बुधवार, 9 मई 2012

हिन्दी की वैज्ञानिकता




- राजकुमार सोनी


हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है। वैज्ञानिक होने के कारण ही यह बाचन एवं लेखन की दृष्टिï से एक क्रमबद्ध भाषा भी है। यह जिस क्रम से बोली जाती है उसी क्रम से लिखी  भी जाती है तथा उसका अर्थ या ध्वन्यार्थ भी क्रमबद्ध ही होता है। अँग्रेजी में कर्ता + क्रिया + कर्म का क्रम रहता है जबकि हिन्दी में कर्ता + कर्म + क्रिया का क्रम रहता है जो कि बोलने के क्रम के अनुरूप ही होता है। अँग्रेजी और हिन्दी में शब्द निर्माण की प्रक्रिया में भी उल्लेखनीय अंतर है। यद्यपि 'पार्टस ऑफ स्पीचÓ के पारस्परिक परिवर्तन से संज्ञा क्रिया और विशेषण तथा क्रिया विशेषण बनाने की अँग्रेजी-भाषा पद्धति भी है जो कि हिन्दी व्याकरण में भी है किन्तु एक या दो अक्षर की धातु से क्रियापद बनाने तथा उनसे कर्ता,कर्म,विशेषण बनाने तथा संदर्भ भेद से एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न शाब्दिक अर्थ निकालने की वैज्ञानिक पद्धति हिन्दी में विशेष रूप से विद्यमान है। यानी कि हिन्दी में प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति (उत्पत्ति) की तार्किकता है। उदाहरण के लिये 'वृÓ धातु का अर्थ है विस्तार। अत: 'वृÓ को आधार बनाकर वृद्धि, वृद्ध , वर्धन, वृह्मï-वृह्मï मुहूर्त आदि शब्द बनते हैं जो किसी वस्तु , व्यक्ति आदि के मूल रूप या बीजरूप का विस्तार होने का ही अर्थ प्रदान करते हैं। इसी प्रकार जल का अर्थ है वह तत्त्व जिससे सृष्टिï का जन्म होता है तथा जिसमें सृष्टिï लीन भी हो जाती है। 'नयÓ का अर्थ है 'ले जानाÓ। अतएव नय से नयन, नायक, नेता, नीति आदि रूप बनते हैं।
    हिन्दी में शब्द के पूर्व या बाद में जोड़े जाने वाले उपसर्गों (अव्यय व प्रत्यय) की भी शब्द निर्माण एवं अर्थ विस्तार में महती भूमिका है। उदाहरण के लिये 'कारÓ शब्द के पूर्व में उप (उपकार) प्र (प्रकार) वि (विकार) प्रति (प्रतिकार) तथा अधि (अधिकार) आदि उपसर्ग जोड़कर तथा अक् (कारक) इत (कारित) प्रत्यय जोड़कर कार के अनेक रूप व अर्थ बनते हैं। हिन्दी की शब्द रचना में संधि एवं संधि विग्रह की तथा समास व्यवस्था की भी एक सुनिश्चत व्यवस्था है। संधि एवं समास के संयोग से शब्द व वाक्य में शब्द के रूप माधुर्य के साथ ही अर्थ लाघव अर्थात् अर्थ की व्यञ्जना की निष्पत्ति भी होती है जो रचयिता के साथ ही महानुभाव पाठक को बहुविध रस आनंद प्रदान करती है। एक कहावत भी है:-       
            'कवि: करोति काव्यानि रसं जानाति पंडित:Ó
    अर्थात् रचयिता शब्द या वाक्य की युक्तियुक्त रचना करता है लेकिन रसज्ञ श्रोता या पाठक उस एक शब्द से विभिन्न अर्थ व्यञ्जनाएं प्राप्त करता हुआ शब्दानंद या काव्यानंद प्राप्त करता है।
    हिन्दी में एक शब्द से अर्थ निकालने की तीन शब्द शक्तियां-अभिधा, लक्षणा एवं व्यञ्जना प्रतिपादित हैं जो शब्द के अर्थ में विस्तार, मर्म एवं रस भरती हैं।
    हिन्दी की वर्णमाला के उच्चारण मनुष्य की शरीर रचना पर आधारित हैं। अर्थात् शब्द के उच्चारण में ओठ, जिह्वा, दाँत, तालू, मूर्धा पर ध्वनि का भिन्न-भिन्न अवस्था में स्पर्श होता है। उच्चारण से प्राणवायु का संचार भी प्रभावित होता है। इतना ही नहीं वक्ता व श्रोता का संकल्प अर्थात् विचार शक्ति भी उच्चारण की गति व परिणाम को प्रभावित करती है। शरीर के अवयव, प्राणवायु एवं संकल्प तीनों के मेल से शब्द में जो समेकित शक्ति निष्पादित होती है वह ही मंत्र शक्ति को निष्पन्न करती है। हिन्दी के स्वर और व्यञ्जन भी अँग्रेजी की तुलना में बहुत व्यापक हैं। हिन्दी में बारह स्वर हैं जो लृ, लृ, ऋ, ऋ सहित सोलह होते हैं। राजभाषा हिन्दी के लिये संयोजित वर्णमाला में 'ऋÓ सहित तेरह स्वर शामिल किये गये हैं। इनके अतिरिक्त 'कÓ से लेकर 'ज्ञÓ तक 36 व्यञ्जन हैं। इस प्रकार हिन्दी वर्णमाला में मूलत: 16+36=52 स्वर-व्यञ्जनों का व्यापक एवं तर्क संगत अक्षर विधान है।
    कुल मिलाकर हिन्दी शब्द व अर्थ दोनों ही दृष्टिïयों से एक वैज्ञानिक भाषा है जिसका अपना विस्तार-गौरव साधारण एवं विशिष्टï दोनों प्रकार के पाठक व श्रोताओं को व्यक्ति की अपनी शक्ति के अनुरूप रस प्रदान करता है। राजभाषा हिन्दी के विकास में उक्त रचना-गौरव के प्रति सजग रहकर लाभान्वित होना आवश्यक एवं उपयोगी होगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. पंडित जी आपने १२ स्वर के साथ जो अन्य चार स्वर जोड़े हैं वे स्पष्ट नहीं हैं। आपकी पोस्ट में लृ,लृ ऋ और ऋ को जोड़ने को बताया गया है जो कि वास्तव में दो ही हैं चार हीं। अतः स्वरों की संख्या मात्र १४ हो पा रही है। कृपया स्पष्ट रूप से समझायें।

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  2. Pandit Raj
    जीवन की अनसुलझी समस्याओं के निदान का सशक्त माध्यम


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    बुधवार, 9 मई 2012
    हिन्दी की वैज्ञानिकता



    - राजकुमार सोनी

    हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है। वैज्ञानिक होने के कारण ही यह बाचन एवं लेखन की दृष्टिï से एक क्रमबद्ध भाषा भी है। यह जिस क्रम से बोली जाती है उसी क्रम से लिखी भी जाती है तथा उसका अर्थ या ध्वन्यार्थ भी क्रमबद्ध ही होता है। अँग्रेजी में कर्ता + क्रिया + कर्म का क्रम रहता है जबकि हिन्दी में कर्ता + कर्म + क्रिया का क्रम रहता है जो कि बोलने के क्रम के अनुरूप ही होता है। अँग्रेजी और हिन्दी में शब्द निर्माण की प्रक्रिया में भी उल्लेखनीय अंतर है। यद्यपि 'पार्टस ऑफ स्पीचÓ के पारस्परिक परिवर्तन से संज्ञा क्रिया और विशेषण तथा क्रिया विशेषण बनाने की अँग्रेजी-भाषा पद्धति भी है जो कि हिन्दी व्याकरण में भी है किन्तु एक या दो अक्षर की धातु से क्रियापद बनाने तथा उनसे कर्ता,कर्म,विशेषण बनाने तथा संदर्भ भेद से एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न शाब्दिक अर्थ निकालने की वैज्ञानिक पद्धति हिन्दी में विशेष रूप से विद्यमान है। यानी कि हिन्दी में प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति (उत्पत्ति) की तार्किकता है। उदाहरण के लिये 'वृÓ धातु का अर्थ है विस्तार। अत: 'वृÓ को आधार बनाकर वृद्धि, वृद्ध , वर्धन, वृह्मï-वृह्मï मुहूर्त आदि शब्द बनते हैं जो किसी वस्तु , व्यक्ति आदि के मूल रूप या बीजरूप का विस्तार होने का ही अर्थ प्रदान करते हैं। इसी प्रकार जल का अर्थ है वह तत्त्व जिससे सृष्टिï का जन्म होता है तथा जिसमें सृष्टिï लीन भी हो जाती है। 'नयÓ का अर्थ है 'ले जानाÓ। अतएव नय से नयन, नायक, नेता, नीति आदि रूप बनते हैं।
    हिन्दी में शब्द के पूर्व या बाद में जोड़े जाने वाले उपसर्गों (अव्यय व प्रत्यय) की भी शब्द निर्माण एवं अर्थ विस्तार में महती भूमिका है। उदाहरण के लिये 'कारÓ शब्द के पूर्व में उप (उपकार) प्र (प्रकार) वि (विकार) प्रति (प्रतिकार) तथा अधि (अधिकार) आदि उपसर्ग जोड़कर तथा अक् (कारक) इत (कारित) प्रत्यय जोड़कर कार के अनेक रूप व अर्थ बनते हैं। हिन्दी की शब्द रचना में संधि एवं संधि विग्रह की तथा समास व्यवस्था की भी एक सुनिश्चत व्यवस्था है। संधि एवं समास के संयोग से शब्द व वाक्य में शब्द के रूप माधुर्य के साथ ही अर्थ लाघव अर्थात् अर्थ की व्यञ्जना की निष्पत्ति भी होती है जो रचयिता के साथ ही महानुभाव पाठक को बहुविध रस आनंद प्रदान करती है। एक कहावत भी है:-
    'कवि: करोति काव्यानि रसं जानाति पंडित:Ó
    अर्थात् रचयिता शब्द या वाक्य की युक्तियुक्त रचना करता है लेकिन रसज्ञ श्रोता या पाठक उस एक शब्द से विभिन्न अर्थ व्यञ्जनाएं प्राप्त करता हुआ शब्दानंद या काव्यानंद प्राप्त करता है।
    हिन्दी में एक शब्द से अर्थ निकालने की तीन शब्द शक्तियां-अभिधा, लक्षणा एवं व्यञ्जना प्रतिपादित हैं जो शब्द के अर्थ में विस्तार, मर्म एवं रस भरती हैं।
    हिन्दी की वर्णमाला के उच्चारण मनुष्य की शरीर रचना पर आधारित हैं। अर्थात् शब्द के उच्चारण में ओठ, जिह्वा, दाँत, तालू, मूर्धा पर ध्वनि का भिन्न-भिन्न अवस्था में स्पर्श होता है। उच्चारण से प्राणवायु का संचार भी प्रभावित होता है। इतना ही नहीं वक्ता व श्रोता का संकल्प अर्थात् विचार शक्ति भी उच्चारण की गति व परिणाम को प्रभावित करती है। शरीर के अवयव, प्राणवायु एवं संकल्प तीनों के मेल से शब्द में जो समेकित शक्ति निष्पादित होती है वह ही मंत्र शक्ति को निष्पन्न करती है। हिन्दी के स्वर और व्यञ्जन भी अँग्रेजी की तुलना में बहुत व्यापक हैं। हिन्दी में बारह स्वर हैं जो लृ, लृ, ऋ, ऋ सहित सोलह होते हैं। राजभाषा हिन्दी के लिये संयोजित वर्णमाला में 'ऋÓ सहित तेरह स्वर शामिल किये गये हैं। इनके अतिरिक्त 'कÓ से लेकर 'ज्ञÓ तक 36 व्यञ्जन हैं। इस प्रकार हिन्दी वर्णमाला में मूलत: 16+36=52 स्वर-व्यञ्जनों का व्यापक एवं तर्क संगत अक्षर विधान है।
    कुल मिलाकर हिन्दी शब्द व अर्थ दोनों ही दृष्टिïयों से एक वैज्ञानिक भाषा है जिसका अपना विस्तार-गौरव साधारण एवं विशिष्टï दोनों प्रकार के पाठक व श्रोताओं को व्यक्ति की अपनी शक्ति के अनुरूप रस प्रदान करता है। राजभाषा हिन्दी के विकास में उक्त रचना-गौरव के प्रति सजग रहकर लाभान्वित होना आवश्यक एवं उपयोगी होगा।
    panditraj पर 1:36 am
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    1 टिप्पणी:

    अजय भारती(गोस्वामी)14 जनवरी 2021 को 7:51 pm
    पंडित जी आपने १२ स्वर के साथ जो अन्य चार स्वर जोड़े हैं वे स्पष्ट नहीं हैं। आपकी पोस्ट में लृ,लृ,ऋ और ऋ को जोड़ने को बताया गया है जो कि वास्तव में दो ही हैं चार नहीं। अतः स्वरों की संख्या मात्र १४ हो पा रही है १६ नहीं। कृपया स्पष्ट रूप से समझायें।

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