शुक्रवार, 15 जून 2012

पर्यटक स्थल सनकुआ


सिन्धु नदी वन दण्डक सौ, सनकादि सौ क्षेत्र सदा जल गाजै




- राजकुमार सोनी

शौण्ड्र शैल की सुरम्य वनस्थली, अपलक आकाश की ओर निहारते एवं भूमि पूजन के लिए कुसुमांजलि बिखेरती हुई सघन द्रुमों से शोभित गिरि श्रृंखलाएं। चरणों के कल निनाद प्रपूरित विहंगावलियों के मृदुल स्वरों से बरबस मानव मन को आकृष्ट करते कलगानों से संबंधित अरण्य की मनोहारिणी आभा। उदित और अस्त होते हुए दिवाकर की हेमाभा से रचित चित्रावलियों से अन्र्ततम को आकृष्ट करती मनोवृत्तियों को केन्द्रीभूत कर प्रफुल्लित करती एवं विभिन्न दृश्यों  से स्वर्गिक आनंद का अनुभव कराती प्रकृति का मातृ तुल्य दुलार इस सनकेश्वर क्षेत्र की अपनी एक विशेषता है। प्रकृति के सान्त वातावरण में स्थित एवं सौन्दर्य से परिपूरित यह स्थान आधुनिक परिवहन साधना के द्वारा देश के बड़े-बड़े नगरों से जुड़ा होने पर भी शासन की उपेक्षा से अन्धकूप में पड़े व्यक्ति की तरह छटपटा रहा है। उसे आशा है शासन के स्नेह मय दुलार की जिसे हृदय में संजोए वह वर्षों से बाट जोह रहा है। आइये इस स्थान की कुछ विशेषताओं पर दृष्टि डालें।
आप अनुभव करेंगे कि प्रकृति के अपरिसीमित वरदानों से समन्वित खनिजों की अपरिमित समृद्धि से संयुक्त यह उत्कृष्ट स्थान एक मात्र केन्द्रीय शासन एवं प्रादेशिक शासन की उपेक्षा से ही सौतेली मां के शिशु की तरह दुलार से वंचित रहा है।
सेंवढ़ा जिला दतिया, मध्यप्रदेश की एक मात्र पहली तहसील है। दूसरी तहसील भाण्डेर को समलित किया गया है। यह स्थान न्यायालय, एसडीओ राजस्व, एसडीओपी, एसडीओ सिंचाई, पीडब्ल्यू डी इंजीनियर, विद्युत टावर, एसटीडी की दूर संचार सुविधाओं से पूर्णत: समन्वित है। देश की समृद्धशाली बैंकों की शाखाओं एवं चतुर्दिक गमन करती बसों द्वारा यह स्थान जुड़ा हुआ है। अनाज की एक बड़ी मंडी तथा शिक्षा एवं कला में स्नातकोत्तर शिक्षा की सुविधा प्राप्त पुरातात्विक भग्नावशेषों से युक्त बड़ी नगरी है। सिन्ध नदी विन्ध शैल की श्रृंखलाओं का आश्रय लेती हुई यहां अपना अनुपमेय प्रकृति वैभव बिखेरती है। इस स्थान पर आकर सिन्धु सरिता मनोरम झरने बनाती है। ऊपर से नीचे की ओर गिरती सिन्धु धारा, दुग्ध धवल होकर बड़ा मनमोहक दृश्य कर देती है। गिरते हुए जल से ऊपर की ओर उड़ते जल कण धूमयुक्त कुहरे का सुन्दर दृश्य उपस्थित कर शरीर स्पर्श से मानव मन को शीतलता प्रदान कर हरा कर देता है। नीचे पहाड़ों को काटकर बनाई गई सुरम्योपत्यकाएं अजन्ता और एलोरा की गुआओं की होड़ सी करती हुई हमारा मन आकर्षित करती हैं। सिन्धु नदी को पार करने के लिए दो सुरम्य सेतु हैं। एक बड़ा और दूसरा छोटा। ये दोनों ही सेतु इसकी सुरम्यता में चतुर्गुण वृद्धि करते हैं।
छोटे सेतु से सरित्प्रवाह को रोकने के लिए उसके दरवाजों में खांचे बने हुए हैं। जिनमें काष्ठ के पटिये डालकर उसके प्रवाह को रोका जा सकता है, जिससे एक बांध का स्वरूप बनकर पर्यटकों के लिए स्विमिंग पूल का कार्य पूर्ण करेगा। पहाड़ी, चट्टानों से मोहक दृश्य उपस्थित करता हुआ यह स्थान मठों, मंदिरों, शिवालयों, सतियों के स्मारकों से परिपूर्ण आगत यात्रियों, पर्यटकों को आनंद विभोर कर आश्चर्य चकित कर देता है।
सेंवढ़ा (सनकुआं) के संबंध में पद्म पुराण के तीर्थ खम्ड के द्वितीय अध्याय में विस्तार से वर्णन है। नारद जी सनत्कुमारों को तपस्या के लिए स्थान बताते हुए कहते हैं -
स्थलं पुष्प फलैयुक्तिं प्रसान्त स्वापदा हृतं।
भवद्भिस्तप्यतां तत्रयेन क्रोधस्तु शान्तिग:।।

एक अन्य स्थानीय राज्य सम्मान प्राप्त संस्कृत कवि इस सरिता के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
मज्जद्देव वधू कुच द्वय गलत्क स्तूरिका कुंकुमै:।
श्वेतैश्चंदन बिंदुश्चि तनुते शोभा प्रयागोद्भवाम।।
पंचद्वीचि विनाशिता शिल पायान्जना नन्दिका।
सां सिन्धु: सनकेश मस्तक लतापायादपायाज्जगत्।।

प्रसिद्ध संत कवि अक्षर अनन्य इस स्थान के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
सिन्धु नदी वन दण्डक सौ, सनकादि सौ क्षेत्र सदा जलगाजै।
काशी सौवास घनेमठ सम्बु के साधु समाज जै बोलै सदा जै।।
कोट अदूर बनौ हिरि पै प्रभु सौ प्राथिचन्द नरेस विराजै।
उद्धित मंदिर तीर नदी तिहि आसन अस्थितर अच्छिर छाजै।।

महाकवि मैथली शरण गुप्त एवं प्रसिद्ध कवि अजमेरी जी भी इसके प्राकृतिक वैभव का दर्शन कर लिखे बिना न रह सके। लेखक ने स्वयं भी हिन्दी एवं संस्कृत में अनेकों कविताएं अनुपम सौन्दर्यमयी सिन्धु के दिव्य दृश्यों से प्रभावित होकर लिखी हैं। जिनमें से संस्कृत का उदाहरण देखिये-
सुर सुरेन्द्र मनस्पृशे में कारिणी।
नियति क्रीडनिका सुखदा स्थली,
सनकादि तप प्रभचन्ति प्रवितनोतु रसं सरसमेन:।।
अति सुरम्य प्रकृत्यखिला मुदा,
सुरभि पुष्प चितन्वित सुद्रुमा;
तरुलता हरितां गिरि श्रृंखला,
सुमन रञजयतं गिरिकानन: गिरि शिखरे।
परिस्म्य शिवालय: विविध आश्रमसंत महत्व:
लसति निर्झर मञजु सरिच्छटा किरति
दिव्य हिमांशु रसंमुदर
शुंभ सरिंत्सलिलाद्रं सुखप्रदा वसंति सिंधु
तटं व्याभिरामसा।
सनकनंदन पावन तीर्थ या लसतिसा
सेवदेति शुभ प्रदा।

सिन्धु के किनारे निर्मित राज प्रासाद की उतुंग अट्टालिकाओं का दृश्य जन मन को आकर्षित करता है एवं प्राचीन दुर्ग की प्रार्चा में व बुर्ज स्थान की शोभा में वृद्धि कर पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र बन जाते हैं। वास्तु कला की दृष्टि से दुर्ग के अन्तरस्थ रनवासों, प्रासादों की निर्माण कला अत्यंत उत्कृष्ट है। शत्रु के आक्रमण से सुरक्षा की दृष्टि से भी ये दुर्ग अपने में अनूठा और बेजोड़ है।
सनकादि ऋषियों की तपस्थली होने के कारण यह सृष्टि के आरंभ में भी गणमान्य स्थानों में था। इस कारण पौराणिक काल में यह समृद्ध स्थानों की श्रेणी में आता रहा होगा, जिसके प्रमाण यहां के मठ, मंदिर और भवन दुमंजिले, तिमंजिले खण्डर हैं। अत: पुरातत्वविदों के लिए यहां पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। प्राचीन मूर्तियां यहां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अमरा ग्राम से प्राप्त एक शिव मूर्ति जो उत्खनन से प्राप्त है, बौद्ध कालीन मूर्तिकला में बेजोड़ है। राजराजेश्वरी माता मंदिर के पास स्थित चबूतरे पर जो नव दुर्गा की मूर्ति थी वह कला की दृष्टि से अद्वितीय थी जिसमें पत्थर को बारीक काटकर आभूषण पहनाये गए थे, वह आश्चर्य चकित कर देने वाली मूर्ति थी, यह मूर्ति सन् 1992 में चोरी चली गई। इसी तरह अजयपाल के विकट प्राप्त पत्थर की बारीक कटाई से युक्त प्राचीन सुन्दर मूर्तियां भी चोरी चली गईं। टंकन कला में अद्वितीय ये मूर्तियां सुरक्षा की व्यवस्था न होने से प्रतिवर्ष चोरों की जीविका का साधन बनी हुई हैं। ये चोर विदेशों में इन मूर्तियों को ऊंचे दामों में बेच देते हैं।
पुराने सेंवढ़ा में उत्खनन से नक्काशीदार पक्के रंगीन चित्रकारी से युक्त जो भवन भूमि के नीचे से निकाले गए हैं वे पुरातत्वविदों के लिए शोध की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करने में बहुत सहायक हैं।
सेंवढ़ा से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विशाल रतनगढ़ वाली माता का अत्यन्त प्राचीन सिद्ध मंदिर है। यह स्थान अब जन आकांक्षाओं को पूर्ण करने वाला स्थान बन गया है। यह स्थान हर सोमवार को दर्शनार्थियों के आवागमन से परिपूर्ण रहता है। दीपावली की दौज को हर साल विशाल मेला लगता है, जिसमें लाखों भक्त दर्शन करने आते हैं और अपनी मुरादें पूरी करते हैं। भाईदौज, दीपावली को द्वितीया के दिन अपार जन समुदाय और दुकानदारों के आगमन से एक विशाल मेले का रूप धारण कर लेता है। इस मंदिर के पीछे कुंवर साहब बाबा का स्थान है जिनके नाम से सर्प के बंध लगाए जाते हैं। कोबरा, काले विषधर सर्प का काटा हुआ व्यक्ति भी इनके नाम से बंध से बच जाता है। बंध काटने के दिन व्यक्ति को बेहोशी के चिन्ह आते हैं और रोगी बच जाता है। उपरोक्त स्थान के संबंध में ऐतिहासिक घटना है जो सत्य बताई जाती है। राजस्थान की पश्चिमी के अतिरिक्त अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रतन सिंह की पुत्री रतनकुंवर के रूप सौन्दर्य की प्रसंसा सुन रखी थी। रूप सौन्दर्य में अद्वितीय रूपकुंवर को पदमिनी ही कहा जाता है। अत: उसने इस स्थान पर चढ़ाई कर दी। सात पुत्रों और एक पुत्री के पिता राजा रतनसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी से लोहा लेने में ही अपना हित समझा। अलाउद्दीन की विशाल सेना के समक्ष एक सामान्य राजा कहां तक लड़ सकता था, अत: रत्नसिंह के सातों राजकुमार तथा स्वयं रत्नसिंह केशरिया बाना पहनकर युद्ध में काम आये। पुत्री रत्नकुंवर ने पृथ्वी मां से प्रार्थना की और वह उसी स्थान पर पृथ्वी में समा गई। रनवास की स्त्रियों ने जौहर किया और वहीं जल गईं। इस युद्ध की सत्यता को प्रमाणित करने वाला हजीरा जो हजारों सौनिकों के मरने की स्मृति स्वरूप बनाया जाता है। आज भी मरसैनी के आगे रतनगढ़ मार्ग पर बना हुआ है। जहां रत्नसिंह की तोपों से अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक मारे गए थे। वहीं राजपुत्री रतनकुंवारी देवी के रूप में आज भी पूजी जाती हैं। जहां सभी दर्शनार्थियों की इच्छाएं पूर्ण होती हैं। तथा उनके सातों भाई कुंवर साहब के रूप में पूजे जाते हैं। जिनके स्मारक वन्य शैल पर स्थान-स्थान पर बने हैं। बड़े भाई के नाम पर कुंवंर साहब का बंध लगाया जाता है जो सर्पदंश से रक्षा करता है। अन्य भाइयों के स्थानों पर भी लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस स्थान से दो किलोमीटर पर देवगढ़ का सुरम्य स्थान एवं किला है जहां विशालकाय हनुमान जी की मूर्ति सद्य सिद्धि देने वाली है।