रविवार, 13 मई 2012

नारी उत्पीडऩ समस्या व समाधान

- सुशीला मिश्रा
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता:।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो: नम:॥

    भारत वर्ष में नारी की शक्ति रूप में पूजा होती है इसलिये यहाँ माँ सम्मानित और श्रद्धेय मानी गई है। सृजन से लेकर पालन कत्री के रूप में आदर्शों को संस्कार देकर वह पूज्य बन गई है परिवर्तन के साथ-साथ समाज के अनेक रूप बदलते गये प्राचीन काल में वैदिक मंत्रों से लेकर यज्ञों में सहयोग देती रही है।
    मुगल काल में पर्दाप्रथा और अशिक्षा ने उसको कुंठित कर दिया पर अंग्रेजी शिक्षा ने वर्तमान समय में उसमें आत्मविश्वास जगाया है वह समाज परिवार और राष्टï्र के प्रगति में अपना योगदान देने का प्रयास करने लगी है। अब अर्थयुग में अपने अधिकारों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिये संघर्षों से उलझती हुई मार्ग बना रही है। बच्चों के भविष्य के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी आवश्यकता है बिना धनोपार्जन के स्वास्थ्य जीवन समृद्ध परिवार जिसमें डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर आदि सहयोग देकर उसे सुधरने का अवसर दे रहे हैं।
    अनेक पर्तों में जीने वाली नारी उत्पीडऩ का शिकार भी बन रही है -
परिचय इतना/ इतिहास यही/ उमड़ी कलथी
मिट आज चली  - महादेवी वर्मा।
समाज स्वयं नहीं समझ पा रहा है कि वह नारी को किस रूप में देखना चाहता है। आदर्शमाता, पत्नी, बहन या मनोरंजन का साधन, वृद्धावस्था में उपेक्षित माता-पिता कभी अतीत, कभी वर्तमान को जोड़कर आँसू बहाते हैं। कुछ अच्छी डिग्रियां लेकर भी घर के बन्धन में सिसकती रहती हैं, बच्चे पैदा करना और रोटी बनाने में उनका जीवन सिमट गया है। शिक्षा का उत्साह दमन चक्रों में फंस गया है।
    नौकरी करके महिलायें धनोपार्जन से परिवार की सहायता करना चाहती हैं परन्तु कभी मार-पीट कर उन्हें बन्द कर दिया जाता है कभी दहेज के कारण जला दी जाती है, पुलिस रुपया लेकर आत्महत्या का केस बना देता है पर कोई नहीं पूछता आत्महत्या का कारण क्या है ? दण्ड से मुक्त व्यक्ति अपने को निर्दोष घोषित करता है।
    जो घर के बाहर निकलती हैं उन्हें बदचलन, चरित्रहीन कहकर लोग अपने को संतुष्टï करते हैं। विधवाओं की दशा और भी दयनीय है घर के भीतर उनका उत्पीडऩ और भी संघर्षशील है। आदर्शों की बात करने वाले उसे मनोरंजन का साधन बना देते हैं यह वैश्या बनाकर उसको बेचते और खरीदते हैं। दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी भयानक है। गरीबी और अशिक्षा के कारण वह नगरों और देहातों में काम करने के कारण पूंजीपतियों और व्यापारियों के द्वारा सतायी जाती हैं उनको कम सुविधायें प्राप्त होती हैं और आवाज उठाने पर कठोर दण्ड के साथ शारीरिक उत्पीडऩ भी सहना पड़ता है। शिक्षा बहुत मंहगी हो गई है अब ये डोनेशन नोमनेशन और प्रमोशन के घेरे में फंस गई हैं। विद्यालय दुकान बन गये हैं जहां शक्तिशाली और रईस घरों के बच्चे सुख भोगते हैं और रैगिंग आदि से पथभ्रष्टï हो जाते हैं, यह कैसा भविष्य बनाये गये ईश्वर ही जानें। गरीब बच्चों के लिये शिक्षा साक्षतर पर अधिक बल दे रही है। स्कूलों की हालत जर्जर है वातावरण प्रदूषित है पर अध्यापक, अध्यापिकाओं का वेतनमुक्त हाथ से सरकार देकर उनसे कर्तव्य कराने में असफल है। बी-एड करके नौकरी को लड़के-लड़कियां भटक रहे हैं। प्राइवेट स्कूल में चार-पाँच सौ की नौकरी करके कभी शिक्षा, कभी अपनी डिग्रियों को देखते है, यह कैसा मजाक उनके साथ हुआ है। 'जीवन में छात्र चौदह वर्ष न्यौछावर करके भटक रहा है न रोटी का पता है न देहरी का पता है। कहां वह सहारा पायेगा क्योंकि वह शिक्षाविद् है वर्तमान शिक्षा की उपज है।Ó वर्तमान समय में हमें बुनियादी चरित्र को जिसमें शिक्षा स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर मुख्य ध्यान देना होगा समाज के सुधार के लिये चरित्र-निर्माण को शिक्षा के साथ ही जोडऩा पड़ेगा तभी यह नारी और बाल उत्पीडऩ से मुक्ति पा सकेंगे। क्योंकि गरीब बच्चे पांच साल की उम्र से कमाऊ पुत्र बन जाते हैं उनको शिक्षा के लिये समय नहीं है और माता-पिता को इसका ज्ञान नहीं है। राष्टï्रीय महिला संस्थान इन्हीं उद्देश्यों को लेकर सन् 1975 से लेकर आज कर संघर्षशील है। अध्यक्ष स्व. श्रीमती प्रमिला श्रीवास्तव ने नारी जागृति में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में नई ज्योति जगाई थी। उनके पुत्र श्री आदर्श कुमार उसी मशाल को लेकर महिलाओं में संगठन और कर्तव्य निष्ठïा से सहयोग प्रदान कर रहे हैं। हम महिलायें और हमारे बच्चे इस दिशा में उनके आभारी हैं।

सम्पर्क सूत्र
प्रांतीय उपाध्यक्ष- राष्टरीय महिला संस्थानसिविल लाइंस,
उरई - 285001 जिला जालौन (उ.प्र.)
फोन : 05162 - 252371


   
   

   




जीवन साथी के आने से क्या जीवन सुखमयी गुजरेगा



- पंडित राज (एमए)

    हस्तरेखा एक गहन अध्ययन का विषयरहा है हमारे भारत वर्ष में अनेकविद्वानों ने हथेलीपर उभरती आकृतियों के माध्यम सेअनेक भविष्यवाणियां की, जो कि वास्तव मेंअटल सत्य की भांति घटित हुईं। हस्त विज्ञान के महान ज्ञाता कीरो जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वास्तव में मानव के हाथों में अंकित चिन्हों सेउसके आने वाले समयका सही मूल्यांकन किया सकता है।
    विवाह रेखा (Marrige Line) या फिर लगाव रेखा (AffectiomLine) के संबंध में विचार करते समय यह देखनाभी अतिआवश्यकहै कि हाथ किस ग्रह सेप्रभावित है। व अन्य चिन्हों और संकेतों को भी अपनी विचार परिधि में लाना जरूरी है। केवल लम्बी सुन्दर रेखा ही विवाह संबंध या साथी दर्शातीहै, छोटी रेखायें विपरीतसंबंध प्रेम व आकर्षण विवाह करनेकी इच्छा का स्पष्टïी करण करती है।
    बुध क्षेत्रसे यह स्पष्टï अनुमान लगाया जा सकता है है कि विवाह संबंध किस आयु मेंहोगा। विवाह रेखा कनिष्ठïा उंगली के मूल से हृदय के ऊपर की आड़ी रेखाओं को कहा जाता है। यह रेखा हृदय रेखा के नजदीक हो तो यह आयु 15 से 19 व मध्य में हो तो 21से 28 वर्षतृतीयचरण पर हो तो 28 से 35 वर्ष की अवस्था में विवाह या जीवन साथी जिन्दगी में आएगा। सही तौर पर हृदय से कनिष्ठïा के मूल तक 60 वर्ष मान लें व बीच 30 वर्ष उसी के माध्यम से आयु की गणना करें।
    जिस जातक के हाथ में सूर्य पर्वत अधिक प्रबल हो वह जातक युवास्था में कदम रखते ही विवाह कर लेता है। ऐसा व्यक्तिजीवन साथी सुन्दर आकर्षकव तेजस्वी पसंद करता है इसके विपरीत  िमलने पर वह सुखी नहीं रह पाता है। गुरुपर्व अधिक प्रबल होने पर जातक विवाह को अधिक महत्व देता है। ऐसे जातक के हाथ में हृदय रेखा के समीप ही विवाह रेखा अंकित होगी व ऐसे जातक का विवाह छोटी आयु में हो जाएगा। शनि क्षेत्र प्रबल होने पर जातक विवाह को पसंद नहीं करता है धनवान होगा तो उसके दुर्गुण छिपे होंगे वह विवाह से पहले ही कई स्त्रियों से शारीरिक संबंध होंगे ऐसा व्यक्ति निश्चित तौर पर जीवन साथी का चुनाव ठीक तरह नहीं कर पाता है। हाथ में प्रथम लगाव रेखा पत्नी व मध्य आयु में पहुंचते-पहुंचते गहरी हो जाएंगी। शनि पर्व के साथ शुक्र क्षेत्र भी प्रबल हो तो ऐसा जातक दुष्कर्मी व भोग विलासी में लिप्त रहता है।
    बुध पर्वत पर स्पष्टï विवाह रेखा अंकित हो और साथ ही सूर्य रेखा सुन्दरता से गहरी सीधी अंकित हो व विवाह रेखा से एक रेखा निकल कर सूर्य पर्वत पर पहुंच जाये व साथ ही गुरु पर्वत पर क्रास हो तो उस व्यक्ति का विवाह काफी धनवान व प्रतिष्ठिïत जगह पर होगा।
    विवाह रेखा सुन्दरता से अंकित हो और भाग्य रेखा में चन्द्र पर्वत से उभरती हुई एक रेखा (प्रभाव रेखा) शनि रेखा में आकर मिल जाये व साथ ही सूर्य रेखा सीधी व टूटी या छिन्न-भिन्न न हो तो ऐसा व्यक्ति विवाह के पश्चात सम्मानीय व धनवान हो जाता है।
    यदि भाग्य रेखा जीवन रेखा के अन्दर शुक्रक्षेत्र से आरंभ हो तो ऐसा जातक अपने जीवन साथी पर आधारित रहता है। स्त्री हो तो पति पर पति हो पत्नी पर आधारित रहता है। ऐसे जातक का भाग्य ठीक तरह सुखमय नहीं गुजर पाता है। चन्द्रक्षेत्र से प्रभाव रेखा शनि रेखा के साथ-साथ चले तो वह प्रेम संबंध की सूचक होगी। यदि वह रेखा भाग्य रेखा को काटकर प्रथम मंगल क्षेत्र पर पहुंच जाये तो प्रेम घृणा में परिवर्तित हो जाएगा। फलस्वरूप जातक अपना कैरियर चौपट कर लेगा। विवाह रेखा सुन्दरता से स्पष्टï हो व भाग्य रेखा हृदय रेखा पर समाप्त हो व दोनों हेथियों को मिलाने पर दोनों हाथ की हृदय रेखा का आधा चन्द्रमा बनता हो ऐसा जातक सुन्दर स्त्री से प्रेम विवाह (लव मैरिज) करता है। विवाह रेखा का आगे का हिस्सा हृदय रेखा की तरफ झुकाव लिये हो वह शनि रेखा हृदय रेखा पर समाप्त हो उसी जगह प्रथम मंगल क्षेत्र में एक रेखा निकलकर आ जावे व आयु और मस्तक रेखा को काट वह मणिबंध के ऊपर प्रबल के मूल में एक त्रिकोण बन जावे तो जातक एक तरफा मोहब्बत में भ्रमित होता है। वह अपने जीवन का सत्यानाश कर लेता है।
    यदि विवाह रेखा कनिष्ठïा उंगली के मूल में प्रवेश कर जाये तो ऐसा व्यक्ति आजीवन कुंवारा रहता है व शुक्र क्षेत्र से जितनी रेखाएं प्रहार करती होंगी उतने ही परिवार के लोग विघ्न डालेंगे व मंगल क्षेत्र से प्रहार करती हों तो मिलने-जुलने, जलने, ईष्र्या रखने वाले लोग विघ्न डालेंगे।
    यदि विवाह रेखा हृदय रेखा में जुड़ जाये व आगे बढ़ती हुई मंगल क्षेत्र पर उसकी एक शाखा पहुंच जाये तो जल्दी ही उसके जीवन साथी का साथ छूट जाएगा व उसके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। जिस जातक के हाथ में विवाह रेखा नहीं है ऐसे जातक को हृदय से संबंधित रोग हो जाएंगे व शनि प्रबल हो साथ ही शुक्र प्रबल हो और लालिमा लिये हो तो ऐसा व्यक्ति वासनात्मक स्थिति में पहुंच जाता है। अगर हृदय रेखा छिन्न-भिन्न हो तो हृदय रोग से मृत्यु तक की संभावना होगी।
    विवाह रेखा पर क्रास, दीप, द्विशारणी हो जाये तो ऐसे व्यक्ति का जीवन विवाह के पश्चात जीवन साथी से तनाव व कलह बना रहेगा। व मंगल क्षेत्र पर मंगल रेखा व आयु के बीच की उध्र्व रेखा टूट जाये या हल्की पड़ जाये या मंगल क्षेत्र से एक रेखा निकल कर विवाह रेखा में मिल जाये तो स्थिति तलाक तक पहुंच जाएगी।
    विवाह रेखा जातक के हाथ में झुकी हुई हो तो उसके जीवन साथी की उससे पहले मृत्यु होगी। पति के हाथ में झुकी हो पत्नी की और पत्नी के हाथ में झुकी हो तो पति का स्वर्गवास पहले होगा।

ज्योतिष रहस्य भ्रम एवं निवारण





    वर्तमान समय में भारतीय ज्योतिष शास्त्र के नाम पर लिखित एवं अलिखित कुछ ऐसी परिभाषायें प्रचलित की जा रही हैं जिसके चलते भारतीय ज्योतिष शास्त्र की गणना एक अन्ध विश्वास के रूप में आने वाले काल खण्ड में की जाने लगेगी - ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता - भारतीय ज्योतिष शास्त्र के आधार पर प्रचलित फलित के ज्योतिषाचार्यों, ज्योतिर्विदों और कर्मकाण्डियों के द्वारा एक भ्रम जो बहुत महत्वपूर्ण ढंग से प्रचलित एवं प्रसारित किया जा रहा है वह है कालसर्प योग। राहू और केतु के बीच में समस्त ग्रहों के होने, केतु और राहू के बीच में समस्त ग्रहों के होने से इस योग का फलित किया जा रहा है। कई दवा कम्पनियों द्वारा बड़े - बड़े सर्पों के बीच में श्री शिवजी जी मूर्ति जहर उगलते सैकड़ों मुखों वाले सर्पों के फोटो जो देखते ही भय उत्पन्न करते हैं, प्रचारित किये जा रहे हैं और उस काल सर्प-योग की शांति के लिये विशिष्टï स्थान विशिष्टï पूजा का निर्देश जिसमें हजारों लाखों रूपये का खर्चा होता है, वह निर्धारित स्थान पर जमा करने को जातकों को पहुँचाया जा रहा है। यह एकदम से ज्योतिष शास्त्र के फलितकारों की अज्ञानता को ढंकने का कुप्रयास है क्योंकि जन्म पत्रिका का अवलोकन करने परजब समझ में गोचरफल महादशा फल या कुण्डली के भावों का निर्धारण न आवे तो पितृ दोष - कालसर्प योग या मारकेश बताकर जातक को धमरा कर दिया जाता है।
    कालसर्प योग का वर्णन एवं समाधान आज से 20 वर्ष पूर्व तक किसी भी बड़े ज्योतिषाचार्य या स्थापित पुरातन आचार्यों वराहमिहिर, जैमिनी आदि ने नहीं किया यहां तक कि राहू एवं केतु की गणना गोचर एवं अष्टïकवर्ग में भी स्थान नहीं दिया गया है। राहू एवं केतु की गणना क्योंकि दशा महादशा में की गई इसलिये यह भी नहीं माना जा सकता कि महर्षि पाराशर आदि आचार्यों को राहू और केतु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं था। जहाँ तक मेरा मत है कि राहू और केतु की स्वतंत्र सत्ता को इन आचार्यों ने नहीं माना एवं छाया ग्रहों के रूप में दूसरे ग्रहों का प्रभाव लेकर अपना प्रभाव दिखाने की व्यवस्था दी गई है। इस संबंध में महर्षि पाराशर के वृहत्पाराशर होरा शास्त्र के 34 वें अध्याय का निम्नलिखित श्लोक देखें :-
    ''यदभावेश युतौ-वापि यदभाव समागतौ।
      तत् तत् फलानि-प्रबलौ प्रदिशेतां तमौ ग्रहों॥ÓÓ
    ''यदि केन्द्रे त्रिरोणे वा निवेसतां तमौ ग्रहौ।
      नाथे नान्यतरेणाढयौ दृष्टïौ वा योग कार कौ॥ÓÓ
अर्थात् राहू और केतु ये दोनों ग्रह जिस भावेश के साथ अथवा जिस भाव में रहते हैं तद्नुसार ही फल करते हैं। राहू और केतु केन्द्र में हों और त्रिकोणपति से युत या दुष्टï हों अथवा त्रिकोण में हों अथवा केन्द्रपति से युत या दुष्ट हों तो भी ये योग धारक रहते हैं।
    इसलिये इन छाया ग्रहों के राजयोग का फल अन्य ग्रहों की भाँति के स्वामित्व द्वारा नहीं किया जाता क्योंकि इनका किसी भी राशि का स्वामित्व नहीं है। राहू और केतु की परतंत्रता के कारण है अष्टïकवर्ग - होरा पद्धति (दिन की काल होरा) मुहूर्त एवं फलित में नहीं किया जाता। इनका अपना प्रभाव व इनके लिये प्रचलित एवं परम्परागत रूप से शनिवत राहू एवं कुजवत् केतु (मंगल) की तरह किया जाता है। यवनाचार्य के मतानुसार राहू केतु के शुभफल कुण्डली एवं गोचर (चन्द्रमा से) में 1-3-5-7-8-9 तथा 10 स्थानों में शुभ, बाकी में अशुभ होता है।
    उपरोक्त परिभाषा एवं विवरण से ऐसा कहीं पर स्पष्टï नहीं होता कि यह ग्रह इतने वली हैं कि इनके बीच में सप्त ग्रह के आने से कुण्डली के जातक का नुकसान या नाश होता है।
    लेखक का ऐसा अनुभव है कि बड़े-बड़े राष्टï्राध्यक्षों-राजनीतिक नेताओं, फिल्मकारों, जनरलों (मोक्ष दायान) की कुंडली में यह योग रहा और उन्होंने प्रसिद्धि के कीर्तिमान स्थापित किये। उदाहरण के लिये पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की कुंडली प्रस्तुत है :-

कुंडली जवाहरलाल नेहरू




श्री कृष्ण ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र शक्तिपुरम शिवपुरी के संस्थापक आचार्य पुरुषोत्तम दास गुप्त (पी.दास) के शोध में वास्तविक अर्थ यह है कि ज्योतिष के महान आचार्यों ने प्रकृति एवं ज्योतिष का एक बड़ा गहरा रिश्ता स्थापित करके सूर्य को केन्द्र मानकर एवं 6 ग्रहों को जो पृथ्वी की आकाशगंगा में सूर्य की आकर्षण शक्ति एवं अपनी स्वयं की ऊर्जा के आधार पर अपनी धुरी पर घूम रहे हैं एवं सूर्य के साथ प्रभाव लेकर पृथ्वी की व्यवस्था को प्रकाश एवं ऊर्जा के माध्यम से संचालित कर रहे हैं एवं विशिष्ट नक्षत्रों से गुजरते हुये अपना प्रभाव दिखाते हैं। उसको ही परिभाषित किया है। पंचांगों में प्रतिदिन की कालहोरा का आधार लें तो सूर्य से शनि तक ढाई घटी अर्थात 1-1 घंटे की 7 होरा प्रतिदिन मार्गों के लिये ली जाती है। इसमें कहीं भी राहू केतु को स्थान नहीं है।
    प्रत्येक ग्रह की दिशायें निर्धारित है किन्तु राहू केतु की कोई दिशा निर्धारित नहीं है। जिस प्रकार से पाराशरी पद्धति में दशाओं के लिये राहू केतु की स्थिति ली गई है उसी प्रकार से हथिया भारत में प्रत्येक दिन के लिये राहू काल कुबेला का वर्णन है। किन्तु किसी भी प्रकार से राहू एवं केतु जो वर्तमान में मेष एवं तुला राशि में क्रमश: चल रहे हैं और एक वर्ष के लगभग ये काल सर्प योग बारबार 3 चार माह के लिये भागा 15 दिनों के लिये जब चन्द्रमा वृश्चिक से मीन राशि तक भ्रमण करता है यह योग नहीं रहता, तो क्या इस वर्ष विश्व में जन्म लेने वाले लगभग 30 करोड़ जातक दुखी परेशान एवं असफल रहेंगे, क्या 2004 में सन्दर्भित स्थिति के जातक दुर्भाग्यशाली हैं।
    इस कालसर्प योग पर शोध करने पर ज्ञात हुआ कि भारतीय ज्योतिष में प्रत्येक ग्रह की आदमी के जीवन काल के महत्वपूर्ण पक्षों के निर्माण के लिये ग्रहों की आयु का प्रमाण किया गया है। बृहस्पति 16 वर्ष सूर्य 22 वर्ष चन्द्रमा 24-25 वर्ष मंगल 28 वर्ष बुध 30 वर्ष शुक्र 32 वर्ष शनि 36 वर्ष राहू 42 वर्ष केतु 48 वर्ष रहता है।
    जब जब भी कालसर्प योग वाले जातकों को लेखक ने परेशान एवं दुखी एवं असफल होते देखा है वह वर्ष खंड या तो 42 से 48 वर्ष राहू का समय, 48 से 54 वर्ष केतु के समय देखा है। लेख की एक प्रसिद्ध भविष्यवाणी जो पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के बारे में एक दैनिक समाचार पत्र में छपी थी उसमें एक श्लोक का संदर्भ देकर यह कहा गया था कि श्री नरसिंहराव कांग्रेस को डुबा देंगे - उसका कारण यह था कि उस समय श्री नरसिंहराव की राहू की महादशा प्रारंभ हुई थी (दिनांक 25.05.1995 से) और उसी राहू की अन्तर्दशा चल रही थी। श्लोक के साथ नरसिंहराव की कुंडली भी दी जा रही है :-

कुंडली
पी.वी. नरसिंहराव


द्वितीय भाव में राहू

श्लोक
    धन गते रविचन्द्र विर्मदने
    मुखतांकित भावयुतो भवेत्
    धन विनाशकरो हि दरिद्रतां
    स्व सुदृदां न करोति वचोग्रहाम
अर्थात् - जो धन स्थान में राहू हो तो वह पुरुष मुखरता से अंकित भाव से युक्त हो तथा धन का नाश करने वाला दरिद्री हो और अपने मित्रों का कथन न मानने वाला होता है।
अष्टïम स्थान पर राहू की दृष्टिï - 
निधनवेश्वनि राहू निरीक्षते वंशहानि बहुदुखितो नर:।
व्याधि दु:ख परिपीडि़तोऽथवा नीचकर्म कुरतेऽत्र जीवित:॥
    अष्टïम भाव पर राहू की दृष्टिï हो तो वंश हानि और वह पुरुष बहुत दुखी होता है। व्याधि के दु:ख से पीडि़त हो और अपने जीवन में नीचकर्म करने वाला होता है।
    उपरोक्त 25-5-95 के बाद चुनावों से पूर्व नरसिंहराव ने अर्जुनसिंह एवं स्व. महाराज माधवराव सिंधिया एवं वरिष्ठï नेताओं पर हवालाकाण्ड एवं अन्य आरोप लगाकर पार्टी से निकाला एवं कांग्रेस का चुनाव में सफाया करा दिया।
    लेखक का राहू और केतु के बारे में स्पष्टï रूप से यह मानना है कि जि मार्ग पर पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है या कहिये कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है, वह क्रांतिवृत एवं चन्द्रमा का पृथ्वी के चारों ओर का मार्ग वृत (अक्ष) ये दोनों जिन बिन्दुओं पर एक दूसरे को काटते हैं उनमें से एक का नाम राहू और दूसरे का नाम केतु है। आकाश के उत्तर की ओर बढ़ते हुये चन्द्रमा की कक्षा जब सूर्य को काटती है तब उस सम्पात बिन्दु को राहू और दक्षिण की ओर बढ़ते हुए चन्द्रमा की कक्षा जब सूर्य की कक्षा को पार करती है उस सम्पात बिन्दु को केतु कहते हैं।
    उपरोक्त परिभाषा से स्पष्टï है कि ये दोनों सम्पात बिन्दु हैं और इसी आधार पर जब सभी ग्रह परिक्रमा पक्ष पर इन बिन्दुओं के बीच में आते हैं तब उसी को काल सर्प योग बोला जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी व्यक्ति के पुण्यों का फल समाप्त होकर संचित पाप उदय होते हैं जो इसी जीवन में किये हुये होते हैं उस समय जब भी राहू केतु की दशा अन्तरदशा या गोचर विपरीत आता है तब व्यक्ति भय एवं भ्रम का शिकार होता है। इस समय का साधारण उपचार है। मूलत: भय निवारण हेतु अध्यात्म ज्योतिष में श्री हनुमान जी की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है। वहीं राहू केतु को धार्मिक आधार पर नष्टï करने का कार्य श्री विष्णु ने मोहिनी रूप रख कर किया था।
    अत: विष्णु को प्रिय चंदन (सफेद) की माला को धारण करना एवं अगर मृत्यु भय हो तो श्री शिव स्त्रोत चालीसा का पाठ या रुद्री के पाठ के साथ सोम प्रदोष या चतुर्दशी को रुद्राभिषेक करवाने से सर्व प्रकार की शांति होती है।
    अंत में पाठकगणों-विद्वानों से यह विशेष अनुरोध है कि कालसर्प योग या आंशिक कालसर्प योग के भ्रम में फंसकर अपना जीवन नष्टï न करें। ''प्रारब्ध पहले बना पीछे बना शरीरÓÓ यह सनातन धर्म की स्थापित मान्यता है। अपने इष्टïदेव की पूजा एवं सत्कर्म ऐसे विपरीत समय में करें, ऐसा समय दो या तीन वर्ष के लिये अवश्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आता है। अत: उपरोक्त उपचार या साधन से स्वस्थ एवं प्रसन्न होकर उत्साह पूर्वक जीवन यापन करें।



पुरुषोत्तमदास गुप्त 'पी.दास
शक्तिपुरम, (खुड़ा), शिवपुरी म.प्र.
फोन - 07492 - 233292
मोबाइल - 94251-37868
   
   

   
   




   






   

कालसर्प योग से भयभीत न हों



- पं. सत्यप्रकाश दुबे शास्त्री

कालसर्पयोग दोष से पीडि़त व्यक्ति आज चारों ओर भयभीत दिखाई दे रहा है। वह तांत्रिकों, ओझाओं व ढोंगी पंडितों के चक्कर में पड़कर धन व समय बरबाद करता रहता है, जबकि कालसर्प योग के आने से कतई नहीं घबराना चाहिए। पहले आप देंखे कि आपकी जन्मपत्रिका में कालसर्प है भी या नहीं अथवा किसी ने यूं ही बता दिया है जिससे आप खुद ही परेशान हैं। देखें - आपकी जन्म पत्रिका में बारह राशियों के बारह स्थान होते हैं जिसमें राहु-केतु सदा एक दूसरे से सातवें सन पर ही होते हैं। जब राहू-केतु किसी एक ओर अन्य कोई सात ग्रह एक तरफ आ जायें तो ऐसा योग ही कालसर्प योग कहलाता है। ऐसे कालसर्प योग व्यक्ति का जीवन संघर्षमय कटता है। इसके 3 भेद होते हैं - 1. इष्टïकारक 2. अनिष्टï कारक 3. मिश्रित।
कभी-कभी कालसर्प पीडित व्यक्ति सहज तरीके से नहीं वरना महासंघर्ष करके धन तथा सर्वोच्च पद भी प्राप्त कर लेता है तथा सर्वोच्च पद होने पर भी उसके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कालसर्प योग बहुच ऊंचाई अथवा बहुत नीचे ले जाता है। लेकिन इससे भयभीत नहीं होना चाहिए।
    कालपर्स योग की दशा में महामृत्युंजय पाठ, भगवान शिव का रुद्राभिषेक व पूजा-पाठ नित्य करने से इसका दोष कम हो जाता है। महामृत्युंजय का जाप योग्य पंडित द्वारा ही कराया जाना उचित रहता है। इसके जाप से अकाल मृत्यु, दु:ख-दारिद्र, भय का नाश हो जाता है। जातक को महामृत्युंजय यंत्र भी धारण करना चाहिए। इसके धारण करने से मारकेश, अनिष्टï योग व दुर्घटना योग टल जाता है। मंत्र इस प्रकार है -
ú ह्रïौं जूं स: भूर्भुव स्व:
ú त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिïवद्र्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धांमृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
ú भूर्भुव: स्व: जूं हौं ú

चेतना का शिखर यात्री - ताल-मर्मज्ञ - दशग्रीव




कवि, लेखक अपने साहित्य जगत में स्वतंत्र विचरण करता है, परन्तु उसकी रचना समाज को दिशा अवश्य देती है, वह जनमानस का वैचारिक पोषक भी होता है, कवि, लेखक, चिंतक सनकी होकर, सनक की हद भी पार कर सकता है और फिर 'सनकुआ का निवासी यदि सनकी हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं, भले ही वह 'समालोचना का शिकार क्यों न हो जाय। फिर भी प्रस्तुत है - एक सनक रचना का उदाहरण, बानगी या प्रेरक प्रसंग।

जीवन सदैव, उत्सव मय, रहना चाहिये -''नित्योत्सवो,  नित्य सौख्य नित्य श्रीर्नित्य मंगलम यही हमारी ऋषि प्रणीत, परंपरा रही है। वैसे तो - हमारे यहाँ - प्रत्येक तिथि, वार, दिवस - व्रत-त्योहारों से भरे पड़े हैं, किन्तु उत्सव तो पांच हैं - जो सभी को विशेष कर मुझे अधिक प्रिय हैं :-
1. धनतेरस
2. काली चौदस (कार्तिक कृष्ण 14)
3. दीपावली
4. अन्नकूट
5. भाई दौज।
भावन्त से ओतप्रोत जीवन क्षण - रामनवमी
श्रद्धा समर्पण से, भरा जीवन क्षण - जन्माष्टïमी।
(इसे साधना व भक्ति की पराकाष्ठïा का समय भी कहते हैं।)
1. धनतेरस का अर्थ :-
    हमारे पास जो भी हो, या आवे - द्रव्य-पात्र-अन्न, मानव-दानव, उसे अपने रस में लिप्त कर - अपना बनाकर ही वापस करें। आपके पास जो भी है - अन्न, वस्त्र, द्रव्य, पात्र, विद्या, सुख-शांति आदि - उसे आवश्यकतानुसार सभी को वितरित करें - उससे जो रसोद्भूति होगी वही धन्य है-'धनतेरसÓ जिसको कि रावण ने पाया। वह रसधन्य है। प्रभु ने जो भी दिया है उसे रस की तरह वितरित करें। अभावग्रस्त को तो देना ही है - जो भाव से परे है उसे भी देना तभी वह धन्य है। वैसे तो -
    के हरि मूंछ-फणिन्द मणि, पतिव्रता की देह।
    सूर कटारी-विप्र धन, मरें चांय कोऊ लेय॥
    रावण ने सब को बाँटा, आज भी शिव पूजन विधान 'रावण प्रणीत प्रचलित हैÓ वह तो अपना मस्तक भी दे देता था- वह कहता था - 'सीस दिये जो गुरु मिले, - तो भी सस्ता जानÓ रावण जिस दिन धरा पर आया - वह दिन धनतेरस। (घेरण्ड संहिता द्वि.खं.)। उसके रस को धन्य है वह रसिक है, ज्ञानी भी। शंकर-रसमय, राम रस तो है ही (राम नहीं तो रस भी नहीं) नमक कृष्ण तो रसौ वैरस:, रस-सम्राट। कोई धरम जानता है कोई करम जानता है, किन्तु जो मरम जाने - वही ज्ञानी। पक्का चरित्र निर्माण - व्यक्ति के विचार (स्वभाव से) होता है। रावण ने कहा है -  'गिव मी योर हैबिट-आइ विल गिव यू करैक्टरÓ - मन के रुझान को स्वभाव और शरीर के अभ्यास को, आदत कहते हैं।
    रावण चरित्र-प्रतिभा युक्त है। उन्होंने अनेकों बार कहा है - नीति बदलती रहती है समयानुसार बदलना भी चाहिये - किन्तु प्रीति नहीं। कारण - प्रीति बिना भक्ति नहीं। 'वह शमा क्या बुझे-जिसे रोशन खुदा करेÓ लंकेश-कहीं भी अमर्यादित नहीं। श्रीराम यदि मर्यादा पुरुषोत्तम; तो रावण-मर्यादा पालक। वेद पुराण, इतिहास, शास्त्र किसी ने भी रावण को अमर्यादित निरुपित नहीं किया। महाराज रावण का कथन है - यदि उस परमेश्वरी की, गुरु की कृपा चाहते हो तो उन पर संदेह मत करो।
    स्वामी रामकृष्ण परमहंस को रात्रि में अपने आसन पर न देखकर कुछ शिष्यों को शंका हुई .... सोचने लगे शारदा वाई से मिलने तो नहीं गये? कांचन-कामिनी, त्याग कठिन है, किन्तु अर्धरात्रि में, जब खोजा, तो ज्ञात हुआ (पंचवटी गये हैं) लज्जित हुए।
    अरे! महाकाली से प्रत्यक्ष जिस की वार्ता हो, जिस गुरु से संदेह की निवृत्ति हो, उसी पर संदेह फिर समाधान कौन व कैसे करायेगा? गुरु कृपा पाने के लिये - श्रद्धा परमावश्यक है। स्वामी जी से एक शिष्य ने पूछा, महाराज! गुरु का त्याग किया जा सकता है या नहीं? उत्तर - जो गुरु धन एवं भौतिक पदार्थ चाहे, आध्यात्म मार्ग को न बता सके, वह गुरु ही नहीं ,ऐसे गुरु का त्याग किया जा सकता है। और जिसे - अपने माता-पिता, गुरु या इष्टï के प्रति निष्ठïा - आस्था नहीं, संदेह हो - ऐसे शिष्य का भी त्याग कर्तव्य है। अंत:करण की वृत्ति ही प्रमाण होती है। गुरु वाक्य ही प्रमाण है। अरे! हनुमान जी से स्वयं तुलसी बाबा ने कहा- मैं मात्र आपकी कृपा चाहता हूँ। (जय हनुमान गुसाईं - कृपा करहु गुरुदेव की नाई) गुरु की भांति मेरे ऊपर कृपा करें।
    आज भी भारत का युवा श्री मारुति का आश्रय लें, तो निश्चय ही कल्याण होगा - कारण वह अजर-अमर (महावीर हैं) चतुर्युग प्रतापी हैं - वह दाता हैं -
    तसबीह के दाने पर निगह कर दाना।
    गर्दिश में गिरफतार है - जो है दाना॥
    माला लेकर, जप करने वाला, असत्य नहीं बोल सकता। यदि बोलता है तो निश्चय है कि उसने, सत्संग नहीं किया। अधिकारी वह है जिसके पास जिम्मेदारी है। वानरराज ने जिम्मेदारी ली है अपनों के संरक्षण की। हनुमान चालीसा - स्त्री-पुरुष, सभी कर सकते हैं।
    मंगल मूरति - मारुति नंदन।
    सकल अमंगल मूल निकंदन॥
श्री हनुमंत योगाचार्य हैं। हमें यदि परमात्मा से जुडऩा है तो, हनुमान का आश्रय अत्यावश्यक है। चालीसा पाठ करे उस दिन कहीं भी, कोई भी बंदी मुक्त हो जाता है। इसे असत्य न समझा जाये। (छूटे बंदि - महासुख होई) यह तथ्य सत्य है। अपने शिष्य (रावण को) मार्गदर्शन सर्वप्रथम हनुमंत ने ही दिया। (उलटि-पुलटि लंका सब जारी) सर्वत्र हाहाकार! किन्तु रावण के मस्तक पर ज़रा भी शिकन नहीं, क्योंकि वह जानता था कि स्वर्णलंका नाशवान है, लंका मेरा घर नहीं क्योंकि घर वहाँ होता है - ''जहाँ दिल होता हैÓÓ मेरे गुरु ही तो हैं, वह मेरे विपरीत को - मेरे पापों को जला रहे हैं, ध्यान रखिये भौतिक साधन कितना ही बाहय सुख प्रदान करे - भीतर तो खाली ही रहेगा, गुरु ने मेरे हित में जो अच्छा समझा वही किया मेरी कोई क्षति नहीं। दुनियाँ गुरु द्वार खटखटाती है, गुरु मेरा द्वार खटखटा रहा है। यदि राम, परम पुरुष है तो वह भी मेरे दरवाजे आवेगा और सभी को ज्ञात है, सेतु बंधन द्वारा समुद्रोल्लंघन कर भी राम का - रावण के चौखट पर पहुँचाना। यही लंकेश का अपने गुरु तथा अपने इष्टï के प्रति, तन्मयता का प्रमाण है। महात्मा रावण का कथन है - 'जिसके बनकर आये हो - उसी के बनकर जाओÓ उन्होंने स्वयं भी इस सिद्धान्त को निभाया। मातृगर्भ में व्यथित जीव, प्रार्थना करता है, हमें इस बार मुक्त करें प्रभो!  मैं आजन्म आपका स्मरण करूँगा।
    ''आये ते कौल कर - जाय, हरि नाम लेय।
    आन कैं भुलानों - माया जाल में परो रहो॥ÓÓ
    अपने पुत्र इन्द्रजीत को - उत्तराधिकारी, नहीं बनाना चाहते थे, उसकी क्रूरता अविवेक के कारण विमुख ही रहा। सर्वप्रथम विभीषण को ही राम के पास पहुँचाया उपरांत - क्रमश: अपने मंत्रियों, कर्मचारियों तक को उस मार्ग का अनुसरण कराया। उदाहरणार्थ - शुक+पिकादि गुप्तचरों को वहाँ की माहिती लेने - रामादल में भेजा - वानर रूप धारण किया। भले ही पकड़े गये, प्रताडि़त भी हुये लक्ष्मण के कहने से विरूप नहीं हो पाये, उनका पत्र लेकर लंका वापस आये, किन्तु ऐसे प्रभावी हुए कि - राम के बनकर ही वापस लौटे और राम की छवि, स्वभाव, वातावरण, आनंद, सौन्दर्य-शौर्य तथा अद्भुतरस का वर्णन- रावण को सुनाया 'व्यक्ति के शील से - उसके जीवन की शैली बनती हैÓ जो रसज्ञ हैं - वही धन्य हैं (धन्य: ते रस: हे रस मय! तुम्हारे रस को धन्य है) गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में -
    सिगरे गुन को रिपु, लोभ भयो; -
    फिर औगुन और भयो, न भयो।
    जिनके मुख सों, चुगली-उगली-
    फिर पाप को बीज, बयो, न बयो।
    जिनकी अपकी रति फैल गई -
    वह जम लोक, गयो न गयो॥
    अर्थात् - मन को शुद्धकर 'रस को प्राप्त करने के प्रयास मेंÓ रत - रहकर - धन्य होना, यही धनतेरस है।
2. चौदस -
    रूप चतुर्दशी, या काली चौदस (नर्क चतुर्दशी) इसके पर्याय हैं।
    ''कालस्य शक्ति: - कालीÓÓ
    काल - अर्थात् समय।
    इस काल ने तो - ''बड़े-बड़े जौम बारे - मोम से, मरोर डारेÓÓ महिषासुर-हिरण्याक्ष।
    शिशुपाल-दुर्योधनादि मात्र पृष्ठïांकित रह गये। वह समय, जिसने हमें साधा कब? कहाँ? घोर अंधकार में - उसे नर्क में - जहाँ प्रकाश का नाम नहीं था, (मातृ गर्भ में) वह गर्भ में आया कहाँ से? पूर्वजों से।
    हम नर्क गति को पुन: प्राप्त न हों, (पुनरपि जनन, पुनरपि मरणं-पुनरपि जननी जठरे शयनं) की स्थिति से रहित हो। इष्टï का ध्यान करते हुए अपने पूर्वजों को नमन करना, तथा निर्दिष्टï मार्ग पर चलना ही इसका प्रमुख हेतु है। इष्टï माने लक्ष्य- इष्टï माने - देवता। उस दिन आटे के 14 दीपक, सन्ध्या समय शिव को अर्पित कर, धरके प्रत्येक-प्रकोष्ठï में, स्थापित कर - छोटी दिवाली मनाते हैं। यह है - दशेन्द्रिय + अंत:करण चतुष्टïय से, हम अपने इष्टï को, गुरु को समर्पित हों। यह तिथि - रावण के साधना प्रारंभ की तिथि है।
                    - घेरंड संहिता से।
3. तीसरा पर्व (अमा) - दर्श
अ, अर्थात् नहीं, मा = प्रकाश ''घनांधकार में दिवस जैसा प्रकाश उत्पन्न करनाÓÓ अर्थात् - स्वयं जलकर कष्टï सहन करते हुए, सभी को प्रमुदित कर - सन्मार्ग पर प्रवृत्त करना। अंधकार = पाप, घर-बाहर कहीं भी न रहने देना, और सभी को चैतन्य की ओर मोडऩा, यही दीपावली है। ''तमसो मा ज्योतिर्गमयÓÓ का लक्ष्य बताती है। नम्रता का संदेश देती है। दीपक रखोगे, तो झुकना पड़ेगा, घड़ा झुकता है तभी, उसमें पानी भरता है, हम झुकते हैं - तभी तो आशीर्वाद मिलता है। वरदान मिलता है और झुकने वाला - कृतकृत्य हो जाता है। ''कर सजदा, तो सर न उठाÓÓ खुदा से मांग, उसका वादा है, वह देगा।
    आशीर्वाद माने लूट नहीं आशीर्वाद - बहुमूल्य है। कीमत चुकाए बिना, न आशीर्वाद मिलता है न वरदान मिलता है न सिद्धि मिलती है, न चमत्कार मिलता है और न मनोकामना पूरी होती है, प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक वस्तु का, मूल्य चुकाना पड़ता है। महापुरुष की सफलता के मूल में - तप की ही प्रमुखता रही है।
    ब्रह्मïा + शंकर द्वारा रावण को वरदान या आशीर्वाद का दिवस (अमा) इसे दर्श भी कहते हैं। अपने तपोबल से तपस्वी रावण ने वरदान मांगा - 'हम काहू के मरहिं न मारे - वानर मनुज जाति, दोई बारेÓ वानर कौन? हनुमान। हनुमान कौन? मेरा शंकर मैं अपने गुरु शंकर के द्वारा ही मारा जाऊँ। यदि मनुष्य मारे तो साधारण पुरुष से नहीं; उस परम पुरुष से, जो मुझसे भी अधिक पुरुषार्थी हो इसे ही मैं अमरत्व मानूंगा - (व्यक्ति पवित्र मन से स्मरण करे - वही समाधि)।
    हे दशानन, राजेश्वर, लंकेश्वर! तुम्हारे विचार धन्य हैं; आप अनेकों विषयों के आचार्य हो। 'आचार्य ही जीवन के मर्म को जानता हैÓ वाणी की पहुँच तो कानों तक सीमित होती है - परन्तु आचरण, प्राणों तक पहुँचता है। तुम्हारे आचरण को तो, तुम्हारा गुरु ही समझ पाया। गुरु या इष्टï के प्रति समर्पित होकर - जीवन को प्रकाशित करना ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या है।
4. चौथा पर्व - अन्नकूट
अपनी प्राप्त विद्या का, साधना का, सत्पात्र को वितरित करना ताकि वह अधिकाधिक जनहित कर सके।
5. पाचवाँ पर्व - परम महोत्सव, अत्यन्त मार्मिक-
'भाई दौज-भाऊ-बीज, अथवा भ्रातृ द्वितीयाÓ
    परस्पर पवित्रता का संदेश या संकेत मस्त होकर ईश चिंतन का दिवस -प्रसन्न रहने के दो उपाय हैं-1. अपनी आवश्यकता कम करें एवं 2. परिस्थितियों से ताल-मेल बैठायें। कारण - विवाद से विषाद पैदा है।
    'मन की तरंग मार दे - हो गया भजन।
     आदत बुरी सुधार ले - हो गया भजन॥Ó
    शूर्पनखा ने रावण को जगाया कहा - तूने प्रेम को, वस विलास कर डाला। अब पतन की कोई सीमा नहीं रही, तुमने इतना विकास कर डाला। मेरी माया ही मेरा जुल्म बन गई। देख-मेरी दुर्दशा को? रावण ने कारण पूछा तो उत्तर देती है कि- दो सुंदर तपस्वियों से मैंने विवाह प्रस्ताव किया और बदले में यह प्रतिफल मिला।
रावण-शादी रस्मों से ज़रूर होती है। मगर हक (अधिकार) से नहीं। तूने हक जमाया होगा। हक से रिश्ता नहीं बनता। निश्चय ही तुमने कोई अभद्र व्यवहार किया होगा। क्या उनके सौन्दर्य को तूने नमन् किया था? किसको - कितना झुककर प्रणाम करे, यह भी एक हुनर है और उसे तुम नहीं जानतीं। उन्होंने नहीं तूने उनकी मुहब्बत पर डाका डालने की कोशिश की यही तेरा अपराध है। स्वप्नों का महल बनाने चली थी।
शूर्पनखा - मैं तेरा भाषण सुनने नहीं - तुझे अपनी दुर्गती बताने, व तेरा शासन बताने आई थी। 'तेरे घर पर आना - मेरा काम है, और मेरी बिगड़ी बनाना तेरा काम। धिक्कार है, तेरे शासन में होने वाले जुल्मों को। देख मेरी विरूपता को, तुझे मेरे एक-एक आँसू का जवाब देना होगा। जान सको तो जानो- मान सको तो मानो।Ó
रावण - जा बहिन जा - तूने मेरे शासन पर दावा किया, अब मैं उसका उल्टा वादा करता हूँ - जुल्म की रात भी कट जायगी, आस के दीप जलाये रक्खो। यदि तू विकृत हो गई है - तो संशोधन भी होगा। वह जागा - और उसी दिन से उसका जीवन बदला। गुप्त रूप से - प्रतिक्षण, प्रतिपल, जो आपके कृत्यों (कर्मों) का चित्र लेता रहे - वह चित्रगुप्त। जो आपका एकाउन्ट रखता है प्रति मिनट का विश्वास रखिये - आपके कर्म चित्र (स्वयमेव) आटोमैटेकली, दत्तकृतानुसारी निहंता के पास पहुँच रहे हैं। यह उस 'एकाउन्टटैंटÓ .... के पूजन का दिवस भी है। एक गुरु ने शिष्य से पूछा - कान और आँख में कितना अंतर है? पहिले ने कहा - चार अंगुल का। दूसरे ने कहा- कानों से सुनी और आँखों से देखी बात ही महत्व की होती है। तीसरे का उत्तर था - आँख, लौकिक देखती है, कान पारलौकिक भी। चौथे ने समाधानात्मक उत्तर दिया - गुरुदेव। कान-आँख दोनों ही आवश्यक इन्द्रियां हैं। अंतरमात्र इतना - कि, कान से पूर्व ही आँख रहस्य जान लेती है। नेत्र, शीघ्र ही वस्तुस्थिति को परख लेते हैं। ''नैन, ऐन कहिदेतÓÓ, नजर चली गई तो नजारे चले जाएंगे॥ यदि परमात्मा को चाहते हो तो, बरवाद होने से, बदनाम होने से, - बलिदान होने तक 'ममत्वÓ - जितना तोड़ सको, तोड़ दो। मोह के तंतुओं से, भगवत योजना नहीं बंधती। अपने इष्टï का स्मरण करे वही समाधि।
    मैं कांप उठता हूँ, यह सोचकर तनहाई में।
    मेरे चेहरे पै - तेरा नाम न पढ़ ले कोई॥
मीरा भी कहती थी -
काली करतूत वाली, काली दुनियाँ में। ताकि,
- काली -काली कोई आँख, मुझे देख पावै ना॥
अर्थात् - उस परम सत्ता के प्रति, अपने को, समर्पित करने तक, हमें - स्वयं को छिपाये रखना पड़ेगा। अन्यथा समाज हैरान करेगा।
    दिल को उस राह पै चलना ही नहीं है,
    जो मुझे, तुझसे जुदा करती है।
    चलना उस राह पै है ..... जो,
    तेरी खुशबू का पता करती है॥
    जिन्दगी मेरी थी, लेकिन,
    अब तो तेरे कहने में रहा करती है।
    दु:ख किया करता है कुछ और बयाँ -
    पर बात कुछ और हुआ करती है।
   
    जमाने में बेबफा, जिन्दा रहेगी।
    मगर, कुत्तों से - शर्मिन्दा रहेगी॥
   
    कुत्ता कातिक मास में, तजत, भूख अरु प्यास।
   तुलसी - कलि के नरनकों, कातिक बारउ मास॥
    विरक्ति - अनुरक्ति, यह सब मन का विषय है। जब तक लौ नहीं लगेगी, तब तक मजा नहीं आएगा।
    - 'लौ, लागी तब जानिये,
    जब आर-पार हुई जाय।Ó
    कहा जाता है - हम दीन हैं। दु:खी हैं। जो, सत्य की शरण में नहीं गया वही दीन है। बाहय या भौतिक पदार्थों के अभाव का जो अनुभव करे, वह दु:खी है।
महर्षि अगस्त के आश्रम का नाम था - वेदपुरी।
भरद्वाज का प्रयाग में - प्रशिक्षण शाला।
विश्वामित्र का - सिद्धाश्रम।
द्रोण का - चन्द्रमौलि।
सांदीपन का - चन्द्रचूड़ (अवंतिका में)।
वसिष्ठï का - कामधुक् ..... (वसिष्ठïाश्रम में)
    साठ हजार विद्यार्थी एक साथ पढ़ते थे। करोड़पति, लेखा-जोखा रखते थे। इन सभी ने अजनाभखण्ड (भारत) की संस्कृति को, विखंडित नहीं होने दिया। जो गुरु के आश्रम में नहीं गया, उसे आश्रम कहाँ? आज इसी कारण उस परंपरा को (एक दिन के लिये ही सही) गुरुपौर्णिमा को गुरु के यहाँ जाकर निभाया जाता है।
    जिस प्रकार शारीरिक दु:खों का नाम - व्याधि और मानसिक दु:खों का नाम - आधि। इन सभी से मुक्त होने का एक ही उपाय है - इष्टï से भ्रष्टï न होना।
अरे! सुख की तलाश में भागे - वह संसारी, पीड़ा में जो जागे - आध्यात्म या जीवन। विचार और कर्म के समन्वय से संस्कार बनते हैं। प्राय: का अर्थ - तप और चित्त का अर्थ है - निश्चय। तप का निश्चय ही प्रायश्चित है, न कि पछतावा। जैसे कि एकांत का अर्थ - 'अकेलाÓ नहीं। उस एक में अपना अंत करना। (आत्मलीन होना) एकांत में ही शांति रस घुलता है। प्रभु का नाम जपना है तो पहिले - वैखरी (बाराखड़ी) से, फिर मन से, और फिर ध्यान से किन्तु यह सब करना होता है जतन से, और जतन बताता है - गुरु। वही इष्टï के पास पहुंचाता है। यदि वह गुरुनिर्दिष्टï मार्ग पर जाता है तो उसका मोक्ष हो जाएगा। निर्वाण हो जाएगा .....। मुख्यत: 'वासना क्षय ही निर्वाण हैÓ संसार में दु:खों के तीन कारण हैं - अज्ञान-अशक्ति और अभाव। शक्ति तंत्र के अनुसार - ह्रïीम् - अज्ञान को, श्रीम् अभाव को, क्लीम् अशक्ति को दूर करते हैं। साधना से सिद्धि मिलती है। साधना के बल पर लंका में स्थित रावण और अमेरिका में बैठा अहिरावण परस्पर भली प्रकार वार्तालाप किया करते थे। उन्हें किसी रेडियो-ट्रान्समीटर, मोबाइल आदि की आवश्यकता नहीं थी। विमान, बिना पेट्रोल के उड़ते थे। ब्रह्मïाण्ड की हलचलों से परिचित होना - यह सब मंत्र, योग शक्ति एवं आध्यात्म विज्ञान से होते थे। यह सब भारतीय विज्ञान था। जिसका आधार था - साधना। प्रत्येक कार्य में त्रास होता ही है। त्रास का अर्थ, कष्टï नहीं होता - चिंता होता है, जैसे -
1. राम त्रसित हैं - अपने वामांग के अभाव से, तो रावण त्रसित हैं उसे प्राप्त करने के भाव से दोनों के हृदय में सीता (सीता = शक्ति:) शक्ति में ही समूचा अस्तित्व सिमटता है।
2. राम का अस्तित्व, सीता; तो-रावण का मातृत्व सीता।
3. राम, भावुक हैं (विह्वïल हैं), तो रावण भावना। ध्यान रखिये - भावुकता, बुजदिली सिखाती है, जबकि भावना, अपने इष्टï के प्रति समर्पण।
4. राम का हेतु-कामना (सीता प्राप्ति) तो-रावण का हेतु - मोक्ष सर्व श्रेयस्करी सीता द्वारा अपना कल्याण करना।
रावण कहते हैं - मैं राम से किसी प्रकार न्यून्  नहीं।
5. सीता यदि राम के वाम भाग में, तो वह मेरे हृदय भाग में। कितनी आस्था है, निष्ठïा है शक्ति के प्रति।
6. राम यदि पत्नी व्रती, तो मैं वैरव्रती। (जप शुरु कर दो - नाम में बड़ी ताकत है।)
    वैरव्रत रहस्य, रावण को अपने गुरु शिव द्वारा मिला था। व्रत का अर्थ उपवास नहीं। विशेष तपस्या है। यदि कुछ भी न कर सको तो वैर करना ही सीख लो। वैरव्रती बन जाओ तो भी कल्याण हो जाएगा। कारण-दु:खों की चोटों से - 'अंतर्चेतना मेंÓ निखार आता है। रावण-वैरव्रती, कंस वैरव्रती।
''आसीन: शयाम:, भुंजान: पर्यटन् महीम् -
चिंतायानो हृषीकेशं, अपश्यत्तन्मयं जगत।ÓÓ
    इसे ही पराभक्ति कहते हैं -    
    पराभक्ति याको कहैं - जित तित श्याम देखात।
    नारायण सो ज्ञान है - पूरन ब्रम्ह लखात॥
    महत्वपूर्ण प्रयोजनों में, अपने को नियुक्त करना ही साधना कहलाती है। साधना, उपासना और आराधना यह एक दूसरे के पूरक हैं। अत: 'दशग्रीवÓ को जब भी आवश्यकता होती थी, कैलाशस्थ मान सरोवर के समीप आकर तपश्चर्या करते और अपने इष्टï को रिझाते। उन्हें ज्ञात था - कि ज्ञान किसी के ताले में बन्द नहीं होता। अहंकार की पथरीली भूमि से - तपस्या का अंकुर फूट नहीं सकता। स्वयं को गुरु के प्रति अर्पित करता तथा अपनी परंपरा का स्मरण कर मूल चेतना का विस्तार करता। तोडऩे वाले पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होते, जोडऩे वाले पर होते हैं। कारण - कि व्यतीत हुआ समय एवं टूटे हुए संबंधों का पुन: वापस आना, लगभग असंभव ही होता है। रावण - राम से कम नहीं, यदि उसके रहस्य को समझ लिया जाये। रावण - निर्वाण यज्ञ का आचार्य है। कहीं भी अमर्यादित नहीं। यदि चाहता तो सीता को अपने प्रासाद के अंत:पुर में भी, पवित्र स्थान पर रख सकता था। किन्तु नहीं। अपने शक्ति की स्थापना, दूरस्थ, प्रमदा-वन - अति रमणीय अशोक वन में की, जाता भी कम था और यदि गया भी तो एकाकी कभी नहीं, कभी मंदोदरी, तो कभी और कोई साथ में ले जाता था। यह भी उसका मात्र दिखावा था। वह मानता व जानता था कि वही वस्तु देर तक साथ रहती है जो दूर है। हाँ , उसने एक बार सीता से अवश्य कहा था - देवी! मात्र तुम्हारे मूल रूप का दर्शन चाहता हूँ।
    जो झुके तेरे आगे, वो सर मांगता हूँ -
    तुझे देखने की नजर मांगता हूँ।
    न घर मांगता हूँ, न ज़र मांगता हूँ।
    हम रावण का पुतला जलाते हैं। रावण प्रसन्न होकर कहता है ओ धर्मांध। तुम किसको जला रहे हो? मेरा तो कभी का मोक्ष हो चुका है। मैं तो राम मय हो चुका हूँ। और यदि तुम राम के प्रति आस्थावान हो तो अभी तक अयोध्या में राम मंदिर भी न बनवा सके। जलाना सहज है उसकी स्मृति में जलना सीखो, जलाना नहीं। 'सौ में अस्सी बेईमान, फिर भी देश महानÓ - तुम्हारे यहाँ। नेताओं के किले बन गये, विधायक मालामाल और जनता बेहाल। आपके यहाँ का नेता कुछ भी कर जाये, मगर मौज से रहता है। अन्न तो क्या, प्रजा पानी को भी तरस रही है। नल से उतना ही पानी आता है जितना दूध में मिलाया जाता है। जो अपराधी, वही - आदर्शों के पाठ पढ़ाता है, मात्र यही तुम्हारा धर्म रह गया है।
(गीता की कसौटी पर यदि रावण खरा उतरे तो मानना)
राम - सत्य है, तो रावण सत्यव्रती।
राम, सत्य से भी परे (त्रिसत्य) तो, रावण भी त्रिकाल, उसे प्राप्त करने को संतृप्त।
राम- यदि सत्य में निहित है, तो रावण - सत्य प्राप्ति में निमग्न। दूसरों की परिस्थिति देखकर अपने को मत तौलो। अपने को मत कोसो।
    ऋतु बसंत याचक हुआ। हरष दिये द्रुम पात।
    तुरतहिं पुनि-नये भये, दियोदूर नहिं जात॥
    धनी वे हैं जो अपनी जेब में हाथ रखते हैं। कुछ देने की इच्छा होगी - जेब में हाथ उसी का होगा - जिसके पास कुछ होगा दाता बनिये, याचक नहीं, क्योंकि जो देता है, वही आकर्षक लगता है। किन्तु यह श्रद्धा, क्षमता तथा औदार्य का विषय है। आज श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। स्मरण रहे श्रद्धा विश्वास को उत्पन्न करती है। विश्वास से अनुभव, अनुभवी - तर्क वितर्क नहीं करता कारण, उसकी तन्मयता बढऩे लगती है। वह खोजता है। भक्ति खोजने से नहीं खो जाने से मिलती है और फिर उसे औदास्य होने लगता है। वह प्रथकत्व एकाकी रहना चाहता है। विवाद नहीं चाहता। किसी का उपदेश भी नहीं चाहता।
    रावण कहता है - मुझे उद्बोधन मत दो जो दु:ख में परेशान हो, सुख में विलासी हो जाये, वही अज्ञानी। मैं उन अज्ञानियों में नहीं हूँ। मेरे द्वीप में (सिंहल द्वीप - लंका में) भी असंख्य मंदिर हैं। साधना स्थल है। (प्रमाण - श्री हनुमंत हैं - मंदिर - मंदिर - प्रतिग्रह बोधा) - कहता है -  ''आई एम बैड मैन, मैड मैन, सैड मैन - डोंट टच मी, लैट मी एलोन, बिकौज गोड इज़ हीयर - देयर एण्ड ऐब्रीव्हेयर।ÓÓ आई नो एब्रीथिंग. बट गोड इज़ टू बी रियलाइज़्ड आन, ब्लाअण्ड फेथ। एब्रीथिंग कैन बी पासीबल - इफ, गोड टच इज़ देयर। प्रभु कृपा हो तो - दैट व्हिच कैननाट बी सैड - ''मस्ट नाट बी सैडÓÓ - जो अकथनीय है - उसे कहना भी नहीं चाहिये। हृदय में रखना चाहिये। 'दिस इज दि व्यूटी आफ डिवाइन लवÓ विशुद्ध प्रेम का यही रहस्य, और यही तकज़ा है। प्रेम में आदान-प्रदान का प्रश्न ही नहीं। वहाँ - आई नहीं, यू नहीं, मात्र लव है। (मैं-तू नहीं) भोगवादी को भय होता है।
    मंदोदरी के समझाने पर कहता है - 'मैं जानता हूँ मिजाज तेरा, इसलिये, हाँ में हाँ मिला देता हूँ।Ó किन्तु मैं दीवाना हूँ अपने दीवानेपन का। भिखारी से भीख नहीं माँगी जाती - शरीर संयम से, व मन स्वाध्याय से, क्षमतावान बनता है तथा प्राणबल, तपोबल से मिलता है।
    जो समुद्र से भी भीख माँग रहा हो, स्वयं तृष्णा का भिखारी हो, उससे मेरी साम्यता करती है। ''न भूतपूर्व व कदापि दृष्टï:, न श्रयते हेम मर्ई कुरंग: तथापि तृष्णा, रघुनंदस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि:। राम, आबद्ध है - मैं समृद्ध हूँ। सुग्रीव- विभीषणादि भिखारियों के पास रहते - रहते - 'राम कोÓ भीख माँगने की आदत पड़ गई है। उसने अपना स्वाभिमान खो दिया है। स्वाभिमान के साथ .... जियो, व जीने दो ...। इस युग में - सुभाषचन्द्र बोस ने भी यह कहा है -    
    एक दिन भी जी - मगर तू ताज बनकर जी।
    मत पुजारी बन- स्वयं भगवान बनकर जी॥
    हर प्राणी अपने धर्म का विधान, स्वयं बनाता है। धर्म व्यक्तिगत है। आत्मा - जो आवाज़ दे - वही धर्म। अरे! प्रथम धर्म द्वितीया श्रमी का मैं जानता हूँ  मंदोदरी।
    वह तो ग्रहस्थ धर्म से भी रहत है। सहधर्मिणी के प्रति अपने कर्तव्य को भी नहीं निभा सका है। मैं योग-भोग सूत्राचार्य भी हूँ जिसमें ऋषियों के शोध, उनके अनुभव अंकित हैं। जिसे अर्धांग के प्रति स्नेह या अपनत्व नहीं उसके सुख दु:ख का भागी नहीं, कटु व्यवहारी, अप्रिय वाणी का प्रयोगी, कुटिलता का कुत्सित व्यवहारी पति, मन, वचन, कर्म से, अशांत रहेगा। उसके यहाँ का वातावरण - सुख शांति से रहित हो जाता है। वह स्वयं व्याधिग्रस्त-कुष्टïादि चर्म रोगी इस जन्म में तो रहेगा ही, अगले जन्म में - वृक्ष बनता है एवं नाना प्रकार के अनेकों कष्टïों को अनेकों वर्ष पर्यन्त भोगता है। उसे समाज - हेय दृष्टिï से देखता है।
स्त्रीणां निंदा प्रहांर च, कौटिल्यं चा प्रियं वच:।
आत्मन:क्षेम मन्विच्छन-सद्भर्ता विवर्जयेत्॥
- मार्कण्डेय पुराण - मीमांस प्रकरण श्लोक सं. - 57 से 59।
    एतेनां, वृषलानां, रजस्तम: प्रकृतीनां,
    धनमदरज उत्सिक्तमनसाम्।
    हिंसा विहारिणां, भतृणां गति: -
    कुष्टïो वा, स्थाविरोऽथवा॥
- आश्वलायन सूत्र, कर्मगति पर्व ऋचा - 83-93।
ममतनया (मंदोदरी) तू नहीं जानती। मैं अनेक शास्त्र सम्पन्न हूँ। फिर भी, अपने एहसासों में - कुछ कमी रखता हूँ।
$गम का जिसको नाज़ हो- ऐसी खुशी रखता हूँ मैं।
कुछ वजह होगी कि, उनसे-दुश्मनी रखता हूँ मैं॥
    000
दिल के झगड़ेमजबूत दिल से होते हैं,
दिल से दिल मिले - तो दिल की बात हो गई।
बिन बाँधे ही बँध जाती है - दो श्वासों की डोरी।।
प्रिये! मंदोदरी,
    जहाँ दो दिलों की - मुलाकात होगी,
    जुबाँ चुप रहेगी - मगर बात होगी।
    गुरु, साधु, $फकीर-वेदज्ञ, ब्राह्मïण, समस्त - कलाकार- लेखक-पत्रकार, कवि इसलिये शुभ माने जाते हैं - कि इनकी चिंतनधारा सतत चलती रहती है। ये तापस होते हैं। कामादि रहित निर्विरोधी भी। अधिकांश अक्रोधी भी।
    ध्यान रखिये - क्रोध, मूर्खता से आरंभ होता है, और पश्चाताप पर समाप्त हो जाता है।
    रावण - पूछता है, हे गुरुदेव! महादेवाधिदेव!! आप सदैव, जप में निरत रहते हैं। आप पंचमुख हैं। मुझे क्या आदेश है। मैं अपनी संकीर्ण अवस्था को चोडऩा चाहता हूँ। ब्रह्मï साक्षात्कार द्वारा - यह बिन्दु - सिंधु में समाविष्टï होना चाहता है। मैं चाहता हूँ साधना - रात्रि में करूँ, दिन में नहीं। (प्रकाश डिस्टर्व करता है) बाधा डालता है। अंधकार नहीं। घोर अंधकार में ही मार्ग मिलता है। ''प्रकाश, यदि परमात्मा है - तो अंधकार भी परमात्मा है।ÓÓ
    शारीरिक विश्राम में भी, प्रकाश बाधक है। (प्रकाश में बात भी खुल जाती है) अंधेरे में नहीं। बिना भक्ति के कौन सुख? मुझे विशुद्ध भक्ति दीजिये। अविरल, अखण्ड, निरंतर, शाश्वत हो।
    गुरु की आज्ञा उसे मिली - ''और वह अपनी शिखर यात्रा पर चल पड़ा -ÓÓ जप व तप से मानव प्रज्ञावान बनता है और पाप प्रक्षालन भी। रावण ने तपश्चर्या के लिये - मान सरोवर के पास - 'राक्षस तालÓ का चयन किया। 'तालÓ ताल माने - रस। बिना मेल के अपूर्ण, अधूरा, सीधा अर्थ जो मिला दे वही ताल। अन्यथा - बेताल या बेसुर।
    'राक्षसÓ : शब्दार्थ - रा अर्थात् राम , स - माने, सीता, क्ष का अर्थ किरण (एक्सरे का जो काम करे)
अर्थात् - जो शक्ति + ब्रह्मï से जुड़ा दे अथवा अपने इष्टï से सम्बन्ध करा दे। वह ताल 'राक्षस तालÓ जो सब में त्याग-प्रेम भर दे। ताल पर ही राग चलता है (माल कंस, आसावरी, भैरवी, ठुमरी आदि) एक ताल - त्रिताल आदि पर गतिशील होते हैं। ताल और राग मिला कि - अनुराग स्वयं ही आ जाता है। नाम जपना है तो अनुराग से जपो। जहाँ कोई विक्षेर न हो, व्यवधान न हो - उसे ताल कहते हैं। रावण कहता है कि मेरा उस राम से, अभिराम से, शीघ्र तालमेल हो, किन्तु-विरोध के साथ। शीघ्र हो - ताकि सीता रूपी अस्तित्व को प्राप्त कर अपने निर्वाण का हेतु बना सकूँ और मैं यह भी जानता हूँ - मेरे हेतु के लिये - राम को भी सेतु बनाना पड़ेगा - मेरा गुरु ही मुझे कृतार्थ करेगा और रचना करने लगता है
- तालबद्ध स्तोत्र की - 'शिव ताण्डवÓ की-
    जटा कटा हसभ्रम - भ्रमंनिलिप निर्झरी।       
 विलोल वीचि बल्लरी, विराजमान मूर्धनि।
    धगद-धगद, धगज्वल ललाट पट्टï पाव के,   
 किशोर चन्द्र शेखरे-रति प्रतिक्षण मम।
    स्मरांतकं, पुरांतकं, भवांतकं, मखांतकं -        
राजाच्छिदांधकांतकं, तमंतकांतकं भजे।
रिझा रहा है - गुरु को, खुशामद कर रहा है (नृत्यादि से)।
    दशग्रीव के, साधना की अविराम गति में - लय का संगीत है। गुरु को माध्यम बनाकर - तन्मय होकर तालबद्ध नृत्य भी, अहर्नििशि 40 दिन तक। जिसे भक्ति मिली, उसे सब कुछ मिला। जिसे देह का भी भान नहीं, जिसके नृत्य को देखकर प्रकृति स्तब्ध, समस्त - देव मण्डल चकित। लंकेश्वर - राजेश्वर के साधना करते-करते वाद्यतंतु टूटने पर - अपनी आंत निकाल कर जोड़ देता व पुन: गीत बनाकर तन्मयता से -षड्ज, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम आदि स्वरों का स्वयं निर्माण कर - राग का अलाप करता। शिव को प्रसन्न करता। शिव स्वयं नटराज हैं। रावण के स्वर में विलक्षता थी। वह संगीत-पारंगत, निष्णात विद्वान, सस्वर वेदपाठी, अनन्य भक्त, मंदोदरी भी - संगीतज्ञा - विदुषी थी।
    रावण के संगीत सभा में - अनेक, गायनाचार्य, उर्वशी, हेमा, रम्भा, मेनका, मिश्रकेशी और तिलोत्तमादि उच्चकोटि की प्रवीण नृत्यांगनायें विद्यमान थीं। कभी-कभी गुरु को रिझाने में इनका सहयोग भी लेता था। 'रावणेयम्Ó नामक ग्रंथ में रावण के संगीत दक्षता की पुष्टिï है। वह कहता है -
'नेस्ती, हस्ती है यारो, और हस्ती कुछ नहीं।
बेखुदी, मस्ती है यारो, और मस्ती कुछ नहीं।Ó

धन्य है विश्रवा का बेटा - दशग्रीव :
    'राम यदि रघुवंशी - तो रावण - ऋषिवंशीÓ
    सम्बन्ध, तो तरंगों का है - तरंगों में टकराव भी होता है। समुद्र पांच मील गहरा है। नीचे उसका पता नहीं। गंभीर है, धीर है महान भी, मद, मदन, मत्सर को मारे वह महान, जिसे कोई परिस्थिति कायर न बना सके, जो किसी से न डरे - कोई उससे भी न डरे, वह महान। मद् होता है पद से, इस श्रेणी से रहित - दो ही विभूतियाँ परिलक्षित हैं (भरत+ पवनात्मज) जिन्हें - मद स्पर्श ही नहीं कर पाया। गुरु-शिष्य सम्बन्ध पवित्र व प्रगाढ़ होता है, प्रगाढ़ इतना हो कि पति-पत्नी भी गुरु - शिष्य बन जायें। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी भामिनी को पढ़ाया, साक्षर किया, आध्यात्म की ओर मोड़ा और अंत में गुरु बने। यही स्थिति - गोपाल कृष्ण गोखले, राना डे, तिलक की भी रही।
    जीवन में कर्म करना जितना आवश्यक है, उससे निवृत्त होना भी उतना ही आवश्यक है। 'यही निवृत्ति मार्ग हैÓ जिसका दशग्रीव ने पूर्णतया पालन किया। ऐसे महान अवतारी के प्रति नमन् करने में ही हमारा श्रेय है। इसी में - भारतीय संस्कृति की श्लाघा है।
अरे! शिव तो, शिवा को, सतत उपदेशित करते रहते हैं।
    उमा कहहुँ निज अनुभव अपना।
    सत हरि भजन-जगत सब सपना॥
    गुरु - शिष्य का मूल है और शिष्य गुरु का फूल - मूल कभी फूल की खुशबू नहीं चाहता। मूल चाहता है श्रद्धा। कोई शिष्य - श्रद्धा के जल से सींच दे। जिस पर कि आज के युग में तुषार पड़ गया है। पुराने वट वृक्ष को किसी के जल की जरूरत नहीं, फिर भी सींचा जाता है, पूजा जाता है ज्येष्ठï मास में, कारण वह वृक्ष ज्येष्ठï है। ईश्वर रूप है।
    गुरु चाहता है - यह मेरा पुष्प है (शिष्य)। महादेव चरणों में अर्पित हो। पौधे या वृक्ष का तना सेतु है, यही गुरु कुल है। जो कि फूल और मूल को जोड़ देता है। जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है। फूल कैसा भी हो - गुरु का ही है। मेरा शिष्य - 'फले-फूलेÓ यही गुरु चाहता है। इस सम्बन्ध में शूल नहीं। मानाकि - किन्हीं पुष्पों में काँटे होते हैं, किसी बालक को काँटा लगने पर, उसकी माता, काँटा निकाल कर उसके हथेली पर रख देती है कारण - मातृत्व है - ममत्व है।
    किन्तु - गुरु , निकाल कर हाथ पर नहीं रखता, चबा जाता है। अत्यद्भुत सम्बन्ध है - 'त्रय: शूल निर्मूलनंÓ दुख रहित कर देता है। इस मोहरात्रि दीपावली पर्व पर हम सभी - श्रद्धा विश्वास रूपी, शूलपाणी-पुरारी का, दशग्रीव की भाँति भावगम्य चिंतन करें, प्रेम पूर्वक नमन् करें। दिव्य भाव से प्रकाश पर्व मनाते हुए - परं ज्योति से ज्योतिर्मय बने, अपनी कमियों को पूर्ण करें और चेतना का प्रखर यात्री बनकर - अपने जन्म को सफल बनावें।

आचार्य पंडित श्रीधरराव अग्निहोत्री
राज्याचार्य एवं राजज्योतिषी
होलीपुरा, दतिया (म.प्र.) पिन - 475661

छत्तीसगढ़ के जीवंत इनसाक्लोपीडिया - डॉ. विनय कुमार पाठक


 - राजकुमार सोनी

छत्तीसगढ़ी भाषा, साहित्य और संस्कृति पर आधारित अनेकानेक स्थापनायें प्रदान कर डॉ. विनय कुमार पाठक जीवंत इनसाइक्लोपीडिय़ा के रूप में अभिहित हैं। स्वतंत्रता के पश्चात छत्तीसगढ़ी पत्रकारिता को प्रोन्नत करके, प्रयास प्रकाशन के द्वारा मंच और प्रकाशन का पट अनावृत करके, छत्तीसगढ़ी कविता में मौलिक सांस्कृतिक उपमानों व प्रतीकों का उपयोग करके, छत्तीसगढ़ी लोककथात्मक कहानियों को समृद्ध करके, छत्तीसगढ़ी में समीक्षा संस्मरण और जीवनी का प्रवर्तन करके, छत्तीसगढ़ी शब्दों और स्थान -नामों पर प्रमाणिक शोध करके, छत्तीसगढ़ी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास लिख करके, लोकसाहित्य पर महत्वपूर्ण कार्य करके, लोक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा जन-मन में लोकजीवन व लोकसंगीत का मिठास घोलकर जिस एक व्यक्ति ने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है, उसे लोग डॉ. विनयकुमार पाठक के रूप में जानते हैं। इन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा, साहित्य और संस्कृति में शोध और समीक्षा के द्वारा जहां नव्यालोचन का पथ प्रशस्त किया है, वहीं हिन्दी और भाषा विज्ञान में पी-एच.डी. व डी. लिट् की दोहरी उपाधि प्राप्त कर अकादमिक ढंग से अखिल भारतीय स्तर पर कीर्तिमान स्थापित किया।  इन्होंने छत्तीसगढ़ी में स्वत: कार्य किया और अन्यान्य लोगों को प्रेरित कर एक युग को प्रवाहित किया। इस आधार पर ये छत्तीसगढ़ी साहित्य के युगप्रवर्तक कहलाते हैं। इस दृष्टिï से इनके छत्तीसगढ़ी प्रदेश पर जहां रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में पी-एच.डी. का कार्य हुआ है, वहीं राँची विश्वविद्यालय राँची (झारखण्ड) द्वारा डी. लिट् का कार्य हुआ है। इस तरह डॉ. पाठक देश के ऐसे प्रथम व्यक्ति हैं जिनके जीवन काल में पी-एच.डी. और डी.लिट् का कार्य हुआ है। छत्तीसगढ़ी शब्दकोश में आपने गुरुदेव डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा व डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा के साथ सह संपादन सहयोग भी दिया है। इस ग्रंथ को विलासा कला मंच ने प्रकाशित किया है। डॉ. पाठक विलासा कला मंच के संरक्षक भी हैं। आज सभी अपने लिए करते हैं लेकिन डॉ. पाठक ही ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरों के लिए संकलित होते हैं। इनके इस अवदान को पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्रÓ ने भारतेन्दु साहित्य समिति द्वारा प्रकाशित स्मारिका में अभिव्यक्त किया है जो ''छत्तीसगढ़ी साहित्य को डॉ. विनय पाठक की देनÓÓ (1981) में प्रकाशित है। छायावाद के प्रवर्तक पंडित मुकुटधर पाण्डेय छत्तीसगढ़ी काव्य में प्रेरणा स्रोत के रूप में जिनके महत्व को स्वीकारा है, उनमें डॉ. पाठक एक हैं। छत्तीसगढ़ी के महाकवि स्व. कपिलनाथ कश्यप ने छत्तीसगढ़ी में  ''श्रीरामकथाÓÓ महाकाव्य के प्रणयन के लिए डॉ. पाठक के प्रोत्साहन का स्मरण करते हैं। इसके साथ उनके समकालीन और बाद की नयी पीढ़ी को उनके युगप्रवर्तनकारी प्रदेय को स्वीकारती ही है। स्वतंत्रता के बाद इस दिशा में सर्वाधिक कार्य करने व कराने वालों में डॉ. पाठक एकमेव हैं। डॉ. पाठक का छत्तीसगढ़ी प्रदेश महत्वपूर्ण है, उनकी हिन्दी सेवा भी कम उल्लेखनीय नहीं। हिन्दी प्राध्यापक के रूप में अत्यन्त लोकप्रिय व आदर्श आचार्य के रूप में अभिहित डॉ. पाठक के शोध निर्देशन में तीन दर्जन लोगों ने पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। शताधिक कृतियों के लेखन, संपादन व प्रकाशन के साथ महत्वपूर्ण शोध आलेखों का प्रकाशन हिन्दी की धरोहर है। डॉ. पाठक देश के अनेक विश्वविद्यालयों में विद्वान वक्ता, स्रोत पुरुष व पी-एच.डी. तथा डी.लिट् के परीक्षक के रूप में आमंत्रित किए जाते हैं। आपको 18 सितम्बर 2002 को दिल्ली में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में सहस्राब्दि हिन्दी सेवी राष्टï्रीय सम्मान से अलंकृत किया गया है तथा ऐतिहासिक साहित्यिक ग्रंथों में इनके प्रदेश की प्रस्थापना व परिचय की प्रतिष्ठïा पाना है। समाज सुधार में अग्रणी सत्यार्थ प्रकाश, कपिलनाथ कश्यप : व्यक्तित्व-कृतित्व, बृजलाल शुक्ल: व्यक्तित्व-कृतित्व के साथ इनकी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक कृति पंत के गीत का संगीतशास्त्र विश्व पुस्तक मेले में जनवरी 2002 को लोकार्पित हुई जिसमें संगीत का विवेचन डॉ. कावेरी दाभडकर ने किया है। इसी क्रम में पं. मुकुटधर पाण्डेय पर एक ग्रंथ प्रकाशनाधीन है तथा महिला लेखन पर स्वतंत्र आलोचनात्मक कृति नयी स्थापना के रूप में सामने आई है।
    हिन्दी व्यंग्य कर्म एवं समकालीन परिदृश्य का संपादन करके व्यंग्य के क्षेत्र में आपने अभिनव कार्य किया है। जो शोध-संदर्भ के रूप में स्वीकृत है इसके बाद भी अनेक हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के पक्ष हैं जो कलेवर और सीमा की दृष्टिï से छूट गये हैं।

पाठक जी का जन्‍म 11 जून 1946 को बिलासपुर में हुआ और अध्‍ययन भी बिलासपुर में ही हुआ, डॉ. विनयकुमार पाठक जी नें एम.ए., हिन्‍दी एवं भाषा विज्ञान में दो अलग अलग पी.एच.डी. व हिन्‍दी एवं भाषा विज्ञान में दो अलग अलग डीलिट की उपाधि प्राप्‍त की है. इनके निर्देशन में कई पीएचडी अब तक हो चुके हैं. इनको लेखन के लिए प्रेरणा इनके बड़े भाई डॉ. विमल पाठक से मिली है । डॉ. विनय कुमार को इनके पी.एच.डी. एवं डी. लिट प्राप्‍त करने से साहित्‍यजगत में राष्‍ट्रव्‍यापी ख्याति प्राप्‍त हुई। 
पाठक जी छत्तीसगढ़ी और हिन्दी, दोनों में लिखते हैं। इनकी कृतियां हैं - छत्तीसगढ़ी में कविता व लोक कथा, छत्‍तीसगढ़ी साहित्‍य और साहित्‍यकार, बृजलाल शुक्‍ल व कपिलनाथ कश्‍यप - व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व(दोनो अलग अलग ग्रंथ), स्‍केच शाखा (जीवनी), खण्डकाव्य - सीता के दुख तथा छत्तीसगढ़ी साहित्य और साहित्यकार संस्मरण जीवनी, आदि लगभग 70 ग्रंथ के अलावा इन्‍होंनें अनेक निबंध लिखे हैं। इनकी छत्तीसगढ़ी लोक कथा (1970 ) छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (2000 ) बहुत ही महत्वपूर्ण है। पाठक जी ने राष्‍ट्रीय एवं अतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर अनेकों शोध पत्र पढें हैं. छत्‍तीसगढ़ी भाषा साहित्‍य एवं संस्‍कृति को अकादमिक ढंग से स्‍थापित करने के परिपेक्ष्‍य में शताधिक साहित्तिक, सांस्‍कृतिक व सामाजिक संस्‍थाओं से उन्‍हें लोकभाषा शिखर सम्मान सहित सम्मान और पुरस्कार मिले है।पाठक जी प्रदेश के शिखर शोध निदेशक हैं, इन्‍होंनें दो दर्जन शोधार्थियों को छत्‍तीसगढ़ी भाषा/साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में पी.एच.डी. करवाया है. रांची विश्‍वविद्यालय से इनके स्‍वयं के व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व में शोधार्थियों द्वारा डी.लिट. किया जा चुका है.  
संप्रति - शासकीय कन्‍या स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय, बिलासपुर में हिन्‍दी के विभागाध्‍यक्ष.

संपर्क : डॉ. विनय कुमार पाठक
निदेशक प्रयास प्रकाशन
सी 62, अज्ञेय नगर
बिलासपुर
मेरे ध्‍यान में आदरणीय डॉ. विनय कुमार पाठक की अधिकतम समीक्षात्‍मक लंबी हिन्‍दी गद्य रचनांए ही हैं जिनके अंशों को अवसर मिलने पर यहां प्रस्‍तुत करने का प्रयास करूंगा. आज उनके जन्‍म दिन पर उन्‍हें शुभकामना देते हुए उनके द्वारा रचित यह छत्‍तीसगढ़ी गीत प्रस्‍तुत कर रहा हूं -
जिहॉं जाबे पाबे, बिपत के छांव रे
हिरदे जुडा ले आजा मोर गॉंव रे .
खेत म बसे हवै करा के तान
झुमरत हावै रे ठाढ़े-ठाढ़े धान.
हिरदे ल चीरथे रे मया के बान
जिनगी के आस हे रामे भगवान .
पिपर कस सुख के परथे छांव रे
हिरदे जुडा़ ले, आजा मोर गांव रे.
इंहा के मनखे मन करथे बड़ बूता
दाई मन दगदग ले पहिरे हें सूता.
किसान अउ गौंटिया, हावय रे पोठ
घी-दही-दूध पावत, सब्‍बे रे रोठ.
लेबना ला खांव के ओमा नहांव रे
हिरदे जुडा़ ले, आजा मोर गांव रे.
हवा हर उछाह के महमहई बगराथे
नदिया हर गाना के धुन ला सुनाथे.
सुरूज हर देथे, गियान के अंजोर
दुख ला भगाथे, सुघ्‍घर वंदा मोर.
तरई कस भाग चमकय, का बतावौं रे
हिरदे जुडा़ ले, आजा मोर गांव रे.
मेहनत अउ जांगर जिहां हे बिसवास
उघरा तन, उघरा मन, हावै जिहां आस.
खेत म चूहत पछीना के किरिया
सीता कस हावै, इंहां के तिरिया.
ऐंच-पेंच जानै ना, जानैं कुछ दांव रे
हिरदे जुडा़ ले, आजा मोर गांव रे.

email : rajkumarsoni55@gmail.com 
My blog's
http://khabarlok.blogspot.com
http://sathi.mywebdunia.com

आगे बढ़ते चलो ...!




- राजकुमार सोनी

    पश्चिम के प्रसिद्ध विचारक इमर्सन का कथन है -  'मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वहीं स्वर्ग बना लूँगा।Ó इमर्सन के पास नरक को स्वर्ग में बदलने का नुस्खा था। बड़ा अद्भुत और अजब हैं यह विचारों से बना है। एक को गिलास आधा खाली दिखाई देता है और दूसरे को आधा भरा। पहले की थिकिंग निगेटिव है और दूसरे की समझ पोजिटिव है। गिलास तो जैसा है वैसा ही है। उसके प्रति हमारे विचार हमारी जीवन शैली और विचार शक्ति को प्रकट करते हैं। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा बनता है- यदि प्रयत्न ठीक दिशा में करता रहे। सोच और विचार स्वर्ग को नरक बना सकते हैं तो नरक को स्वर्ग में बदल सकते हैं।
    विचारों की विकृति ही दुर्भाग्य है एवं विचारों की सुकृति ही सौभाग्य है। सच तो यह है कि मनुष्य के भाग्य का निर्माण करता है। बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त है कि विचारों के माध्यम से स्वयं मनुष्य अपना भाग्य लिखा करता है। एक सामान्य सिपाही नेपोलियन बोनापार्ट बन जाता है। गरीब फोर्ड संसार का शीर्षस्थ धनपति बन जाता है। शक्ल से भद्दा (कुरूप) सामान्य वकील अमेरिका का राष्टï्रपति बनता है। विचारों की परिणति ही का दूसरा नाम भाग्य है और इसका विधायक मनुष्य स्वयं ही है।
    अपने भाग्य का निर्माता होने पर भी मनुष्य अपनी वैचारिक त्रुटियों के कारण ही दुर्भाग्य का शिकार बनता है क्योंकि वैचारिक विकृति अपने को क्षुद्र, तुच्छ एवं हेय मानने से ही आरंभ होती है। उसके व्यक्तित्व पर उसके विचार हावी हो जाते हैं और जन-जन को यह जानकारी देते रहते हैं कि यह व्यक्ति निराशावादी तथा गिरे हुए विचारों का है। अत: हम अपने को जिस प्रकार का बनाना चाहते हैं, उसी प्रकार के विचारों का सृजन हमें करना चाहिए। विचारों का प्रभाव निश्चित रूप से आचरण पर पड़ता है। हमारे आचरण हमारे विचारों का क्रियात्मक रूप है जिस दिशा में विचार चलते हैं हमारे शरीर और उसकी क्रियायें भी उसी दिशा में गतिशील हो जाती हैं। यही कारण है कि सभी मनुष्यों को विचार, बुद्धि और विवेक प्राप्त होने पर भी किसी का झुकाव विज्ञान की ओर होता है तो कोई व्यापार की तरफ झुकता है।
    यदि ऊँचे उठने, आगे बढऩे और सफलता प्राप्त करने का लक्ष्य हो तो अपने विचारों को भी वैसा ही विकसित करना चाहिए। यदि जीवन में सफलता, समाज में प्रतिष्ठïा और आत्मा में संतोष प्राप्त करना है तो  सबसे पहले विचारों, भावनाओं और चिन्तन को आशावादी और उदार बनाना चाहिए। हमें विचार शक्ति के महत्व को जानकर जीवन में ढालना चाहिए। अस्त-व्यस्त विचारों के कारण बहुधा लोगों को दुखी होते देखा जा सकता है। काल्पनिक चिंतायें उन्हें घेरे रहती हैं। विचारों पर नियंत्रण न कर पाने से ही अनचाही अनपेक्षित दिशाओं में हमारे विचार भटकते रहते हैं। अस्थिर चित्त से कोई काम भली-भांति सम्पन्न नहीं किया जा सकता है।
    हमें उपयोगी और आशावादी विचारों को विकसित एवं स्थापित करना चाहिए। हमें अभ्यास से अपने विचारों को साधना चाहिए। पर अपनी सीमा भी जानें। संसार में सभी वस्तुएं, सफलताएं सभी को नहीं मिल पाती हैं। शिव-संकल्प कर आगे बढ़े भगवान पर भरोसा रखें। सफलता आपके चरण चूमेगी। असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में ही पाया जाता है। शिव संकल्प कल्याण मार्ग की तरफ आपको चलाता है - बढ़ाता है और लक्ष्य पर पहुंचाता है।

शनिवार, 12 मई 2012

हिन्दी नवगीत आंदोलन में ग्वालियर का योगदान


-  राजकुमार सोनी

    'नवगीत न सिर्फ नयेपन की तलाश है और न कोई कविता का नया संस्करण है, अपितु यह एक स्वतंत्र विधा है। इसका सर्वप्रथम नामोल्लेख फरवरी 1958 में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के 'गीतांगिनी नामक काव्य-संग्रह में मिलता है। इस संग्रह के गीत अनेक वर्गों में विभक्त हैं और उनका विभाजन अवैज्ञानिक है परन्तु इन गीतों को दिया जाने वाला नाम 'नवगीत पर्याप्त लोकप्रिय हो गया। यद्यपि उस समय कवि ने यह नाम छायावादी और छायावादोत्तर गीतों से अपने काव्य को पृथकता देने के लिए अपनाया था, किन्तु जल्दी ही यह स्पष्टï हो गया कि 'नवगीत एक नई विधा है जो लोक चेतना, लोक संस्कृति, जातीय संस्कार और जातीय सौन्दर्य बोध से जुडऩे की अपनी निजी विशेषता के आधार पर विकसित हुई है।
    नवगीत विधा मानस-हृदय के संवेगों को व्यक्त करने की आकुलता का परिणाम है। जब जब मानव अपने मन में सुख-दुख, राग-विराग की संवेदना को व्यक्त करने के लिए बेचैन हुआ, तब-तब गीत का जन्म हुआ। नवगीत इसी प्रकार की एक कड़ी है। नवगीत के आंदोलन में ग्वालियर के साहित्यकारों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। नवगीत आंदोलन में ग्वालियर के साहित्यकारों ने एक नई ऊर्जा प्रदान की जिससे नवगीत विधा का सृजन व संवर्धन खूब हुआ।
    जब मानव - मन किसी सौन्दर्य के खण्ड से, किसी राग के बोध से अथवा किसी सत्य के कोण से छू जाता है, वहीं गीत की भूमि होती है। लोक जीवन के रस से सिंचित होने का प्रयास नवगीत में ही दिखाई देता है। यही इनका महत्व है।
    राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के पाँच तत्वों का उल्लेख किया है - जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति तत्व और परिसंचय।
    डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत की परिभाषा करते हुए लिखा है - 'नवीन पद्धति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भाव-सरणियों को अभिव्यक्त करने वाले गीत जब भी और जिस युग में लिखे जाएंगे, नवगीत कहलाएंगे।Ó
    एक ओर जहाँ बालस्वरूप 'राहीÓ ने आधुनिकता को नवगीत की अनिवार्य शर्त माना है वहीं रवीन्द्र 'भ्रमरÓ ने उसमें हार्दिकता तथा अनुभूति की प्रधानता को आवश्यक माना है। नवगीत की रचनाओं का एक विहंगम पर्यावलोकन यह सिद्ध कर देता है कि उनमें लोकोन्मुखता का भाव अत्यन्त प्रबल है। इसी विशेषता ने नवगीत के स्वरूप को सजाया-संवारा है और उसे एक नई विधा के रूप में प्रतिष्ठिïत किया है।
    एक ओर जहां धर्मवीर भारती, शंभुनाथसिंह, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, ठाकुर प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, राजेन्द्र प्रसाद सिंह तथा चंद्रदेव सिंह आदि साहित्यकारों ने नवगीत विधा को ख्याति दिलाई वहीं दूसरी ओर ग्वालियर के वीरेन्द्र मिश्र, आनंद मिश्र, मुकुटबिहारी सरोज, प्रकाश दीक्षित, डॉ. पूनमचन्द्र तिवारी, महेश अनघ, रामप्रकाश अनुरागी, राजकुमारी रश्मि, डॉ. अन्नपूर्णा भदौरिया, परशुरामशुक्ल विरही, विद्यानंदन राजीव, ओमप्रभाकर , दामोदरदास शर्मा, शत्रुघ्न दुबे आदि ने नवगीत आंदोलन में जबरजस्त भूमिका निभाई।
    वीरेन्द्र मिश्र का नाम नवगीत काव्यान्दोलन के प्रवर्तकों में से एक है। नवगीत का एक काव्यधारा के रूप में विकास छठवें दशक में हुआ था और यह एक प्रकार से नयी कविता की बौद्धिक गद्यात्मकता के विरुद्ध रागधर्मी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया। इस आंदोलन ने गीत को पारंपरिक रूमानी और कल्पनाशील ढांचे से अलग करके उसे जीवन के वस्तुगत अनुभवों से जोडऩे की कोशिश की। वीरेन्द्र मिश्र के गीतों में प्रारंभ से ही नव्यता और समकालीनता के तत्व थे और उनकी सुदीर्घ काव्ययात्रा के बाद अब इन्हें स्पष्टï पहचान मिल चुकी है। उनके गीतों में एक मोहक अल्हड़ता है, जो झरनों जैसी गतिशील, तितलियों जैसी रंगीन और मलयवायु जैसी गंधमाती है।
    'मेरा देशÓ और 'नया एशियाÓ जैसी लोकप्रिय कविताओं में उनके युद्धविरोधी स्वर बहुत स्पष्टï हैं। 'पंख और पांखुरीÓ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने अपनी इस गीतधर्मिता का कारण बताते हुए कहा है - गीतधर्मिता का छायानट आम आदमी के अधिक निकट है, यद्यपि उसकी अभिव्यक्ति कठिन है। इसी कठिन अभिव्यक्ति को ग्रहण करने के लिए बिखरे हुए सही श्रोता और सही पाठक जब एकात्म हो जाते हैं, गीत की कलात्मक शक्ति स्पष्टï हो जाती है। मैं इसी दृष्टिï से लेखन करता हूँँ तथा भाषा को कथ्य के अनुरूप ढालते हुए सस्वर हो जाता हूँ। उन्होंने लिखा कि - 'नित नये वैज्ञानिक उपकरणों के इस बदलते युग में, शब्द का अस्तित्व तो रहेगा, लेकिन मुद्रित रूप में नहीं। संभवत: उसकी अभिव्यक्ति मंच और संगीत की दिशा में जोरों से होने लगेगी। तब नवगीत ही प्रमुख होगा - स्वभावत: अधिक कलात्मक, अधिक भारतीय और अधिक यथार्थवादी।Ó उनके प्रमुख काव्य संग्रह गीतम, लेखनी बेला, अविराम चल मधुवंती, झुलसा है छायानट धूप में, धरती गीताम्बरा, शान्ति गंधर्व, कांपती बांसुरी काफी लोकप्रिय रहे।
    इसी तरह आनंद मिश्र ने नवगीत आंदोलन में महती भूमिका निभाई। इनका मात्र 18 वर्ष की आयु में ही पहला कविता संग्रह 'साधनाÓ (1952) में प्रकाशित हुआ और पुरस्कृत होकर काफी चर्चित रहा।
    आनंदजी शास्त्रीय धारा कवि थे और प्रबंध लेखन के प्रति उनका गहरा लगाव था। यह इसलिए आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि जिन दशकों में उन्होंने काव्यलेखन किया, वह नई कविता की प्रमुखता वाले दशक थे और लम्बी कविताएं या इतिवृत्तात्मक लेखन चलन में नहीं रह गए थे। ओज और प्रसाद आनंद जी की कविता के सहज गुण हैं। उनकी भाषा प्रांजल है, शब्द की गति और शक्ति पर उनका अनूठा अधिकार है।
    कला अभिलाषा की अभिव्यक्ति कला सुषमा की शिव-आसक्ति
    कला जग के अभाव का भाव,सत्य का रसमय जीवन-द्राव
    असुन्दर की सुन्दर प्रतिमूर्ति, कला जड़ता की चेतन-पूर्ति
    परिधियों में आनंद अनंत विजन वन का चिरकाल बसंत।

     हालांकि मुकुटबिहारी सरोज ने नवगीत आंदोलन से अपने को कतई संबद्ध नहीं किया, लेकिन उनके गीतों का कथ्य और उनका शिल्प-गीतकाव्य के तमाम प्रचलित ढांचों से अलग है। आपने ग्वालियर के नव हस्ताक्षरों को नवगीत लिखने की प्रेरणा दी तथा उन्हें प्रोत्साहित किया। इसी तरह विद्यानंदन राजीव नवगीत काव्य-धारा के एक समर्थ हस्ताक्षर हैं, जिनकी रचनायें सशक्त व बेजोड़ हैं। उनके गीतों का संकलन 'छीजता आकाशÓ कार्फी चर्चित रहा। राजीव जी प्रारंभ से ही एक प्रतिबद्ध गीतकार हैं, उनकी गीतयात्रा के तीन सोपान हैं - प्रथम सौन्दर्यमूलक गीतों का रचनाकाल जिनका केन्द्रीय रस श्रृंगार था, द्वितीय मानव और मानवेतर प्रकृति के समन्वय को ध्वनित करने वाले गीतों की रचना का काल और तृतीय यथार्थ और समकालीन बोध से उत्फुल्ल होने वाली सिसृच्छा से उद्भूत गीतों का रचनाकाल। गीतकाव्य के भाषा प्रयोगों में परिवर्तन, यथार्थवादी कथ्य और गीतों के रूप-विन्यास में आने वाले बदलाव को राजीव जी गीतधारा पर नयी कविता के प्रभाव के रूप में देखते हैं।
    'छीजता आकाशÓ की भूमिका में राजीव जी ने लिखा है - 'आज के गीत में कथ्य के स्तर पर नयापन देखा जा सकता है। प्रकृति-चित्रण, मानवीय-प्रेम जैसे परंपरागत प्रसंगों में वायवी कल्पना के स्थान पर यथार्थ-अनुभूति देखी गई है। मध्यवर्गीय संत्रास, निम्नवर्ग की रूढिय़ां और पीड़ा, जीवन के विभिन्न स्तरों पर बिखराव, परिवार का विघटन, समाज और मानव संबंधों जैसे अनेक विषयों को गीत ने जिस कुशलता और सहजता के साथ प्रस्तुत किया है, वह अभूतपूर्व है। संक्षेप में हम यह स्वीकार करते हैं कि आज का गीत, पूर्व की अपेक्षा, जीवन के अधिक निकट है। उसमें अनुभूति की व्यापकता और विविधता है।Ó
    नवगीत आंदोलन ने गीत के कथ्यात्मक कलेवर को ही नहीं बदला, बल्कि उसके छान्दिक विन्यास में भी अनेक परिवर्तन किए हैं। नवगीत का संरचनात्मक शिल्प पारंपरिक गीतों से बहुत भिन्न है। इस ओर संकेत करते हुए राजीव जी अपने गीतों के संबंध में लिखते हैं - 'गीतों के रूप-विन्यास अथवा शिल्प में भी एक उल्लेखनीय बदलाव आया है। इस प्रसंग में गीत, छन्द की परिपाटी को तोडऩे का प्रयास करता रहा है। यदि कहीं छंद भी है तो वह नवीन और लघु है, अथवा लय को ही महत्व दिया गया है। इस परिवर्तन से ही गीत में भावों की अन्विति को बल मिला है। गीत भाषा के लिए कर्णप्रिय छंद, कोमलकान्त पदावली और अनुप्रास की भरमार का युग अब नहीं रहा।Ó
    1948 के बाद जब हिन्दी काव्य में प्रगतिशील व प्रयोगवादी काव्यधारायें अधिक प्रबल होती हुई और निराला के अतुकांत से प्रभावित होकर जनमानस तक पहुँँची उस समय गीतात्मक काव्य धारा की एक बार फिर से ललक कवियों के मन में आई और दो धारायें साफ सामने आने लगीं, एक गीत विधा की और दूसरी छन्दहीन अतुकान्त धारा की; जिसमें लय तो थी, वस्तु भी थी परन्तु रागात्मकता न होने के कारण मन को छूने वाली वह अनुभूतिजन्य गहराई न थी। परिणाम यह हुआ कि 1954 में नई कविता के आगमन के साथ गीतों की परंपरा तेजी से उभरी और उसमें नीरज जी, नेपाली, सोम ठाकुर, महादेवी वर्मा, विद्यावतची कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा आदि की गीतात्मक रचनायें देशभर में सुनीं गई, सराही गईं। गीत में लय है, छन्द है, राग है और शब्द विन्यास में एक विशेष सुगन्ध है। उसकी अपनी शब्द सीमा है, उसमें रहस्य और सांस्कृतिक परंपरायें पूर्ववत कही जा सकती हैं। 1954 के बाद अब समकालीन कविता तक यह गीत विधा विशेषकर नवगीत विधा अतुकान्त से बहुत आगे बढ़कर सुनी जा रही है।
    1964 में नवगीत का पहला समवेत संकलन 'कविता - 64Ó प्रकाशित हुआ था। ओमप्रभाकर उसके संपादकों में से एक थे, इस तरह से वह इस आंदोलन के प्रारंभकर्ताओं में से एक हैं। नवगीत के संबंध में उनकी मान्यता है - 'नवगीत नयी कविता की प्रतिक्रिया नहीं है। अत: स्पष्टï है कि वह नयी कविता का विरोधी भी नहीं है। साहित्य-विधाएं परस्पर विरोधी कभी नहीं होतीं। विरोध प्रवृत्तियों में होता है, विधाओं में नहीं। नयी कविता और नवगीत में विधागत भेद तो है ही, शिल्पगत और कथ्यगत भेद भी है।
    वह सब कुछ गद्यात्मकता, दुरूहता, आधुनिकता के नाम पर समसामयिकता, बल्कि क्षणिकता, छंदहीनता या छांदिक अज्ञान के कारण छंदमुक्ति, विदेशी अंधानुकरण, आरोपित नवीनता, जाली और घिसे हुए बिम्ब-प्रतीक, नकली और थर्र्डहैण्ड अनुभूति, अति प्रचलित भाषा जो नयी कविता में है, नवगीत में नहीं है, बल्कि है लय, एक बदली हुई काव्योचित लय, सहजता, जातीय संस्कृति,भावोद्भूत और ताजगीपूर्ण बिम्ब-प्रतीक, टटकी भाषा, अभी तक अदृश्य और अस्पृश्य अत: नितान्त सद्य: प्रस्तुत दृश्य और वास्तविक जीवन की गहन अनुभूतियां, युग-संपृक्ति और आज की विषमता और जटिलता के चटकते हुए व्यक्ति के लिए एक सांत्वनाप्रद, सहलाता हुआ आत्मिक स्पर्श।
    डॉ. पूनमचन्द्र तिवारी ने नवगीत आंदोलन में अपनी महती भूमिका निभाई। उनकी रचनायें मर्मस्पशी, हृदयग्राही हैं -
        कहां गई वे कल-कल नदियां नृत्य-विशारद नटखट झरने।
        कहां गई रंगीन तितलियां बनफूलों के गजरे - कंगन।।

    इसी तरह देश के बारे में उन्होंने 1 जुलाई 1974 को अपनी कविता में एक जगह लिखा है -    ये शहर व्यंग्य है, गांव नंगे हुए, जंगलों में टहलती हैं चिनगारियां
        संसदों में शिखण्डी, पहुंचने लगे देश फिर तोडऩे की हैं तैयारियां।।
        घोंसला अधबना, हर दिशा में लपट नाम खुशियों ने अब तक पुकारा नहीं
        खण्डहर खांसते, नींव टूटी पड़ी रीढ़ दुखती हुई है, वही की वहीं।

एक अदभुत रचना की पंक्तियां देखिये -
        छोड़ गई चिडिय़ा बहुरंगी पंख, क्यों मेरे लिए, मैं हैरान हूँ
        छोड़ नई नदिया, रेती में शंख, क्यों मेरे लिए, मैं अनजान हूँ।।

(आकाशवाणी, ग्वालियर से प्रसारित)

                
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संगीत समयसार


 -   राजकुमार सोनी

मनुष्य की विभिन्न स्वाभाविक प्रवृत्तियों में संगीत भी सहज व्यापार है। उमड़ी भावनाओं के आवेग के वशीभूत हो वह उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये आतुर हो उठता है। भावों के उद्वेग के अनुसार ही उसके स्वरों में उतार-चढ़ाव आ जाता है और तब वह उनहीं स्वर लहरियों के सहारे पनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर व्याकुल हृदय को शान्त करने का प्रयत्न करता है। यहीं संगीत का जन्म होता है। यह संगीत अभिव्यक्ति का सशक्त व सक्षम माध्यम है।
"Unspecied but deep feelings unexpressive through language belong to the realme of sure music."
भावार्थ - अनिश्चित किन्तु गहरी भावनायें जो भाषा के माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकती वे विशुद्ध संगीत से संबंद्ध होती हैं। दूसरे शब्दों में जो भावनायें भाषा / काव्य के द्वारा व्यक्त नहीं हो सकती वे संगीत का सहारा लेकर अभिव्यक्त हो सकती हैं। क्योंकि संगीत हृदय और आत्मा से स्फुरित होता है।
    परमात्व तत्व के प्राप्ति साधन के रूप में गान को ही सर्वश्रेष्ठï बनाया गया है। पूजा से कोटि गुणा स्तोत्र, स्तोत्र से कोटि गुणा जाप, जाप से कोटिगुणा श्रेष्ठïतर है गान और गान से परे (श्रेष्ठï) कुछ नहीं।
        ''पूजा कोटिगुणं स्तोत्र, स्तोत्र कोटिगुणो जाप:।
        जपात्कोटि गुणं ज्ञानं, गानात पर तरं नहि॥ÓÓ

मानव जन्म के साथ ही यह संगीत प्रवृत्ति जुड़ी हुई है। अवसर्पिणी काल चक्र के आदि के तीन कालों में मनुष्य किसी प्रकार का कर्म या उद्यम नहीं करता था। उसे अपनी जीवनोपयोगी सब वस्तुएं कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती थीं। इन कल्पवृक्षों में तूर्यांग जाति के वृक्ष के प्रभाव से मनोहर वादियों की प्राप्ति हो जाती थी। उस समय भोगभूमि के जीवों के कान सदा गीतों के सुन्दर शब्दों के सुनने में आसक्त थे। स्वर्गों के देव भी बड़े संगीत प्रिय होते हैं। वहाँ किल्विषिक जाति के देव गायक होते हैं - उनका काम गाना बजाना होता है।
    भगवान तीर्थंकर का जन्म होते ही अपने आप भवनवासी देवों के मंदिरों में शंख-ध्वनि, व्यन्तर देवों के नगाड़ों का बजना, ज्योतिषियों के मंदिरों में सिंहनाद और स्वर्गवासी देवों के मंदिरों में घंटाओं का गंभीर नाद होने लगता है। गंधर्व, नर्तकी आदि सात प्रकार की सेना तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के समय आती हैं। समस्त लोक नगाड़ों, शंखों आदि के मनोहर शब्दों से शब्दायमान हो जाता है और नृत्य तथा गीत सहित देवों का आगमन बड़ा आश्चर्यकारी जान पड़ता है। हा हा, हू, हू, तुम्बर, नाहद, विश्वासु आदि किन्नर जाति के देव पनी स्त्रियों के साथ कर्णों को अतिप्रिय भांति-भांति का गाना गाने लगते हैं। जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है। देवांगनायें हाव-भावों से अति मनोहर श्रृंगार आदि रसों से व्याप्त नाच नाचती हैं।
संगीत एक वरदान है - मधुर ध्वनि तरंगों का अथाह सागर है। यह सागर एक सहज आनंद का स्रोत है जो देवता, दानव, मनुष्य, पशु व पक्षियों को ही नहीं, बल्कि वनस्पति को भी अपने विशाल अंतर में समेट लेता है। कहा जाता है कि - 'उस गीत का महात्म कौन वर्णन कर सकता है जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का एक मात्र साधक है।
        ''तस्य गीतस्य महाडडत्मयं के प्रशंतितुमीशते।
        धर्मार्थ काम मोक्षाणामिदमै वैक साधनमथ् ॥ 30॥

अत: इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संगीत मानवीय स्वात्मज्ञान के विकास का साधन है। समयसार है। संगीत समयसार -
        ''पराशय्र्य पाराशरौ भृगु यमौ संवर्त कात्याना,
        वापस्तम्ब बृहस्पती सुलिखितौ हारीत दसौ मनु:।
        विश्वग्रीव सगौतमौ मुनिवर शशङ्खïोडपि दक्षादय:,
        सर्वे मोक्षदमित्यु शान्ति मुनयो गीतं तदेगोक्तित: ॥ 211॥

अर्थात् - वेदव्यास, पाराशर, भृगु, यम, संवर्त, कात्यायन, आपस्तम्ब, बृहस्पति, सुलिखित, हारित, दक्ष, मनु, विश्वग्रीव, गौतम, मुनिवर शङ्खï और दक्ष इत्यादि सभी मुनियों ने अपनी उक्तियों के द्वारा गीत को मोक्षदायी कहा है।
संङ्गïीत चूड़ामणि में कहा गया है -
        ''योग ध्यानादिक यस्मात् सर्व लोकानुरञ्जनम।
        तस्मादनन्त फलदं गीतं स्याद मुक्ति मुक्तिदन्॥ 11॥

योग, ध्यान आदि समस्त साधनों की अपेक्षा गीत ही अनंत फल देने वाला है और भक्ति मुक्तिदायक है।
पं. रविशंकर -The highest aim of our music is to reveal the essence of the univeres it reflects and the ragas are among the means by which this essenes can be rehevided. Thus through the music are can reach God. 

भावार्थ - हमारे संगीत का उच्चतम लक्ष्य समस्त विश्व के सार को अभिव्यक्त करना है जिसे वह प्रतिबिम्बित करता है। संगीत द्वारा परमात्व पद तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन संगीत चाहे गायन हो अथवा वादन, अपनी प्रकृति के अनुसार अध्यात्मिक ही होता है, क्योंकि इसका निर्माण और आस्वादन मनुष्य की आत्मा ही करती है।
सहज स्वाभाविकता संगीत के विषय में जानने की है -
'संगीत रत्नाकरÓ में संगीत की परिभाषा इस प्रकार की गई है - 'गीत वाद्यं तथा नृत्तं त्रय संगीत मुध्यतेÓ-गीत, वाद्य, और नृत्य तीनों संगीत कहलाते हैं।
संगीत कला के दो सर्जक तत्व हैं - 1. स्वर-राग, 2. लय-ताल। स्वर से रागों का निर्माण होता। सूर्य शब्द का आधार स्वर है। अत: सवर का समबन्ध प्रकाश से माना गया है। इसलिये संगीत का स्वर पक्ष प्रकाश है।
    राग का स्रोत स्वर, स्वर का स्रोत श्रुति (सलक्ष्म नाद), श्रुति का स्रोत नाद और नाद का ध्वनि है। यह ध्वनि ही सर्वजगत का कारण है -
        ''ध्वनियानि: परासेया ध्वनि सर्वस्व कारणम्।
        आक्रान्त ध्वनिता सर्व जगत् स्थावर जङ्गïतम्॥

मंगल ध्वनि ú ही मूल ध्वनि है। यही आदिनाथ है - समस्त मंत्रों का स्वर।
नाद - संगीतोपयोगी ध्वनि को नाद कहा गया है। नाद की उत्पत्ति के बारे में शारदातिकतकै में कहा गया है कि सत, चित्त, आनंद विभूतित्रयी से सम्पन्न प्रजापति से सर्वप्रथम शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। जैन धर्मानुसार आत्मा में अनन्तसुख एवं अनंत शक्ति निहित है। नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है। जैन साहित्य में नाद कला का आकार अर्ध चन्द्रमा के समान है वह सफेद रंग वाली है और बिन्दु काले रंग वाला है।
संगीत रत्नाकर में नाद की उत्पत्ति इस प्रकार बताई है -
        'नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदु:।
        जात: प्राणाग्रि संयोगात्ते: न नादो-मिघीपते॥

अभिप्राय है - नाकर अर्थात् प्राण और दाकर अर्थात् अग्नि इन दोनों के संयोग से नाद उत्पन्न होता है। प्राणत्व का लक्षण गतिशीलता। नाद की उत्पत्ति में कंपन होता है और गतिशीलता होती है। दकार अर्थात् प्रकाश-प्रकाश ज्ञान की स्थिति है। प्रकाश में निहित गुण शक्ति है। तात्पर्य यह है कि 'दÓ में सूर्य, प्रकाश व शक्ति का समन्वय है। और प्रकाश अवस्था में 'सुन्दरमÓ से साक्षात्कार होता है। इस प्रकाश नाद के अन्तर्गत सजीवता, गति, शक्ति एवं प्रकाश (ज्ञान) का समन्वय है।
    नाद का सर्वोच्च उद्गम स्थान ú है। इसे परमात्मा का वाचक माना गया है। नादानुसंधान करते करते अन्त में ओउम् नाद की सिद्धि होती है। यह ओंकार बिन्दु संयुक्त है। बिन्दु सृष्टिï का परम रहस्य है। योगी बिन्दु संयुक्त ओंकार का नित्यमेव ध्यान करते हैं। काम और मोक्ष दोनों की प्राप्ति ओंकार से संभव है - ऐसा प्राचीन आचार्यों का मत है।
नाद के दो भेद हैं - 1. अनाहत 2. आहत  - अनाहत नाद अतिसूक्ष्म होता है। इसकी साधना कठिन है। इसके लिये गहन अवधान अपेक्षित है। यह नाद सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है। इस व्याप्त रूप में वह अनाहत नाद कहा जा सकता है। योगियों ने इस अनाहत नाद का अनुभव वर्णन करते हुए लिखा है कि यह सर्वप्रथम समुद्र गर्जन, मेघ स्तनित, मेरीख और झर्झर ध्वनि के समान सुनाई देता है, मध्य में मर्दन, शंख, घंटा और काहल से उत्पन्न ध्वनि के समान सुनाई देता है और अन्त में किंकणी, वंशी, भ्रमर और वीणा के निक्काण जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। उदाहरणार्थ तीर्थंङ्कïर का जन्म होता है तब अनाह नाद होता है -
        मति श्रुति अवधि विराजित जिन जब जनमियो।
        तिहुँलोक भये क्षोमित, सुरगन मरमियो॥
        कल्पवासि घट घंट, अनाहद वज्जियो।
        ज्योतिष घर हरिनाद, सहज दल गज्जियो॥
        गज्जियो सहनहिं, सङ्गï मावन, भवन सवद सुहावने।
        विंतर निलय पठु परइ वज्जहि, कहत महिमा क्यों बने॥
        कंपित सुरासन अवधि वलजिन, जन्म निहचै जानियो।
        धनराज तव गजराज माया-मयी, निरमय आनियो॥ 
             
 आहत नाद संगीत से संबंधित है और यह 'लोकरञ्जनम् व भवमञ्जनम्Ó दोनों गुण सम्पन्न है। आहतनाद की साधना में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने में अनाहद नाद की सिद्धि होती है। आहतनाद की उत्पत्ति के संबंध में पाणनीय शिक्षा में लिखा है -
'आत्मा बुद्धि से संयोग करते है, मन विवक्षाचीन अर्थों से युक्त होता है। वह व्यापारित मन शरीर स्थित अग्नि पर आघात करता, अग्नि वायु को प्रेरणा देता है। वह मारूत हृदय प्रदेश में उघ्र्व संचरण करता हुआ मंद स्वर (नाद) को जन्म देता है। मारूव से उदीर्ण (उघ्र्वक्षिपृ) वह मंद स्वर मूर्घ प्रदेश में अमिहित होता है और मुख्य यंत्र का अंतर्वर्ती होकर वर्णों (गाने की विविध क्रियाओं) का प्रसून करता है।
    नादोत्पत्ति का यह मार्ग नाद को स्फोट रूप प्रदान करता है, उसकी उच्चारणवस्था एवं श्रुतलम्य ध्वनि का निर्वाचन करता है। अब यदि इसकी वितोम गति पर विचार करें तो नाद के पीछे चलते हुए आत्मा के समीप पहुंच जाएंगे। यही नादोपसता का चरम प्रयोजन है।
'नाद ही संगीत कला का स्रोत है। गीत, वाद्य और नृत्य तीनों ही नादात्मक है।
        ''ननादेन बिना गीतं न नादेन बिना स्वर:।
        न नादेन बिना सानं न नादेन बिना शिव:॥

भावार्थ - न नाद के बिना वर की उत्पत्ति संभव बै, न नाद के बिना गीत रचना संभव है, न नाद के बिना ज्ञान प्राप्त हो सकता है और न नाद के बिना कल्याण की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार स्वर और गीत के माध्यम 'नाद से ही ज्ञान अर्थात् 'सत्यम् की प्राप्ति होती है। नाद से कल्याण 'शिवम की प्राप्ति होती है। नाद स्वयंमेव सुन्दर ध्वनि है। अत: नाद में सत्यम् शिवम सुन्दरम् का समन्वय है।
    आचार्य श्री विद्यानन्दजी के शब्दों में - नाद को आत्मनुसंधान सहायक निरूपित किया है। नाद की आरम्भिक साधना में शब्द, गीत, लय, ताल, वाद्य-यन्त्रादि की अपेक्षा की जाती है, परन्तु पाद के इस स्थूल रूप से सूक्ष्म की ओर प्रत्यावर्तन करते-करते शब्दादि का परिधान निष्प्रयोजन हो जाता है। तब यह नाद निग्र्रन्थ थवा दिगम्बर यथाजात रूप घर हो जाता है। शिशिर ऋतु में वृक्षों के पत्तों के समान इसके बाह्यï उपकरण मर जाते हैं, शब्द समुच्चय की निर्जरा हो जाती है और शुद्ध नाद 'ओउमÓ शेष रह जाता है। इस अवस्था में सम्पूर्ण परिसमों का अन्त होकर विशुद्ध स्व-समय की प्राप्ति हो जाती है। यहाँ आने पर संगीत या नादोपासना समयसार का सार्थक विशेषण अर्जित करती है। आत्मानुसंधान और आत्म तत्व की प्राप्ति ही तो परम उपलब्धि है।               

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ग्वालियर गौरव गाथा






- राजकुमार सोनी

    ग्वालियर-विभूति की धरती-सहस्त्रों वर्षों से आत्मकल्याण का सन्देश देती रही है। इसकी पावन धरती पर एक ऐसे महान व्यक्तित्व की पवित्र भावना का तेज पुञ्ज है जो युगों-युगों तक शाश्वत सत्य बनकर असत् पर सत्य की सत्ता, हिंसा पर अहिंसा और प्रेम की विजय स्थापित कर प्राणीमात्र के आत्मोत्थान के लिये प्रकाश स्तंभ की भाँति दिशा निर्देशन करता रहेगी। ऐसी महान विभूति थे - 'सुप्रतिष्ठिïत केवलीÓ जिन्होंने गोपाचल (ग्वालियर) पर महाभारत से पूर्व इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीर्थकाल में निर्वाण प्राप्त किया था।
   'श्री गोपाचल से सुप्रतिष्ठिïत केवली मोक्ष गए हैं सो यह निर्वाण भूमि है।Ó
- 'शौरीपुर पट्टïावली-लवेंचू इतिहासÓ , पं. झम्मनलाल तर्कतीर्थ।

    एक बार शौर्यपुर के उद्यान में सुप्रतिष्ठिïत मुनिराज जन प्रतिमायोग से ध्यानारूढ़ थे तब एक यक्ष ने उनके ऊपर भयानक उपसर्ग किये। किन्तु मुनिराज ध्यान में अचल रहे और उन भयानक उपसर्गों के बीच उनके मन की शांति और समता भाव तनिक भी भंग नहीं हुये। आत्मा में स्थिर रहकर संचित कर्मों का शुक्ल ध्यान द्वारा क्षय करते रहे। वे श्रेणी आरोहण करके उस स्थिति को प्राप्त हो गये जहाँ ध्यान और ध्येय, चैतन्य भाव, चैतन्य कर्म और चैतन्य की क्रिया अभिन्न एकाकार हो जाती है। उसी समय उन्होंने ज्ञानावरणी, दर्शनावणी, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का विनाश कर दिया। तब उनकी आत्मा विशुद्ध केवल ज्ञान की अनन्त आभा से आलौकित हो उठी। उसी समय चारों निकाय के देव और इन्द्र सुप्रतिष्ठिïत केवली भगवान की वन्दना और पूजा कर यथास्थान बैठ गये। तभी भगवान का उपदेश हुआ।
    सुप्रतिष्ठिïत केवली के उपदेश सुनकर शौर्यपुर नरेश अन्धकवृष्णि के मन में सांसारिक भोगों से विरक्ति हो गई। उसने शौर्यपुर का राज्य अपने पुत्र समुद्रविजय को देकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। इन्ही सुप्रतिष्ठिïत केवली का निर्वाण गोपाचल (ग्वालियर) पर हुआ। इस कारण यह सुप्रतिष्ठिïत निर्वाण क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ। आचार्य पूज्यपाद (देवनंदि) ने जिन निर्वाण क्षेत्रों के नाम बताये हैं उनमें सुप्रतिष्ठिïत निर्वाण क्षेत्र भी एक है।
गोपाद्रौ देवपत्तने -
    ''विक्रमादित्य राज्येऽस्मिश्चतुर्दयरेशते।
    नवषष्ठïयायुते किनु गोपाद्रौ देवपत्तने॥ÓÓ

    वीरेन्द्रदेव ग्वालियर के तोमर राजा (सन् 1402 -1423) थे। कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्व प्रदीपिका की एक प्रतिलिपि वीरमेन्द्रदेव के राज्यकाल में सन् 1412 ई. में की गई थी। उक्त टीका के प्रतिलिपिकार ने उनके गढ़ गोपाचल को देवपत्तन कहा है।
                                                                                                                  - डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी।
    तीर्थमालाओं में ग्वालियर का उल्लेख प्रसिद्ध जैन तीर्थ के रूप में किया गया है जो बावनगजा तीर्थ क्षेत्र से प्रसिद्ध रहा है -
    ''गोपाचल जिनथान बावनगजा महिमावर।
    भविक जीव आधार जन्म कोटि पातक हर॥
    जेसुमिरे दिनरात तास पातक सवि नाशे।
    विघन सदा विघटित सुख आवे सवि पाशे॥
    बावनगजा महिमाघणी सुरनर वर पूजा करे।
    ब्रह्मïज्ञानसागर वदति जे दीठे पातक हरे॥ÓÓ

        - सर्वतीर्थ वन्दना - ज्ञानासागर ईसा की 16 वी 17 वीं सदी।
    इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ग्वालियर जैनियों के लिये देवपत्तन था और इसकी गणना जैन तीर्थों में की जाती थी।
    अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइघू (विक्रम की 15 वीं शताब्दी का पूर्वाध) ने पासणाह चरिउ में लिखा है -
    'जहि सहहिणिरंतर जिणणिणेव। पंडुर सुवण्ण धमयड-समेयÓ
    भावार्थ - जहाँ पंाडुर एवं सुवर्ण वाली अनेक पताकाओं से युक्त जिन मंदिर शोभायमान रहते हैं।
    'सम्मतगुणणियुण कव्वÓ ग्रंथ में उक्त कवि ने ग्वालियर नगर प्रसंग में लिखा है - उसने (राजा डूंगर सिंह ने) अगणित जैन मूर्तियों का निर्माण कराया था जिन्हें ब्रह्मïा भी गिनने में असमर्थ हैं।
    यह ऐतिहासिक सत्य है कि तोमरवंश के राजा डूंगरसिंह ने विक्रम सम्वत् 1481 में राज्य संभाला। उसी समय से ग्वालियर किले के पहाड़ की चट्टïानों में अनेकों जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने का कार्य प्रारंभ हुआ जो उसके पुत्र कीर्तिसिंह के काल तक चला। ये कला एवं पुरातात्विक दृष्टिï से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
    गोपाचल का नाम आते ही हिन्दी के कवि केशवदास की 'कवि प्रियाÓ (सन् 1600-1601) की निम्न पंक्तियां मस्तिष्क में गूँज उठती हैं :-
    'आछे आछे वसन, असन, वसु, वासु पसु ,
    दान, सनमान, यान, वाहन वखानिये।
    लोग, भोग, योग, भाग, बाग, राग, रूपयुक्त,
    भूषननि, भाषित, सुभाषा मुख जानिये।Ó
    सातो पुरी, तीरथ, सरित सव गंगादिक,
    केशोदास पूरण पुराण गुन जानिये।
    गोपाचल ऐसे गढ़ राजा रामसिंह जू से,
    देशनि की मणि, महि मध्य प्रदेश मानिये।

    केशवदास ने मध्यप्रदेश को देशों का मणि कहा है इसके निवासियों के मुख में सुभाषा का वास बतलाया है। मध्यप्रदेश के अन्तर्गत बुन्देला रामसिंह का राज्य है और गोपाचल जैसा गढ़ है और पुण्य तीर्थराज गढ़ गोपाचल तीर्थराज की मणिमाला का मणि है।

प्राचीनता
    मध्यभारत भारत-भूमि का हृदय स्थल है, तथा ग्वालियर उस मध्यभारत का पुण्य तीर्थराज है। शताब्दियों से यह भूमि इतिहास, कला, संस्कृति एवं साहित्य की क्रीड़ा भूमि रही है। विद्वत जनों ने अपने कार्यकलापों एवं कृतियों से इस तीर्थराज को अपने आपको समर्पित किया है। ग्वालियर का इतिहास अति प्राचीन है -
    'इतिहास जैनागम विषे, इस दुर्ग को सम्मान से।
    देखा गया अति प्रेम से, प्राचीनतम युगकाल से॥Ó

                                                                                    - ग्वालियर का अतीत : पं. छोटेलाल वरैया।
ग्वालियर दुर्ग की प्राचीनता के संबंध में आख्यान मिलते हैं :-
    'पुण्य नक्षत्र जोग शुभ लियो। तेरस सकल ठाठ विधि कियो।।
    तिहि विधि सकल वेद विधि ठई, तबै नींव गोपाचल दई॥
    द्वापर अंत जु कलियुग आदि, संवत धरयो महूरत साधि॥
    धर्म जुधिष्ठिïर संवत, लह्यïो, आदि ग्रंथ में ते मैं कहयो॥Ó

    - गोपाचल आख्यान - खड्गराय।
    द्वापर के द्वय मास रहे, पुनि प्रवेश कलिकाल।
    सो संवत् मिति जानियो, गढ़ की नींव मुवाल॥

        - (गोपाचल आख्यान - नाना कवि)
लेकिन इससे भी आगे -
    श्री रमाकान्त चतुर्वेदी संग्रहालयाध्यक्ष नगर निगम संग्रहालय, ग्वालियर ने सन् 1987 में प्रकाशित 'शताब्दीÓ नगरपालिका निगम ग्वालियर में  'ग्वालियर पुराख्यानÓ लेख में लिखा है - '12 वर्ष बीत गये यह खोज किये हुये तथा अन्तर राष्टï्रीय पुरातत्व जगत में यह मान्यता प्रदत्त कराते हुये कि ग्वालियर में मानव संस्कृति आज से पाँच लाख वर्ष पूर्व विद्यमान थी।Ó
    लेकिन इस बात का दु:ख है कि आज भी जितने इतिहास परक ग्रंथ लिखे जा रहे हैं अथवा विद्वानों द्वारा यत्र-तत्र लेख लिखे जा रहे हैं, उनमें ग्वालियर का इतिहास अथवा सभ्यता की प्राचीनता को केवल 1400 वर्ष प्राचीन निरुपित किया जा रहा है। इसे ज्ञान शून्यता कहा जाये अथवा जिज्ञासा शून्य।
इसके ही प्रमाण में :- डॉ. हरिहरनिवास द्विवेदी भी इसी शताब्दि में लिखते हैं -  'ग्वालियर नगर के सीमान्त पर गुप्तेश्वर और देवखोह के शैलाश्रयों के शैलचित्र इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव के निवास के साक्षी हैं, अपितु ग्वालियरगढ़ का महत्व मौर्यकाल में ही स्थापित हो चुका था तथापि, अभी तक गढ़ पर तीसरी शताब्दी के पूर्व के अवशेष प्राप्त नहीं हुये हैं। उस समय की पूरी या टूटी मूर्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी प्राप्त हो जाती हैं।Ó लेकिन - अभी-अभी अगस्त 2003 में ग्वालियर किले के उरवायी गेट के पास खुदाई में कुषाण काल की ईंटें प्राप्त होने से ग्वालियर के इतिहास की जो नींव पड़ी थी उसकी अब जड़ हिलने लगी है। ग्वालियर का अस्तित्व तो ईसा से दो सौ साल पूर्व भी पाये जाने के संकेत मिलने लगे हैं।
    यह तो पुरातत्व की कहानी है, परन्तु जैन धर्म के अनुसार तो ग्वालियर महाभारत काल से पूर्व भी था - क्योंकि ग्वालियर दुर्ग की पहाड़ी से सुप्रतिष्ठिïत केवली मोक्ष गये हैं इसलिये यह निर्वाण भूमि है। परन्तु - काल ने कवलित कर लिया इसे और इसके इतिहास को भी।
    ग्वालियर की जैन संत परम्परा भी इसी का दुष्परिणाम है। अत: जो कुछ ज्ञात हो सका वह लिखा जा रहा है।



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गुरु का वृष राशि में प्रवेश








गुरु, ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष, गुरुवार 17 मई 2012 को प्रात: 9.34 बजे रेवती नक्षत्र में शुक्र राशि वृष में प्रवेश करेंगे। गुरु इस दिन से 31 मई 2013 प्रात: 6.49 बजे तक अपने शत्रु शुक्र की राशि में ही विराजमान रहेंगे। इस दौरान 12 राशियों पर क्या-क्या प्रभाव पड़ेगा। आइये जानते हैं विस्तार से।


गुरु के राशि परिवर्तन को सभी उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं। इसका कारण यह है कि गुरु नवग्रहों में ऐसा ग्रह है जो धर्म-अध्यात्म, बुद्धि-विवेक, ज्ञान, विवाह, पति, संतान, पुत्र सुख बड़े भाई का कारक माना जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी गुरु हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शरीर में वसा, पाचन क्रिया, कान, हृदय सहित लीवर को प्रभावित करता है।
अगर आप अविवाहित हैं और सादी करना चाहते हैं या फिर आप संतान के इच्छुक हैं तो इस दौरान आप भी गुरु को आशा भरी नजरों से देख सकते हैं। अगर आप नौकरी व्यवसाय में उन्नति की आशा रखते हैं अथवा किसी ऋण से मुकित की कोशिश कर रहे हैं तब भी गुरु के राशि परिवर्तन को उम्मीद भरी नजरों से देख सकते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि इन सभी विषयों में शुभ और अपेक्षित परिणाम आपको अपनी राशि के अनुरूप ही प्राप्त होंगे।

मेष : धन लाभ होगा
आपकी जन्म राशि से दूसरे घर में गुरु का गोचर होना आपके लिए सुखद होगा। गुरु के इस गोचर के प्रभाव से धन का लाभ होगा। यह आपके आत्मविश्वास को भी बढ़ाएगा तथा आप व्यवहार में भी बदलाव महसूस करेंगे। आप अगर विवाह के योग्य हैं तो आपकी शादी हो सकती है, संतान के इच्छुक हैं तो आपकी इच्छा पूरी होगी। छात्रों को शिक्षा में शुभ परिणाम प्राप्त होंगे।

वृषभ : आत्म विश्वास बढ़ाएगा

गुरु का गोचर प्रथम भाव में होने के कारण आपको उन बातों से बचना चाहिए जिससे सम्मान की हानि हो सकती है। गुरु का यह गोचर कार्य क्षेत्र में अनचाहे स्थान पर स्थानांतरण करवा सकता है। कार्यों में संतुष्टि की कमी रह सकती है। आपके कार्य विलंब से पूरे होंगे तथा आपके कार्य को कम सराहा जा सकता है। इसके अलावा मेहनत के बावजूद सफलता नहीं मिलने से मन असंतुष्ट रह सकता है।

मिथुन : मन असंतुष्ट रहेगा
बारहवें घर में गुरु का गोचर अशुभ कहलाता है। गुरु के इस गोचर के प्रभाव के कारण आपके घर में कई मांगलिक कार्य होंगे जिससे आपके व्यय बढ़ेंगे। इससे आपको आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मित्रों द्वारा लगाये गये आरोप से मन दु:खी रह सकता है। परिवार में जीवन साथी एवं संतान से मतभेद हो सकता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी समय कष्टदायी रह सकता है जिससे कोई पुराना रोग उभर सकता है।

कर्क : आर्थिक स्थिति में सुधार होगा
कर्क राशि में आपका जन्म हुआ है तो गुरु का यह गोचर आपके लिए अत्यंत शुभ फलदायी रहेगा। इसका कारण यह है कि गुरु का गोचर आपकी राशि से एकादश भाव में हो रहा है। इस गोचरीय स्थिति के कारण आपको धन का लाभ मिलेगा जिससे आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार होगा। सुख-सुविधाओं एवं मान-सम्मान में बी बढ़ोत्तरी होगी। मित्रों से भी लाभ की अच्छी संभावना रहेगी। अगर इन दिनों आपकी शादी की बात चल रही है तो आपका विवाह हो सकता है। अगर आप विवाहित हैं और संतान प्राप्ति की कामना रखते हैं तो आपकी मुराद पूरी हो सकती है।

सिंह : संघर्षमय समय व्यतीत होगा
गुरु की इस गोचरीय अवधि में आपको धैर्य एवं समझदारी से चलने का प्रयास करना होगा क्योंकि आपके लिए यह समय संषर्घमय रह सकता है। आपके लिए उचित होगा कि अपनी वाणी पर नियंत्रण रखें और सभी को आदर दें। इससे आपका मान-सम्मान बना रहेगा। आर्थिक परेशानियां भी इन दिनों सिर उठा सकती हैं। अत: नए निवेश सोच समझकर करें। नई योजना पर कार्य शुरू करने की सोच रहे हैं तो अभी उसे टाल देना उचित रहेगा क्योंकि, इस विषय में भी यह समय गुरु का आपकी जन्म राशि से दसवें घर में होना शुभ प्रतीत नहीं होता है।

कन्या : मन की इच्छाएं पूर्ण होंगी
आपके लिए गुरु का वृष राशि में गोचर करना शुभ फलदायी रहेगा। गुरु की इस गोचरीय स्थिति के कारण भाग्य में वृद्धि होगी। धर्म एवं आध्यात्मिक दृष्टि से समय उत्तम रहेगा जिससे घर में धार्मिक कार्य सम्पन्न होंगे। भाई एवं संतान पक्ष से सहयोग प्राप्त होगा। आप अपने प्रयासों से मन की कुछ इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं। बीते दिनों जिन समस्याओं से आप परेशान थे उनमें कमी महसूस कर सकते हैं।

तुला : वाणी व क्रोध पर नियंत्रण रखें
आपको अपनी वाणी के साथ ही साथ क्रोध पर भी नियंत्रण रखना होगा। अन्यथा घर-परिवार में जहां मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ सकता है, वहीं कार्यक्षेत्र में भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। मान-सम्मान की हानि की संभावना होने के कारण भी आपके लिए इन बातों का ध्यान रखना जरूरी है। गुरु का गोचर आपकी जन्म राशि से आठवें घर में होने से यह आपके स्वास्थ्य के लिए कष्टकारी रह सकता है। ऐसे में आपके लिए उचित होगा कि अपनी सेहत का ध्यान रखें तथा अनावश्यक भाग-दौड़ से बचें।

वृश्चिक : कामयाबी का रास्ता खुलेगा

गुरु का गोचर आपकी जन्म राशि से सातवें घर में हो रहा है। यह आपके लिए बहुत अच्छी स्थिति है। इस गोचर के कारण आजीविका के क्षेत्र में सभी प्रकार की परेशानियां धीरे-धीरे कम होती जाएंगी और कामयाबी का रास्ता खुलेगा। आर्थिक  परेशानियां भी दूर होंगी और आपने किसी से लोन लिया है तो उसे चुका देंगे। पारिवारिक समस्याएं भी बातचीत व समझदारी से सुलझ सकती हैं। अत: प्रयास कीजिए। विवाह के इच्छुक हैं और घर में विवाह संबंधी बातचीत चल रही है तो इस अवधि में आपकी शादी होने की संभावना भी प्रबल है। सगे-संबंधियों से सहयोग प्राप्त होगा।

धनु : स्वास्थ्य पर ध्यान दें
इस अवधि में आपके लिए धैर्य एवं परिश्रम से कार्य करना उचित होगा क्योंकि गुरु का गोचर आपकी राशि से छठे घर में हो रहा है। इस गोचर के प्रभाव के कारण आपको स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना कना पड़ सकता है, विशेष तौर पर पेट संबंधी रोग आपके लिए परेशानी का कारण बन सकते हैं। आप अगर किसी प्रतियोगिता परीक्षा में सम्मिलित हो रहे हैं तो काफी मेहनत करनी होगी अन्यथा सफलता कठिन होगी। दाम्पत्य जीवन में भी समस्याएं उत्पन्न होंगी।

मकर : शुभ फल मिलेगा
आपके लिए गुरु का गोचर जन्म राशि से पांचवे घर में होना शुभ फलदायी रहेगा। गुरु के इस गोचरीय प्रभाव के कारण आपको भाग्य का सहयोग प्राप्त होगा। कई प्रकार की उलझनों को सुलझाने में सफल होंगे। नौकरी एवं व्यवसाय में लाभ की अच्छी संभावना रहेगी। कई नए कार्य भी इस अवधि में पूरे होंगे। आप चाहें तो इस समय निवेश भी कर सकते हैं। विवाह एवं संतान प्राप्ति के लिए भी गुरु का वृषभ राशि में गोचर शुभ रहेगा।

कुंभ : नौकरी-व्यवसाय में बदलाव होगा

वृष राशि में गुरु का गोचर होने से आपको कई प्रकार की परेशानियों से राहत मिलेगी, परन्तु मानसिक चिंताएं बढ़ेगी। इस दौरान आप स्थान परिवर्तन कर सकते हैं अथवा नौकरी एवं व्यवसाय में बदलाव कर सकते हैं। कार्य-क्षेत्र में सहकर्मियों से विवाद हो सकता है। इसी प्रकार भाई-बंधुओं से भी मतभेद की स्थिति रह सकती है। आपकी मां को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। आप चिकित्सक से परामर्श जरूर ले लें।

मीन : मतभेद उभर सकते हैं
गुरु का गोचर इस समय आपकी जन्म राशि से तीसरे घर में होगा जिससे भाई-बहनों से मतभेद हो सकता है। सगे-संबंधियों से भी किसी बात को लेकर मतांतर रह सकता है। इन दिनों आप शारीरिक थकान महसूस कर सकते हैं। आर्थिक स्थिति में अनुकूलता बनाये रखने के लिए तथा मान-सम्मान प्राप्ति के लिए अपने कार्य-व्यवसाय पर मनोयोग से ध्यान देना होगा। आपके लिए सलाह है कि गुरु के इस गोचर की अवधि में लंबी यात्राओं से बचें।

जातक क्या करें
इस अवधि में गुरु का शनि से षडाष्टक संबंध बन रहा है, जो अशुभ फलदायक माना जा रहा है। इस स्थिति में गुरु के अशुभ प्रभाव से बचाव के लिए भगवान विष्णु की पूजा करें। गुरु का व्रत, गुरु के मंत्र ऊं बृहस्पतये नम: का जप करें। मंदिर में पीले फूल, बेसन के लड्डू आदि अर्पित करें। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। श्री सूक्त व लक्ष्मी सूक्त का पाठ धन लाभ के लिए विशेष लाभकारी रहेगा।

- अरुण बसंल

फ्यूचर समाचार सेवा