चय ही प्रायश्चित है, न कि पछतावा। जैसे कि एकांत का अर्थ - 'अकेलाÓ नहीं। उस एक में अपना अंत करना। (आत्मलीन होना) एकांत में ही शांति रस घुलता है। प्रभु का नाम जपना है तो पहिले - वैखरी (बाराखड़ी) से, फिर मन से, और फिर ध्यान से किन्तु यह सब करना होता है जतन से, और जतन बताता है - गुरु। वही इष्टï के पास पहुंचाता है। यदि वह गुरुनिर्दिष्टï मार्ग पर जाता है तो उसका मोक्ष हो जाएगा। निर्वाण हो जाएगा .....। मुख्यत: 'वासना क्षय ही निर्वाण हैÓ संसार में दु:खों के तीन कारण हैं - अज्ञान-अशक्ति और अभाव। शक्ति तंत्र के अनुसार - ह्रïीम् - अज्ञान को, श्रीम् अभाव को, क्लीम् अशक्ति को दूर करते हैं। साधना से सिद्धि मिलती है। साधना के बल पर लंका में स्थित रावण और अमेरिका में बैठा अहिरावण परस्पर भली प्रकार वार्तालाप किया करते थे। उन्हें किसी रेडियो-ट्रान्समीटर, मोबाइल आदि की आवश्यकता नहीं थी। विमान, बिना पेट्रोल के उड़ते थे। ब्रह्मïाण्ड की हलचलों से परिचित होना - यह सब मंत्र, योग शक्ति एवं आध्यात्म विज्ञान से होते थे। यह सब भारतीय विज्ञान था। जिसका आधार था - साधना। प्रत्येक कार्य में त्रास होता ही है। त्रास का अर्थ, कष्टï नहीं होता - चिंता होता है, जैसे -
1. राम त्रसित हैं - अपने वामांग के अभाव से, तो रावण त्रसित हैं उसे प्राप्त करने के भाव से दोनों के हृदय में सीता (सीता = शक्ति:) शक्ति में ही समूचा अस्तित्व सिमटता है।
2. राम का अस्तित्व, सीता; तो-रावण का मातृत्व सीता।
3. राम, भावुक हैं (विह्वïल हैं), तो रावण भावना। ध्यान रखिये - भावुकता, बुजदिली सिखाती है, जबकि भावना, अपने इष्टï के प्रति समर्पण।
4. राम का हेतु-कामना (सीता प्राप्ति) तो-रावण का हेतु - मोक्ष सर्व श्रेयस्करी सीता द्वारा अपना कल्याण करना।
रावण कहते हैं - मैं राम से किसी प्रकार न्यून्  नहीं।
5. सीता यदि राम के वाम भाग में, तो वह मेरे हृदय भाग में। कितनी आस्था है, निष्ठïा है शक्ति के प्रति।
6. राम यदि पत्नी व्रती, तो मैं वैरव्रती। (जप शुरु कर दो - नाम में बड़ी ताकत है।)
    वैरव्रत रहस्य, रावण को अपने गुरु शिव द्वारा मिला था। व्रत का अर्थ उपवास नहीं। विशेष तपस्या है। यदि कुछ भी न कर सको तो वैर करना ही सीख लो। वैरव्रती बन जाओ तो भी कल्याण हो जाएगा। कारण-दु:खों की चोटों से - 'अंतर्चेतना मेंÓ निखार आता है। रावण-वैरव्रती, कंस वैरव्रती।
''आसीन: शयाम:, भुंजान: पर्यटन् महीम् -
चिंतायानो हृषीकेशं, अपश्यत्तन्मयं जगत।ÓÓ
    इसे ही पराभक्ति कहते हैं -    
    पराभक्ति याको कहैं - जित तित श्याम देखात।
    नारायण सो ज्ञान है - पूरन ब्रम्ह लखात॥
    महत्वपूर्ण प्रयोजनों में, अपने को नियुक्त करना ही साधना कहलाती है। साधना, उपासना और आराधना यह एक दूसरे के पूरक हैं। अत: 'दशग्रीवÓ को जब भी आवश्यकता होती थी, कैलाशस्थ मान सरोवर के समीप आकर तपश्चर्या करते और अपने इष्टï को रिझाते। उन्हें ज्ञात था - कि ज्ञान किसी के ताले में बन्द नहीं होता। अहंकार की पथरीली भूमि से - तपस्या का अंकुर फूट नहीं सकता। स्वयं को गुरु के प्रति अर्पित करता तथा अपनी परंपरा का स्मरण कर मूल चेतना का विस्तार करता। तोडऩे वाले पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होते, जोडऩे वाले पर होते हैं। कारण - कि व्यतीत हुआ समय एवं टूटे हुए संबंधों का पुन: वापस आना, लगभग असंभव ही होता है। रावण - राम से कम नहीं, यदि उसके रहस्य को समझ लिया जाये। रावण - निर्वाण यज्ञ का आचार्य है। कहीं भी अमर्यादित नहीं। यदि चाहता तो सीता को अपने प्रासाद के अंत:पुर में भी, पवित्र स्थान पर रख सकता था। किन्तु नहीं। अपने शक्ति की स्थापना, दूरस्थ, प्रमदा-वन - अति रमणीय अशोक वन में की, जाता भी कम था और यदि गया भी तो एकाकी कभी नहीं, कभी मंदोदरी, तो कभी और कोई साथ में ले जाता था। यह भी उसका मात्र दिखावा था। वह मानता व जानता था कि वही वस्तु देर तक साथ रहती है जो दूर है। हाँ , उसने एक बार सीता से अवश्य कहा था - देवी! मात्र तुम्हारे मूल रूप का दर्शन चाहता हूँ।
    जो झुके तेरे आगे, वो सर मांगता हूँ -
    तुझे देखने की नजर मांगता हूँ।
    न घर मांगता हूँ, न ज़र मांगता हूँ।
    हम रावण का पुतला जलाते हैं। रावण प्रसन्न होकर कहता है ओ धर्मांध। तुम किसको जला रहे हो? मेरा तो कभी का मोक्ष हो चुका है। मैं तो राम मय हो चुका हूँ। और यदि तुम राम के प्रति आस्थावान हो तो अभी तक अयोध्या में राम मंदिर भी न बनवा सके। जलाना सहज है उसकी स्मृति में जलना सीखो, जलाना नहीं। 'सौ में अस्सी बेईमान, फिर भी देश महानÓ - तुम्हारे यहाँ। नेताओं के किले बन गये, विधायक मालामाल और जनता बेहाल। आपके यहाँ का नेता कुछ भी कर जाये, मगर मौज से रहता है। अन्न तो क्या, प्रजा पानी को भी तरस रही है। नल से उतना ही पानी आता है जितना दूध में मिलाया जाता है। जो अपराधी, वही - आदर्शों के पाठ पढ़ाता है, मात्र यही तुम्हारा धर्म रह गया है।
(गीता की कसौटी पर यदि रावण खरा उतरे तो मानना)
राम - सत्य है, तो रावण सत्यव्रती।
राम, सत्य से भी परे (त्रिसत्य) तो, रावण भी त्रिकाल, उसे प्राप्त करने को संतृप्त।
राम- यदि सत्य में निहित है, तो रावण - सत्य प्राप्ति में निमग्न। दूसरों की परिस्थिति देखकर अपने को मत तौलो। अपने को मत कोसो।
    ऋतु बसंत याचक हुआ। हरष दिये द्रुम पात।
    तुरतहिं पुनि-नये भये, दियोदूर नहिं जात॥
    धनी वे हैं जो अपनी जेब में हाथ रखते हैं। कुछ देने की इच्छा होगी - जेब में हाथ उसी का होगा - जिसके पास कुछ होगा दाता बनिये, याचक नहीं, क्योंकि जो देता है, वही आकर्षक लगता है। किन्तु यह श्रद्धा, क्षमता तथा औदार्य का विषय है। आज श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। स्मरण रहे श्रद्धा विश्वास को उत्पन्न करती है। विश्वास से अनुभव, अनुभवी - तर्क वितर्क नहीं करता कारण, उसकी तन्मयता बढऩे लगती है। वह खोजता है। भक्ति खोजने से नहीं खो जाने से मिलती है और फिर उसे औदास्य होने लगता है। वह प्रथकत्व एकाकी रहना चाहता है। विवाद नहीं चाहता। किसी का उपदेश भी नहीं चाहता।
    रावण कहता है - मुझे उद्बोधन मत दो जो दु:ख में परेशान हो, सुख में विलासी हो जाये, वही अज्ञानी। मैं उन अज्ञानियों में नहीं हूँ। मेरे द्वीप में (सिंहल द्वीप - लंका में) भी असंख्य मंदिर हैं। साधना स्थल है। (प्रमाण - श्री हनुमंत हैं - मंदिर - मंदिर - प्रतिग्रह बोधा) - कहता है -  ''आई एम बैड मैन, मैड मैन, सैड मैन - डोंट टच मी, लैट मी एलोन, बिकौज गोड इज़ हीयर - देयर एण्ड ऐब्रीव्हेयर।ÓÓ आई नो एब्रीथिंग. बट गोड इज़ टू बी रियलाइज़्ड आन, ब्लाअण्ड फेथ। एब्रीथिंग कैन बी पासीबल - इफ, गोड टच इज़ देयर। प्रभु कृपा हो तो - दैट व्हिच कैननाट बी सैड - ''मस्ट नाट बी सैडÓÓ - जो अकथनीय है - उसे कहना भी नहीं चाहिये। हृदय में रखना चाहिये। 'दिस इज दि व्यूटी आफ डिवाइन लवÓ विशुद्ध प्रेम का यही रहस्य, और यही तकज़ा है। प्रेम में आदान-प्रदान का प्रश्न ही नहीं। वहाँ - आई नहीं, यू नहीं, मात्र लव है। (मैं-तू नहीं) भोगवादी को भय होता है।
    मंदोदरी के समझाने पर कहता है - 'मैं जानता हूँ मिजाज तेरा, इसलिये, हाँ में हाँ मिला देता हूँ।Ó किन्तु मैं दीवाना हूँ अपने दीवानेपन का। भिखारी से भीख नहीं माँगी जाती - शरीर संयम से, व मन स्वाध्याय से, क्षमतावान बनता है तथा प्राणबल, तपोबल से मिलता है।
    जो समुद्र से भी भीख माँग रहा हो, स्वयं तृष्णा का भिखारी हो, उससे मेरी साम्यता करती है। ''न भूतपूर्व व कदापि दृष्टï:, न श्रयते हेम मर्ई कुरंग: तथापि तृष्णा, रघुनंदस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि:। राम, आबद्ध है - मैं समृद्ध हूँ। सुग्रीव- विभीषणादि भिखारियों के पास रहते - रहते - 'राम कोÓ भीख माँगने की आदत पड़ गई है। उसने अपना स्वाभिमान खो दिया है। स्वाभिमान के साथ .... जियो, व जीने दो ...। इस युग में - सुभाषचन्द्र बोस ने भी यह कहा है -    
    एक दिन भी जी - मगर तू ताज बनकर जी।
    मत पुजारी बन- स्वयं भगवान बनकर जी॥
    हर प्राणी अपने धर्म का विधान, स्वयं बनाता है। धर्म व्यक्तिगत है। आत्मा - जो आवाज़ दे - वही धर्म। अरे! प्रथम धर्म द्वितीया श्रमी का मैं जानता हूँ  मंदोदरी।
    वह तो ग्रहस्थ धर्म से भी रहत है। सहधर्मिणी के प्रति अपने कर्तव्य को भी नहीं निभा सका है। मैं योग-भोग सूत्राचार्य भी हूँ जिसमें ऋषियों के शोध, उनके अनुभव अंकित हैं। जिसे अर्धांग के प्रति स्नेह या अपनत्व नहीं उसके सुख दु:ख का भागी नहीं, कटु व्यवहारी, अप्रिय वाणी का प्रयोगी, कुटिलता का कुत्सित व्यवहारी पति, मन, वचन, कर्म से, अशांत रहेगा। उसके यहाँ का वातावरण - सुख शांति से रहित हो जाता है। वह स्वयं व्याधिग्रस्त-कुष्टïादि चर्म रोगी इस जन्म में तो रहेगा ही, अगले जन्म में - वृक्ष बनता है एवं नाना प्रकार के अनेकों कष्टïों को अनेकों वर्ष पर्यन्त भोगता है। उसे समाज - हेय दृष्टिï से देखता है।
स्त्रीणां निंदा प्रहांर च, कौटिल्यं चा प्रियं वच:।
आत्मन:क्षेम मन्विच्छन-सद्भर्ता विवर्जयेत्॥
- मार्कण्डेय पुराण - मीमांस प्रकरण श्लोक सं. - 57 से 59।
    एतेनां, वृषलानां, रजस्तम: प्रकृतीनां,
    धनमदरज उत्सिक्तमनसाम्।
    हिंसा विहारिणां, भतृणां गति: -
    कुष्टïो वा, स्थाविरोऽथवा॥
- आश्वलायन सूत्र, कर्मगति पर्व ऋचा - 83-93।
ममतनया (मंदोदरी) तू नहीं जानती। मैं अनेक शास्त्र सम्पन्न हूँ। फिर भी, अपने एहसासों में - कुछ कमी रखता हूँ।
$गम का जिसको नाज़ हो- ऐसी खुशी रखता हूँ मैं।
कुछ वजह होगी कि, उनसे-दुश्मनी रखता हूँ मैं॥
    000
दिल के झगड़ेमजबूत दिल से होते हैं,
दिल से दिल मिले - तो दिल की बात हो गई।
बिन बाँधे ही बँध जाती है - दो श्वासों की डोरी।।
प्रिये! मंदोदरी,
    जहाँ दो दिलों की - मुलाकात होगी,
    जुबाँ चुप रहेगी - मगर बात होगी।
    गुरु, साधु, $फकीर-वेदज्ञ, ब्राह्मïण, समस्त - कलाकार- लेखक-पत्रकार, कवि इसलिये शुभ माने जाते हैं - कि इनकी चिंतनधारा सतत चलती रहती है। ये तापस होते हैं। कामादि रहित निर्विरोधी भी। अधिकांश अक्रोधी भी।
    ध्यान रखिये - क्रोध, मूर्खता से आरंभ होता है, और पश्चाताप पर समाप्त हो जाता है।
    रावण - पूछता है, हे गुरुदेव! महादेवाधिदेव!! आप सदैव, जप में निरत रहते हैं। आप पंचमुख हैं। मुझे क्या आदेश है। मैं अपनी संकीर्ण अवस्था को चोडऩा चाहता हूँ। ब्रह्मï साक्षात्कार द्वारा - यह बिन्दु - सिंधु में समाविष्टï होना चाहता है। मैं चाहता हूँ साधना - रात्रि में करूँ, दिन में नहीं। (प्रकाश डिस्टर्व करता है) बाधा डालता है। अंधकार नहीं। घोर अंधकार में ही मार्ग मिलता है। ''प्रकाश, यदि परमात्मा है - तो अंधकार भी परमात्मा है।ÓÓ
    शारीरिक विश्राम में भी, प्रकाश बाधक है। (प्रकाश में बात भी खुल जाती है) अंधेरे में नहीं। बिना भक्ति के कौन सुख? मुझे विशुद्ध भक्ति दीजिये। अविरल, अखण्ड, निरंतर, शाश्वत हो।
    गुरु की आज्ञा उसे मिली - ''और वह अपनी शिखर यात्रा पर चल पड़ा -ÓÓ जप व तप से मानव प्रज्ञावान बनता है और पाप प्रक्षालन भी। रावण ने तपश्चर्या के लिये - मान सरोवर के पास - 'राक्षस तालÓ का चयन किया। 'तालÓ ताल माने - रस। बिना मेल के अपूर्ण, अधूरा, सीधा अर्थ जो मिला दे वही ताल। अन्यथा - बेताल या बेसुर।
    'राक्षसÓ : शब्दार्थ - रा अर्थात् राम , स - माने, सीता, क्ष का अर्थ किरण (एक्सरे का जो काम करे)
अर्थात् - जो शक्ति + ब्रह्मï से जुड़ा दे अथवा अपने इष्टï से सम्बन्ध करा दे। वह ताल 'राक्षस तालÓ जो सब में त्याग-प्रेम भर दे। ताल पर ही राग चलता है (माल कंस, आसावरी, भैरवी, ठुमरी आदि) एक ताल - त्रिताल आदि पर गतिशील होते हैं। ताल और राग मिला कि - अनुराग स्वयं ही आ जाता है। नाम जपना है तो अनुराग से जपो। जहाँ कोई विक्षेर न हो, व्यवधान न हो - उसे ताल कहते हैं। रावण कहता है कि मेरा उस राम से, अभिराम से, शीघ्र तालमेल हो, किन्तु-विरोध के साथ। शीघ्र हो - ताकि सीता रूपी अस्तित्व को प्राप्त कर अपने निर्वाण का हेतु बना सकूँ और मैं यह भी जानता हूँ - मेरे हेतु के लिये - राम को भी सेतु बनाना पड़ेगा - मेरा गुरु ही मुझे कृतार्थ करेगा और रचना करने लगता है
- तालबद्ध स्तोत्र की - 'शिव ताण्डवÓ की-
    जटा कटा हसभ्रम - भ्रमंनिलिप निर्झरी।       
 विलोल वीचि बल्लरी, विराजमान मूर्धनि।
    धगद-धगद, धगज्वल ललाट पट्टï पाव के,   
 किशोर चन्द्र शेखरे-रति प्रतिक्षण मम।
    स्मरांतकं, पुरांतकं, भवांतकं, मखांतकं -        
राजाच्छिदांधकांतकं, तमंतकांतकं भजे।
रिझा रहा है - गुरु को, खुशामद कर रहा है (नृत्यादि से)।
    दशग्रीव के, साधना की अविराम गति में - लय का संगीत है। गुरु को माध्यम बनाकर - तन्मय होकर तालबद्ध नृत्य भी, अहर्नििशि 40 दिन तक। जिसे भक्ति मिली, उसे सब कुछ मिला। जिसे देह का भी भान नहीं, जिसके नृत्य को देखकर प्रकृति स्तब्ध, समस्त - देव मण्डल चकित। लंकेश्वर - राजेश्वर के साधना करते-करते वाद्यतंतु टूटने पर - अपनी आंत निकाल कर जोड़ देता व पुन: गीत बनाकर तन्मयता से -षड्ज, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम आदि स्वरों का स्वयं निर्माण कर - राग का अलाप करता। शिव को प्रसन्न करता। शिव स्वयं नटराज हैं। रावण के स्वर में विलक्षता थी। वह संगीत-पारंगत, निष्णात विद्वान, सस्वर वेदपाठी, अनन्य भक्त, मंदोदरी भी - संगीतज्ञा - विदुषी थी।
    रावण के संगीत सभा में - अनेक, गायनाचार्य, उर्वशी, हेमा, रम्भा, मेनका, मिश्रकेशी और तिलोत्तमादि उच्चकोटि की प्रवीण नृत्यांगनायें विद्यमान थीं। कभी-कभी गुरु को रिझाने में इनका सहयोग भी लेता था। 'रावणेयम्Ó नामक ग्रंथ में रावण के संगीत दक्षता की पुष्टिï है। वह कहता है -
'नेस्ती, हस्ती है यारो, और हस्ती कुछ नहीं।
बेखुदी, मस्ती है यारो, और मस्ती कुछ नहीं।Ó

धन्य है विश्रवा का बेटा - दशग्रीव :
    'राम यदि रघुवंशी - तो रावण - ऋषिवंशीÓ
    सम्बन्ध, तो तरंगों का है - तरंगों में टकराव भी होता है। समुद्र पांच मील गहरा है। नीचे उसका पता नहीं। गंभीर है, धीर है महान भी, मद, मदन, मत्सर को मारे वह महान, जिसे कोई परिस्थिति कायर न बना सके, जो किसी से न डरे - कोई उससे भी न डरे, वह महान। मद् होता है पद से, इस श्रेणी से रहित - दो ही विभूतियाँ परिलक्षित हैं (भरत+ पवनात्मज) जिन्हें - मद स्पर्श ही नहीं कर पाया। गुरु-शिष्य सम्बन्ध पवित्र व प्रगाढ़ होता है, प्रगाढ़ इतना हो कि पति-पत्नी भी गुरु - शिष्य बन जायें। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी भामिनी को पढ़ाया, साक्षर किया, आध्यात्म की ओर मोड़ा और अंत में गुरु बने। यही स्थिति - गोपाल कृष्ण गोखले, राना डे, तिलक की भी रही।
    जीवन में कर्म करना जितना आवश्यक है, उससे निवृत्त होना भी उतना ही आवश्यक है। 'यही निवृत्ति मार्ग हैÓ जिसका दशग्रीव ने पूर्णतया पालन किया। ऐसे महान अवतारी के प्रति नमन् करने में ही हमारा श्रेय है। इसी में - भारतीय संस्कृति की श्लाघा है।
अरे! शिव तो, शिवा को, सतत उपदेशित करते रहते हैं।
    उमा कहहुँ निज अनुभव अपना।
    सत हरि भजन-जगत सब सपना॥
    गुरु - शिष्य का मूल है और शिष्य गुरु का फूल - मूल कभी फूल की खुशबू नहीं चाहता। मूल चाहता है श्रद्धा। कोई शिष्य - श्रद्धा के जल से सींच दे। जिस पर कि आज के युग में तुषार पड़ गया है। पुराने वट वृक्ष को किसी के जल की जरूरत नहीं, फिर भी सींचा जाता है, पूजा जाता है ज्येष्ठï मास में, कारण वह वृक्ष ज्येष्ठï है। ईश्वर रूप है।
    गुरु चाहता है - यह मेरा पुष्प है (शिष्य)। महादेव चरणों में अर्पित हो। पौधे या वृक्ष का तना सेतु है, यही गुरु कुल है। जो कि फूल और मूल को जोड़ देता है। जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है। फूल कैसा भी हो - गुरु का ही है। मेरा शिष्य - 'फले-फूलेÓ यही गुरु चाहता है। इस सम्बन्ध में शूल नहीं। मानाकि - किन्हीं पुष्पों में काँटे होते हैं, किसी बालक को काँटा लगने पर, उसकी माता, काँटा निकाल कर उसके हथेली पर रख देती है कारण - मातृत्व है - ममत्व है।
    किन्तु - गुरु , निकाल कर हाथ पर नहीं रखता, चबा जाता है। अत्यद्भुत सम्बन्ध है - 'त्रय: शूल निर्मूलनंÓ दुख रहित कर देता है। इस मोहरात्रि दीपावली पर्व पर हम सभी - श्रद्धा विश्वास रूपी, शूलपाणी-पुरारी का, दशग्रीव की भाँति भावगम्य चिंतन करें, प्रेम पूर्वक नमन् करें। दिव्य भाव से प्रकाश पर्व मनाते हुए - परं ज्योति से ज्योतिर्मय बने, अपनी कमियों को पूर्ण करें और चेतना का प्रखर यात्री बनकर - अपने जन्म को सफल बनावें।

आचार्य पंडित श्रीधरराव अग्निहोत्री
राज्याचार्य एवं राजज्योतिषी
होलीपुरा, दतिया (म.प्र.) पिन - 475661

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