मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

अद्भुद चमत्कार भैरव साधना का

 

यदि आप किसी गंभीर समस्या में घिर जाये और चाहते हो त्वरित उपाय तो एक ऐसा उपाय जो जीवन पर छाए काले बादल को तुरंत मिटाए

- शनिवार और रविवार को श्री भैरव मंदिर में जाकर सिंदूर व चमाली के तेल का चोला अर्पित करे |
- शनिवार या रविवार को भैरव मंदिर में कपूर की आरती व काजल का दान करने से कष्ट मिटते है |
- किसी गंभीर समस्या के निवारण हेतु उरद की दाल के एक सो आठ बारे बना कर उसकी माला बनाये और श्री भैरवनाथ जी को अर्पित कर सदर उनकी आरती करे |
- पारिवारिक या न्यायिक विवाद के निदान हेतु सरसों का तेल, खोये से निर्मित मिस्ठान, काले वस्त्र, एक जलदार नारियल, कपूर, नीबू आदि समर्पित करे |
- उपरी बाधा निवारण हेतु भैरवाष्टक का नियमित आठ पाठ कर जल को फुक कर पीड़ित व्यक्ति को पिला दे | हर प्रकार की समस्या का निदान होगा |
 

श्री भैरव मन्त्र

“ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र! हाजिर होके, तुम मेरा कारज करो तुरत। कमर बिराज मस्तङ्गा लँगोट, घूँघर-माल। हाथ बिराज डमरु खप्पर त्रिशूल। मस्तक बिराज तिलक सिन्दूर। शीश बिराज जटा-जूट, गल बिराज नोद जनेऊ। ॐ नमो भैंरुनाथ, काली का पुत्र ! हाजिर होके तुम मेरा कारज करो तुरत। नित उठ करो आदेश-आदेश।”

विधिः पञ्चोपचार से पूजन। रविवार से शुरु करके २१ दिन तक मृत्तिका की मणियों की माला से नित्य अट्ठाइस (२८) जप करे। भोग में गुड़ व तेल का शीरा तथा उड़द का दही-बड़ा चढ़ाए और पूजा-जप के बाद उसे काले श्वान को खिलाए। यह प्रयोग किसी अटके हुए कार्य में सफलता प्राप्ति हेतु है।

काल भैरव साधना
1. काल भैरव भगवान शिव का अत्यन्त ही उग्र
तथा तेजस्वी स्वरूप है.
2. सभी प्रकार के पूजन/हवन/प्रयोग में रक्षार्थ
इनका पुजन होता है.
3. ब्रह्मा का पांचवां शीश खंडन भैरव ने
ही किया था.
4. इन्हे काशी का कोतवाल माना जाता है.
5. नीचे लिखे मन्त्र की १०८
माला रात्रि को करें.
6. काले रंग का वस्त्र तथा आसन रहेगा.
7. दिशा दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें
8. इस साधना से भय का विनाश होता है
तथा साह्स का संचार होता है.
9. यह तन्त्र बाधा, भूत बाधा,तथा दुर्घटना से रक्षा प्रदायक है.
॥ ऊं भ्रं कालभैरवाय फ़ट ॥
 

अनुभूतियाँ
बटुक भैरव शिवांश है तथा शाक्त उपासना में इनके बिना आगे बढना संभव ही नहीं है।शक्ति के किसी भी रूप की उपासना हो भैरव पूजन कर उनकी आज्ञा लेकर ही माता की उपासना होती है।भैरव रक्षक है साधक के जीवन में बाधाओं को दूर कर साधना मार्ग सरल सुलभ बनाते है।वह समय याद है जब बिना भैरव साधना किये ही कई मंत्रों पुश्चरण कर लिया था तभी एक रात एकांत माता मंदिर से दूर हटकर आम वृक्ष के नीचे आसन लगाये बैठा था तभी गर्जना के साथ जोर से एक चीखने की आवाज सुनाई पड़ी,नजर घुमाकर देखा तो एक सुन्दर दिव्य बालक हाथ में सोटा लिए खड़ा था और उसके आसपास फैले हल्के प्रकाश में वह बड़ा ही सुन्दर लगा।मैं आवाक हो गया और सोचने लगा ये कौन है तभी वो बोले कि "राज मुझे नहीं पहचाने इतने दिनो से मैं तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ और तुमने कभी सोचा मेरे बारे में परन्तु तुम नित्य मेरा स्मरण,नमस्कार करते हो जाओ काशी शिव जी का दर्शन कर आओ।"
मैंने प्रणाम किया और कहा हे बटुक भैरव आपको बार बार नमस्कार है,आप दयालु है,कृपालु है मैं सदा से आपका भक्त हूँ,मेरे भूल के लिए आप मुझे क्षमा करे।मेरे ऐसा कहने से वे प्रसन्न मुद्रा में अपना दिव्य रूप दिखाकर वहाँ से अदृश्य हो गये।मुझे याद आया कि कठिन साधनाओं के समय भैरव,हनुमान,गणेश इन तीनों ने मेरा बहुत मार्गदर्शन किया था,तथा आज भी करते है।जीवन में कहीं भी भटकाव हो या कठिनाई भैरव बताते है कि आगे क्या करना चाहिए,तभी जाकर सत्य का राह समझ में आता है।

भैरव कृपा
भैरव भक्त वत्सल है शीघ्र ही सहायता करते है,भरण,पोषण के साथ रक्षा भी करते है।ये शिव के अतिप्रिय तथा माता के लाडले है,इनके आज्ञा के बिना कोई शक्ति उपासना करता है तो उसके पुण्य का हरण कर लेते है कारण दिव्य साधना का अपना एक नियम है जो गुरू परम्परा से आगे बढता है।अगर कोई उदण्डता करे तो वो कृपा प्राप्त नहीं कर पाता है।
भैरव सिर्फ शिव माँ के आज्ञा पर चलते है वे शोधन,निवारण,रक्षण कर भक्त को लाकर भगवती के सन्मुख खड़ा कर देते है।इस जगत में शिव ने जितनी लीलाएं की है उस लीला के ही एक रूप है भैरव।भैरव या किसी भी शक्ति के तीन आचार जरूर होते है,जैसा भक्त वैसा ही आचार का पालन करना पड़ता है।ये भी अगर गुरू परम्परा से मिले वही करना चाहिए।आचार में सात्वीक ध्यान पूजन,राजसिक ध्यान पूजन,तथा तामसिक ध्यान पूजन करना चाहिए।भय का निवारण करते है भैरव।

प्रसंग
एक बार एक दुष्ट साधक ने मेरे एक साधक मित्र पर एक भीषण प्रयोग करा दिया जिसके कारण वे थोड़ा मानसिक विकार से ग्रसित हो गये परन्तु वे भैरव के उपासक थे,तभी भैरव जी ने स्वप्न में उन्हें बताया कि अमुक मंत्र का जप करो साथ ही प्रयोग विधि बताया ,साधक मित्र नें जप शुरू किया और तीन दिन में ही स्वस्थ हो गये,और उधर वह दुष्ट साधक को अतिसार हो गया ,वह प्रभाव समझ गया था,वह फोन कर रोने लगा कि माफ कर दिजिए नहीं तो मर जाउँगा,तब मेरे मित्र ने मुझसे पूछा क्या करूँ,तो मैंने कहा कि शीघ्र माफ कर दिजिए तथा भैरव जी से कहिए कि माफ कर दें,हमलोगों को गुरू परम्परा में क्षमा,दया,करूणा का भाव विशेष रुप से रखना पड़ता है।

भैरव स्वरुप
इस जगत में सबसे ज्यादा जीव पर करूणा शिव करते है और शक्ति तो सनातनी माँ है इन दोनो में भेद नहीं है कारण दोनों माता पिता है,इस लिए करूणा,दया जो इनका स्वभाव है वह भैरव जी में विद्यमान है।सृष्टि में आसुरी शक्तियां बहुत उपद्रव करती है,उसमें भी अगर कोई विशेष साधना और भक्ति मार्ग पर चलता हो तो ये कई एक साथ साधक को कष्ट पहुँचाते है,इसलिए अगर भैरव कृपा हो जाए तो सभी आसुरी शक्ति को भैरव बाबा मार भगाते है,इसलिये ये साक्षात रक्षक है। भूत बाधा हो या ग्रह बाधा,शत्रु भय हो रोग बाधा सभी को दूर कर भैरव कृपा प्रदान करते है।अष्ट भैरव प्रसिद्ध है परन्तु भैरव के कई अनेको रूप है सभी का महत्व है परन्तु बटुक सबसे प्यारे है।नित्य इनका ध्यान पूजन किया जाय तो सभी काम बन जाते है,जरूरत है हमें पूर्ण श्रद्धा से उन्हें पुकारने की,वे छोटे भोले शिव है ,दौड़ पड़ते है भक्त के रक्षा और कल्याण के लिए।
 

जानें कौन-से भैरव हैं किस अद्भुत शक्ति के स्वामी?

शिव जगदव्यापी यानी जगत में हर कण में बसते हैं। शास्त्र भी कहते हैं कि इस जगत की रचना सत्व, रज और तम गुणों से मिलकर हुई। जगतगुरु होने से शिव भी इन तीन गुणों के नियंत्रण माने जाते हैं। इसलिए शिव को आनंद स्वरूप में शंभू, विकराल स्वरूप में उग्र तो सत्व स्वरूप में सात्विक भी पुकारा जाता है।

शिव के यह त्रिगुण स्वरूप भैरव अवतार में भी प्रकट होता है। हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक शिव ने प्रदोषकाल में ही भैरव रूप में काल व कलह रूपी अंधकार से जगत की रक्षा के लिए प्रकट हुए। इसलिए शास्त्रों और धार्मिक परंपराओं में अष्ट भैरव से लेकर 64 भैरव स्वरूप पूजनीय और फलदायी बताए गए हैं।

इसी कड़ी में जानते हैं शिव की रज, तम व सत्व गुणी शक्तियों के आधार पर भैरव स्वरूप कौन है व उनकी साधना किन इच्छाओं को पूरा करती है -

बटुक भैरव - यह भैरव का सात्विक व बाल स्वरूप है। जिनकी उपासना सभी सुख, आयु, निरोगी जीवन, पद, प्रतिष्ठा व मुक्ति प्रदान करने वाला माना गया है।

काल भैरव - यह भैरव का तामस किन्तु कल्याणकारी स्वरूप माना गया है। इनको काल का नियंत्रक भी माना गया है। इनकी उपासना काल भय, संकट, दु:ख व शत्रुओं से मुक्ति देने वाली मानी गई है।

आनंद भैरव - भैरव का यह राजस स्वरूप माना गया है। दश महाविद्या के अंतर्गत हर शक्ति के साथ भैरव उपासना ऐसी ही अर्थ, धर्म, काम की सिद्धियां देने वाली मानी गई है। तंत्र शास्त्रों में भी ऐसी भैरव साधना के साथ भैरवी उपासना का भी महत्व बताया गया है।

चाहें जल्द व ज्यादा धन लाभ..तो जानें भैरव पूजा का सही वक्त व तरीका

शिव का एक नाम भगवान भी है। शास्त्रों में भगवान का अर्थ सर्व शक्तिमान व ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्य सहित छ: गुणों से संपन्नता भी बताया गया है। शिव व उनके सभी अवतारों में यह गुण प्रकट होते हैं व उनकी भक्ति भी सांसारिक जीवन में ऐसी शक्तियों की कामना पूरी करती है।

हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शिव ने भैरव अवतार लिया। जिसका लक्ष्य दुर्गुणी व दुष्ट शक्तियों का अंत ही था, जो सुख, ऐश्वर्य व जीवन में बाधक होती है। शिव का यह कालरक्षक भीषण स्वरूप कालभैरव व काशी के कोतवाल के रूप में पूजनीय है।

यही कारण है कि इस दिन कालभैरव के साथ शिव के अनेक भैरव स्वरूपों की पूजा काल, धन, यश की कामना को पूरी करने वाली मानी गई है। किंतु कामनासिद्धि या धन लाभ की दृष्टि से शास्त्रों में भैरव पूजा के सही वक्त व तरीके बताए गए हैं। जानते हैं ये उपाय -

- पौराणिक मान्यताओं में भैरव अवतार प्रदोष काल यानी दिन-रात के मिलन की घड़ी में हुआ। इसलिए भैरव पूजा शाम व रात के वक्त करें।

- रुद्राक्ष शिव स्वरूप है। इसलिए भैरव पूजा रुद्राक्ष की माला पहन या रुद्राक्ष माला से ही भैरव मंत्रों का जप करें।

- स्नान के बाद भैरव पूजा करें। जिसमें भैरव को भैरवाय नम: बोलते हुए चंदन, अक्षत, फूल, सुपारी, दक्षिणा, नैवेद्य लगाकर धूप व दीप आरती करें।

- भैरव आरती तेल की दीप से करें।

- कल शुक्रवार है। भैरव पूजा में भुने चने चढ़ाने का महत्व है। तंत्र शास्त्रों में मदिरा का महत्व है, किंतु इसके स्थान पर दही-गुड़ भी चढ़ाया जा सकता है।

- भैरव की आरती तेल के दीप व कर्पूर से करें।

- भैरव पूजा व आरती के बाद विशेष रूप से शिव का ध्यान करते हुए दोष व विकारों के लिए क्षमा प्रार्थना कर प्रसाद सुख व ऐश्वर्य की कामना से ग्रहण करें।
 
 
भैरव के महाभय नाशक भैरव मंत्र

भय को नष्ट करने वाले देवता का नाम है भैरव
भैरव के होते है आठ प्रमुख रूप
किसी भी रूप की साधना बना सकती है महाबलशाली
भैरव की सौम्य रूप में करनी चाहिए साधना पूजा
कुत्ता भैरव जी का वाहन है
कुत्तों को भोजन अवश्य खिलाना चाहिए
पूरे परिवार की रक्षा करते हैं भैरव देवता
काले वस्त्र और नारियल चढाने से होते हैं प्रसन्न
भैरव के भक्त को तीनो लोकों में कोई नहीं हरा पता
जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए भैरव को चौमुखा दीपक जला कर चढ़ाएं
भैरव की मूर्ती पर तिल चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
भैरव के मन्त्रों से होता है सारे दुखों का नाश

भय नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय भयं हन

उरद की दाल भैरव जी को अर्पित करें
पुष्प,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें
रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण दिशा की और मुख रखें

शत्रु नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय शत्रु नाशं कुरु


नारियल काले वस्त्र में लपेट कर भैरव जी को अर्पित करें
गुगुल की धूनी जलाएं
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पश्चिम कि और मुख रखें

जादू टोना नाशक मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय तंत्र बाधाम नाशय नाशय


आटे के तीन दिये जलाएं
कपूर से आरती करें
रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें
दक्षिण की और मुख रखे

प्रतियोगिता इंटरवियु में सफलता का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय साफल्यं देहि देहि स्वाहा:


बेसन का हलवा प्रसाद रूप में बना कर चढ़ाएं
एक अखंड दीपक जला कर रखें
रुद्राक्ष की मलका से 8 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की और मुख रखें

बच्चों की रक्षा का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय कुमारं रक्ष रक्ष


मीठी रोटी का भोग लगायें
दो नारियल भैरव जी को अर्पित करें
रुद्राक्ष की माला से 6  माला का मंत्र जप करें
पश्चिम की ओर मुख रखें

लम्बी आयु का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय रुरु स्वरूपाय स्वाहा:


काले कपडे का दान करें
गरीबों को भोजन खिलाये
कुतों को रोटिया खिलाएं
रुद्राक्ष की माला से 5  माला का मंत्र जप करें
पूर्व की ओर मुख रखें

बल प्रदाता मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय शौर्यं प्रयच्छ


काले रंग के कुते को पालने से भैरव प्रसन्न होते हैं
कुमकुम मिला लाल जल बहिरव को अर्पित करना चाहिए
काले कम्बल के आसन पर इस मंत्र को जपें
रुद्राक्ष की माला से 7  माला मंत्र जप करें
उत्तर की ओर मुख रखें

सुरक्षा कवच का मंत्र
ॐ भं भैरवाय आप्द्दुदारानाय बज्र कवचाय हुम


भैरव जी को पञ्च मेवा अर्पित करें
कन्याओं को दक्षिणा दें
रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें
पूर्व की ओर मुख रखें

 

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

धन-समृद्धि का आकर्षण


धन-समृद्धि को अर्जित करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ यानि कि ईमानदारी पूर्वक कठोर परिश्रम तो आवश्यक है ही। किंतु साथ ही कुछ जांचे-परखे और कारगर उपायों जिन्हें टोने-टोटके के रूप में जाना जाता है को भी आजमाना चाहिये। तो देखें ऐसे ही कुछ आसान किंतु प्रभावशाली टोटके को:
- धन समृद्धि की देवी लक्ष्मी को प्रति एकादशी के दिन नौ बत्तियों वाला शुद्ध घी का दीपक लगाएं।
 - घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर तांबे के सिक्के को लाल रंग के नवीन वस्त्र में बांधने से घर में धन, समृद्धि का आगमन होता है।
 - प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पीपल, तुलसी एवं सूर्य देव को जल अर्पित कर सुख-समृद्धि की प्रार्थना करें। 
- शनिवार के दिन कृष्ण वर्ण के पशुओं को रोटी खिलाएं।
 - घर का कोना-कोना साफ रखें और मुख्य द्वार पर रंगोली बनाएं।
 - घर आए अतिथि, साधु या याचक को यथा संभव प्रसन्न करके ही विदा करें।
 - अपनी ईमानदारी और मेहतन की कमाई का 2 प्रतिशत हिस्सा, जीव-जंतु, प्रकृति, राष्ट्र एवं समाज की भलाई में खर्च करें। यहां पर लगाया धन लाख गुना होकर शीघ्र ही लौट आता है।

ग्रहों को अपने अनुकूल बनाये


कहा जाता हैं ’’ ग्रहा धिंन जगत सर्वम ’’ अर्थात प्रत्येक मनुष्य ग्रह के अधीन रहकर कार्य करता हैं और सांसारिक सुख एवं दुखः को भोगता हैं। किन्तु मनुष्य अपने सुख का समय तो आराम से बिता लेता हैं और जैसे ही कष्ट प्राप्त होते हैं उस समय उसे ईश्वर के शरणागत होना पड़ता हैं। अपने पूज्य श्रेष्ठ लोगों से राय मशवरा लेकर समय बिताना होता हैं। उसी परेशानी के हल हेतु जब वह किसी विज्ञ ज्योतिषी के पास जाता हैं तो ग्रहों के प्रतिकूल होने की जानकारी प्राप्त करता हैं। उन्हें अनुकूल बनाने हेतु उसे कई उपाय करना होते हैं इस हेतु आप निम्न उपाय कर ग्रहों का प्रतिकूल से अनुकूल बना सकते हैं। ये उपाय परिक्षती हैं और सहजता से कम खर्च में स्वंय के द्वारा अथवा सामान्य सहयोग लेकर किये जा सकते हैं।

सूर्य के प्रतिकूल होने पर: -
1. भगवान सूर्य नारायण को ताँबे के लौटे से सूर्योदय काल में जल चढ़ावें व 3ाोहम सूर्याय नमः का जाप करें।
2. भगवान सूर्य के पुराणोक्त, वेदोक्त अथवा बीच मंत्र से किसी एक का 28000 बार जाप करें अथवा योग्य ब्राह्मण से करवायें।
3. सूर्य यंत्र को अपने दाहिने हाथ बांधे।
4. रविवार को भोजन में नमक का सेवन न करें।
5. सूर्योदय पूर्व उठकर पवित्र हो सूर्य नमस्कार करें।

चन्द्र के प्रतिकूल होने पर: -
1. भगवान शिव की अराधना सूर्योदय काल में करें।
2. भगवान शिव के स्त्रोत पाठ करें।
3. चन्द्र के पुराणोक्त, वेदाक्त अथवा बीज मंत्र में से किसी एक का 44000 बार जाप करें अथवा जाप करवायें।
4. सोमवार का व्रत करें।
5. मोती, दूध, चांवल अथवा सफेद वस्तु का दान करें।

मंगल ग्रह के प्रतिकूल होने पर: -
1. मंगलवार का व्रत करें।
2. भगवान हनुमान जी की अराधना करें।
3. मंगल के पुराणोक्त, वेदोक्त, तंत्रोक्त अथवा बीज मंत्र का 40000 बार जाप करें।
4. मसूर की दाल, लाल वस्त्र, मूंगा आदि का दान करें।
5. हनुमान चालीसा अथवा सुन्दर काण्ड का पाठ प्रातः काल में करें।

बुध ग्रह के प्रतिकूल होने पर: -
1. भगवान गणेश जी की अराधना करें।
2. आप कोई भी बुध मंत्र 34000 बार जाप करें।
3. बुध स्त्रोत का पाठ करें।
4. मूंग की दाल, हरे वस्त्र, पन्ना आदि का दान करें।
5. विद्वानों को प्रणाम करें व सम्मान करें।

गुरू के प्रतिकूल होने पर: -
1. सूर्योदय पूर्व पीपल की पूजा करें।
2. भगवान नारायण (विष्णु) की आराधना करें व सन्तों का सम्मान करें।

शुक्र के प्रतिकूल होने पर: -
1. शुक्र स्त्रोत का पाठ करें।
2. नारीजाति का सम्मान करें।
3. सफेद चमकीले वस्त्र एवं सुगन्धित तेल आदि वस्तुओं का दान करें।
4. 3ाोम शुक्राय नमः या अन्य किसी शुक्र मंत्र का 64000 बार जाप करें।
5. औदुम्बर वृक्ष की जड़ को दाहिने हाथ पर सफेद डोरे में बाँधे।

शनि के प्रतिकूल होने पर: -
1. शनि स्त्रोत का पाठ करें एवं किसी भी शनि मंत्र का 92000 बार जाप करें।
2. जूते, चप्पल, लोहे, तेल आदि का दान करें।
3. शनिवार का व्रत करें एवं रात्रि में भोजन करें।
4. हनुमान चालीसा अथवा सुन्दर काण्ड का पाठ करें।
5. नित्य हनुमान जी के दर्शन कर कार्य प्रारम्भ करें।

राहू के प्रतिकूल होने पर: -
1. भगवान शिव की अराधना करें।
2. राहू के मंत्र का जाप करें।
3. गरीब व निम्न वर्ग के लोगों की मदद करें।
4. राहू स्त्रोत का पाठ करें।
5. सर्प का पूजन करें।

केतु के प्रतिकूल होने पर: -

1. भगवान गणेश जी की अराधना करें।
2. प्रतिदिन स्वास्तविक के दर्शन करें।
3. केतु के मंत्र का जाप करें।
4. गणेश चतुर्थी का व्रत करें।
5. लहसुनियां का दान करें।

अच्छे जीवन साथी के लिए करें यह उपाय


क्या आपका मन किसी को पाने के लिए या जीवन साथी बनाने के लिए मचल रहा है? क्या आपके पास सबकुछ होते हुये भी प्यार नहीं है? क्या आपकी शादी नहीं नहीं हो पा रही? तो ये परेशान मत होइए आज हम आपके लिए लाये हैं वो सभी उपाय जिनको करने के बाद आपकी प्रेमिका कहेगी कि मैं जोगन तेरे प्रेम की.........
 जब भी किसी को प्रेम करें तो याद रखें कि संयम और प्रतीक्षा सबसे उत्तम उपाय है 
ईश्वर से प्रेम के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि दुआओं में असर होता है
प्रेम प्राप्ति के लिए आप भगवान् कामदेव और देवी रति के साथ साथ शिव-शक्ति,गणपति,और भगवान विष्णु जी की पूजा कर सकते हैं
इन्द्र देवता,अग्नि देवता,चन्द्रमा देवता,अप्सराओं व यक्षिणी देवियों की उपासना भी प्रेम प्रदान करती हैं 
देवी दुर्गा जी से मांगी गयी प्रेम व सुख शान्ति सौभाग्य की तत्काल पूर्ती होती है 
यदि प्रेम विवाह करना चाहते हैं तो ब्रत एवं दान बहुत सहायक होते हैं 
प्रेम प्राप्ति के कुछ अति सरल दिव्य मंत्र 
कृष्ण जी का मंत्र -ॐ क्लीं कृष्णाय गोपीजन बल्लभाय स्वाहा:
कृष्ण मंदिर में मुरली बांसुरी ले जा कर अर्पित करें 
पान अर्पण से प्रेम प्राप्ति होती है 
यदि प्रेम में फूट पड़ गयी हो तो उसे पुनह पाने के लिए भैरव जी की पूजा अचूक उपाय है
भैरव देवता को मीठी रोटी का प्रसाद बना कर अर्पित करें 
मानसिक तौर से उत्तरनाथ भैरव का मंत्र जपें 
भैरव जी का मंत्र-ॐ ज्लौम रहौं क्रोम उत्तरनाथ भैरवाय स्वाहा:
यदि आप किसी को अपना बनाना चाहते हैं तो माँ शक्ति की पूजा करे
माता को लाल रंग का झंडा अर्थात ध्वजा चढ़ाएं व मनोकामना मांगें 
माँ शक्ति का मंत्र-ॐ नमो मोहिनी महामोहिनी अमृत वासिनी स्वाहा:
देवराज इन्द्र की पत्नी इंद्रायणी की स्तुति को अमोघ माना जाता हैं कई ऋषि पुत्रियों ने उनकी स्तुति कर वर पाया है
इंद्रायणी देवी की पूजा उन्हें करनी चाहिए जो नहीं जानते की उनके जीवन में कौन आने वाला है 
तब देवी प्रसन्न हो कर अत्यंत स्रेष्ठ प्रेमिका व पति या पत्नी प्रदान करती है 
इंद्रायणी देवी का मंत्र-ॐ देवेंद्राणी विवाहं भाग्यमारोग्यम देहि मे
बीस के अंक को विवाह का अंक माना जाता है विवाह में समस्या पर चार खाने बना कर केवल बीस बीस लिखना चाहिय 
बीस के इस यन्त्र को धारण करने से या पास रखने से विवाह हो जाता है 


यन्त्र-  20     20     20     20
          20     20     20     20
          20     20     20     20
          20     20     20     20


गोमेद नामक रत्न को गलें में पहनने से विवाह लाभ होगा 
चांदी में मोती की अंगूठी पहनने से प्रेम बढेगा 
हीरे अथवा जरकन के आभूषण प्रेम में बृद्धि करेंगे 
नीलम की अंगूठी प्रतिष्ठित कर पहनने से और संकल्पित करने से प्रेम में सफलता मिलती है 
शहद के रुद्राभिषेक से मनचाहा प्रेम मिलेगा 
सोलह सोमवार के ब्रत से योग्य सुन्दर सुशील पति मिलेगा 
अन्न दान करने से प्रेम विवाह संपन्न होता है 
गौरी देवी को चुनरी श्रृंगार चढाने व मौली बांधने से मनमीत मिलता है 
मधुर व्यबहार मीठी बाणी जीवन में स्थाई प्रेम प्रदान करने में समर्थ हैं 
धीरज और संतोष के साथ साथ सकारात्मक आत्मविश्वास भी होना चाहिए 
योग मेडिटेशन और संगीत सहित शाकाहार को अपनाएँ 
नशों से दूर रहना चाहिए 

दक्षिणावर्ती शंख करेगा मालामाल


इस संसार में अनेकों वस्तुएं ऎसी होती है जो किसी चमत्कार से कम नहीं है। ऎसी चमत्कारी वस्तुओं में दक्षिणावर्ती शंख भी एक है। शंख की महिमा और महत्तव प्रत्येक अनुष्ठान में विशेष रूप से हैं।
भगवान विष्णु के चार आयुधों में शंख प्रमुख है। प्रत्येक विशेष पूजा में शंख द्वारा अभिषेक का महत्तव है। सभी विद्वान और आमजन इस चमत्कारी दक्षिणावर्ती शंख के प्रभाव और चमत्कार के बारे में एकमत हैं। समुद्र देव द्वारा निर्मित इस तेजस्वी शंख को जो मनुष्य अपने घर और व्यापार स्थल के पूजा स्थान अथवा तिजोरी में रखकर नित्य पूजा करता है, उस व्यक्ति की दरिद्रता, अभाव, असफलता और सभी रोगों का नाश होता है। ऎसा शास्त्रों में भी लिखा है।
मां लक्ष्मी और दक्षिणावर्ती शंख की उत्पत्ति समुद्र से ही हुई है। दक्षिणावर्ती शंख जिसके घर में होता है, वहां लक्ष्मी स्थिर होकर रहती है और सब मंगल ही मंगल होता है तंत्र शास्त्र में धन प्राप्ति के कई टोटके बताए गए हैं। इन टोटकों को करने से धन आदि सभी सुखों की प्राप्ति होती है। धन प्राप्ति का ऐसा ही एक अचूक टोटका इस प्रकार है-

टोटका

शुक्ल पक्ष के किसी शुक्रवार के दिन सुबह नहाकर साफ वस्त्र धारण करें और अपने सामने इस दक्षिणावर्ती शंख को रखें। शंख पर केसर से स्वस्तिक का चिह्न बनाएं और इसके बाद नीचे लिखे मंत्र का जप करें। मंत्र जप के लिए स्फटिक की माला का प्रयोग करें।

मंत्र

ऊँ श्रीं ह्रीं दारिद्रय विनाशिन्ये धनधान्य 
समृद्धि देहि देहि नम:

इस मंत्रोच्चार के साथ-साथ एक-एक चावल इस शंख के मुंह में डालते रहें। चावल टूटे न हो इस बात का ध्यान रखें। इस तरह रोज एक माला मंत्र जप करें। यह प्रयोग 30 दिन तक करें। पहले दिन का जप समाप्त होने के बाद शंख में चावल रहने दें और दूसरे दिन एक डिब्बी में उन चावलों को डाल दें। इस तरह एक दिन के चावल दूसरे दिन उठाकर डिब्बे में डालते रहें।।

30 दिन बाद जब प्रयोग समाप्त हो जाए तो चावलों व शंख को एक सफेद कपड़े में बांधकर अपने पूजा घर में, फैक्ट्री, कारखाने या ऑफिस में स्थापित कर दें। इस प्रयोग से आपके घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होगी।

दक्षिणावर्ती शंख करेगा मालामाल


मंगलवार, 27 नवंबर 2012

अपनी उलझी समस्याओं को सुलझाएं



शक्तियों का साक्षात चमत्कार
धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि कलियुग में शक्तियों का साक्षात चमत्कार देखने को मिलता है। किसी भी जातक ने थोड़ी सी भी पूजा-अर्चना कर ली उसे तुरंत लाभ मिलता है। अगर आप भी किसी भी समस्या से घिरे हैं और तत्काल निदान चाहते हैं तो शक्तियों का अद्भुत चमत्कार अनुभव कर सकते हैं। अगर आपको बाकई ढोंगी तांत्रिकों, बाबाओं, जादू-टोना वालों से बेहद तंग और परेशान हो चुके हैं तो सच्ची शक्तियों की कृपा प्राप्त कर अपनी उलझी हुई समस्याओं का निदान प्राप्त कर जीवन को खुशहाल बना सकते हैं। एक बार आपने शक्तियों की विशेष कृपा प्राप्त कर ली तो आपका जीवन धन्य हो जाएगा। हर जातक के जीवन में अनेकानेक समस्याएं आती रहती हैं उन से वह कुछ समय के लिए छुटकारा तो पा लेता है लेकिन कई समस्याएं ऐसी हैं जो जिंदगी भर जातक इनसे छुटकारा नहीं पा सकता। रोजाना का पारिवारिक कलह, पति-पत्नी में मन-मुटाव, आसपास के पड़ोसियों की द्वेष भावना, ऊपरी हवा का चक्कर, जमीन-जायदाद, कोर्ट-कचहरी, प्रेम में विफलता, तलाक की नौबत, धन की बेहद तंगी, बेरोजगार, सास-बहू में अनबन, किसी भी काम में मन नहीं लगना, बीमारियों का पीछा नहीं छूटना, शत्रुता जैसी समस्याएं हर जातक को घेरे रहती हैं। अगर आप इन सभी का सटीक निदान चाहते हैं तो एक बार जरूर संपर्क करें।

- पंडित राज
चैतन्य भविष्य जिज्ञासा शोध संस्थान
एमआईजी-3/23, सुख सागर, फेस-2
नरेला शंकरी, भोपाल -462023 (मप्र), भारत
मोबाइल : +91-8827294576
ईमेल : panditraj259@gmail.com

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

ब्रह्माण्ड नायिका महालक्ष्मी की आलोक मणी है- दीपमाला


अभिमान की लहरों पर बैठी आस्था कांच का घर है। सत्ता लोलुपता की पराकाष्ठा आत्मघात की ओर बढ़ रही है। ऐसे समय में कम से कम परमात्मा का पता चल जाना चाहिए, जो तुम्हारे भीतर ही बसा हुआ है। विश्व को समग्रता में देखना और समझना है तो आस्था, विश्वास और कर्म को स्वीकार करना होगा। आस्था और विश्वास सृष्टिकत्र्ता के धर्म चक्र  हैं। सृष्टि के आगार में विभाजन नहीं, समग्रता है। श्रद्धा हर धड़कन को पहचानती है। हर मुद्रा उससे अनदेखी नहीं है। मौन की भी एक भाषा है और अर्थपूर्ण अगाध अर्थों का भण्डार है। मानव इसीलिए समाज प्रिय है, क्योंकि श्रद्धा और विश्वासों तथा आस्थाओं के मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर आज भी आलोकित हैं। प्रेम के क्षणों में कोई अर्थ नहीं खोजे जा सकते, अर्थों का आग्रह तो विवाद के लिए है। आज की आस्थाओं की केन्द्र हंै- दरगाहें। आध्यात्मिक दस्तावेज आज भी समय के हस्ताक्षर हैं। प्यार और आत्मीयता से ही सृष्टि का सौन्दर्य निखरता है। तो आइए, दीपोत्सव की प्रकाश बेला में हम सृष्टिकत्र्ता से वार्तालाप करें। आपके सुख और वैभव की कामना हेतु श्रीसमृद्धि की देवी मां लक्ष्मी जी की आराधना करते हुए दीपमालिका का महोत्सव मनाएं। ब्रह्माण्ड नायिका महामाया लालित्यमयी मां लक्ष्मी जी के पूजन की विधियां जो अनंत एवं व्यापक हैं। मां लक्ष्मी के श्रद्धालुजनों के हितार्थ संक्षिप्त विधि विधान सहित दीपमालिका के पुण्य महापर्व पर पूजन विधि समर्पित है।
- गृह मंदिर में पंच देव पूजा : घर में पूजा स्थल में प्रवेश करने के पूर्व बाहर दरवाजे पर ही आचमन कर लें और तीन बार तालियां बजाएं और विनम्रता के साथ पूजा स्थल (पूजा घर) में प्रवेश करें।
- पूजन सामग्री व्यवस्था : पूजन सामग्री किस ओर रखना चाहिए, इस बात का भी शास्त्र ने निर्देश दिया है। इसके अनुसार पूजन सामग्री को यथा स्थान सजा देना चाहिए। बायीं ओर - (1) सुवासित जल से भरा कलश (उद्कुम्भ) (2) घंटा (3) धूपदानी (4) तेल के दीपक 21, 31 या अधिक दायीं ओर - (1) घृत (घी) का दीपक (2) सुवासित जल से भरा शंख सामने (1) कुं कुम (केसर) और कपूर के साथ घिसा गाढ़ा चंदन (2) पुष्प (3) ताम्रपात्र तथा पूजन की अन्य सामग्री रखें। भगवान के सामने (आगे) चौकोर जल का घेरा डालकर नैवेद्य की वस्तुएं रखें। पूर्वामुखी अथवा उत्तराभिमुखी हो, आचमन कर अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री पर
- मंत्र पढ़कर जल छिड़कें
मंत्र - ऊँ अपवित्र: पवित्रो वां सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत् पुण्डरीकांक्ष स बाह्मभ्यन्तर: श्ुाचि:।।
-  कलश स्थापना : कलश पर रोली से स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर कलश के गले में तीन धागा वाली मौली (रक्षा सूत्र) लपेटें। कलश स्थापना भूमि अथवा पाटे पर कुंकुम अथवा रोली से अष्ट दल कमल बनाएं। कलश में सुपारी, द्रव्य, दूब, पांच प्रकार के पत्ते, कुश आदि सुवासित जल में रख दें।
-   कलश (उदकुम्भ) की पूजा सुवासित जल से भरे हुए उदकुम्भ (कलश) की 'उद् कुम्भाय नम:Ó इस मंत्र से चन्दन, पुष्प, अक्षत (चावल) से पूजा कर उसमें तीर्थों के जल, चारों वेदों, तीर्थों, नदियों, सागरों, देवी-देवताओं का आवाहन करने के पश्चात् अक्षत और पुष्प कलश के पास छोड़  दें।
-  मंत्र
कलशस्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुद्र: समाश्रित:।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋ वेदोऽथ युजुर्वेद: सामवेदो ह्यथर्वण:
अंगेश्च सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता:।
अत्र गायत्री सावित्री शान्ति: पुष्टिकरी तथा।।
आयान्तु देव पूजार्थं दुरितक्षयकारका:।।
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन संनिधिं कुरू।।
सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि जलदा नदा:।
आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारका:।।
(आवाहन के पश्चात् कलश के मुख पर पूजित नारियल रख दें)
रू    शंख पूजन : शंख में दो दूर्वा, तुलसी और पुष्प डालकर ऊँ कहकर उसे सुवासित जल से भर दें। फिर निम्न मंत्र पढ़कर शंख में तीर्थों का आवाहन करेंं -
2    मंत्र- पृथिव्यां यानि तीर्थानि स्थावराणि चराणि च।
        तानी तीर्थानि शंखेऽस्मिन् विशन्तु ब्रह्मशासनात।।
अब शंखाय नम:, चन्दनं समर्पयामि कहकर, चन्दन लगाएं, तत्पश्चात् शंखाय नम: पुष्पं समर्पयामि कहकर पुष्प चढ़ाएं। देव पूजन में वेद मंत्र फिर आगम मंत्र और बाद में नाम मंत्र का उच्चारण किया जाता है। पूजा पात्रों को यथा स्थान पर रखकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके-आसन पर बैठकर तीन बार आचमन करना चाहिए। (1) ऊँ केशवाय नम: (2) ऊँ नारायणाय नम: (3) ऊँ माधवाय नम: आचमन के बाद बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजन सामग्री तथा पूजन स्थल पर बैठे श्रद्धालुओं पर जल छिड़कना चाहिए।
- स्वस्ति वाचन
श्री मन्महागणाधिपतये नम:। श्री लक्ष्मी नारायणभ्यां नम:।।
-  पंचदेव पूजन विधि : हाथ में पुष्प, अक्षत आदि लेकर निम्न मंत्रों का जाप कर वेदी पर चढ़ाएं -
(1) श्री मन्ममहागणाधिपतये नम:
(2) लक्ष्मी नारायणाभ्यां नम:
(3) उमा महेश्वराभ्यां नम:
(4) मातृ-पितृ चरणकमलेभ्यो नम:
(5) इष्ट देवताभ्यो नम:
(6) कुल देवताभ्यो नम:
(7) ग्राम देवताभ्यो नम:
(8) वास्तु देवताभ्यो नम:
(9) सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:
-  महालक्ष्मी पूजन विधि : भगवती लक्ष्मी चल एवं अचल, दृश्य, अदृश्य सभी सम्पत्तियों, सिद्धियों एवं निधियों की अधिष्ठात्री साक्षात् नारायणी हैं। भगवान श्रीगणेश सिद्धि, बुद्धि एवं शुभ और लाभ के स्वामी हैं तथा सभी अमंगलों एवं विघ्नों के नाशक हैं। ये सत-बुद्धि प्रदान करने वाले हैं। अत: इनके समवेत पूजन से सभी कल्याण-मंगल एवं आनंद प्राप्त होते हंै। पूजन के लिए किसी चौकी या कपड़े के पवित्र आसन पर गणेश जी के दाहिनी ओर माता महालक्ष्मी की स्थापना करना चाहिए। प्रतिष्ठा - बायें हाथ में अक्षत लेकर निम्न मंत्रों को पढ़ते हुए दाहिने हाथ से उन अक्षतों को गणेश जी की प्रतिमा (चित्र) पर छोड़ते जाएं। भगवान गणेश का ध्यान करें-
2    मंत्र - गजानंन भूतगणादि सेवतं कपित्थ जम्बूफल चारू भक्षणम।
    उमा सुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम।।
इसके पश्चात् प्रधान पूजा में भगवती महालक्ष्मी का पूजन करें।
ध्यान मंत्र - (आवाहन)
सर्व लोकस्य जननीं सर्व सौख्यप्रदायिनीम्।
सर्वदेवमयीमीशां देवीभावाहयाभ्याहम्।।
ऊँ तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्।।
आवाहन के लिए पुष्प लें-
2    मंत्र- ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। महालक्ष्मी मावाहयामी,
आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामी। (आवाहन के लिए पुष्प लें)
आसन के लिए - (कमल आदि पुष्प लें)
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। आसनं समर्पयामी
(आवाहन के लिए कमलादि पुष्प अर्पित करें)
पाद्य -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। पादयो: पाद्यं समर्पयामि।
(चन्दन-पुष्पादियुक्त जल अर्पित करें)
अघ्र्य -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। हस्तयोरध्र्यं समर्पयामी।
(अष्टगंध मिश्रित जल अध्र्य पात्र से देवी जी के हाथों में दें)
आचमन -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। आचमनीयं जलं समर्पयामी
(आचमन के लिए जल चढ़ावें)
स्नान -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। स्नानं जलं समर्पयामी।
(शुद्ध जल से मंत्रोच्चार के साथ स्नान करावें)
दुग्ध स्नान -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। पय: स्नानं समर्पयामी।
पय: स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानानं समर्पयामी।
(दूध से स्नान कराने के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
दधि स्नान -
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। दधि स्नानं समर्पयामी।
दधि स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामी।
(दही से स्नान कराने के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
घृत स्नान-
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। घृत स्नानं समर्पयामी।
घृत स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामी।।
(घी से स्नान कराने के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
मधु स्नान (शहद)
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। मधु स्नानं समर्पयामी।
    मधु स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामी।।
(मधु स्नान के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
शर्करा स्नान (शक्कर)
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। शर्करा स्नानं समर्पयामी।
शर्करा स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामी।।
(शर्करा स्नान के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
पंचामृत स्नान-
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। पंचामृत स्नानं समर्पयामी।
पंचामृत स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामी नम:।।
(पंचामृत से स्नान कराने के बाद पुन: शुद्ध जल से स्नान करावें)
मां लक्ष्मी जी को स्नान कराने के पश्चात् प्रतिमा का अंग-प्रोक्षण कर शुद्ध पीले या लाल वस्त्र की आसनी पर उन्हें विराजमान करें।
वस्त्र
2    मंत्र- ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। वस्त्रं समर्पयामी (वस्त्र अर्पित करें)
आभूषण
2    मंत्र- ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। नानाविधानी कुण्डलकटकादीनि
आभूषणानि समर्पयामि।
(आभूषण समर्पित करें)
सिन्दूर चढ़ावें
2    मंत्र- ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। सिन्दूरं समर्पयामि
(देवीजी को सिन्दूर चढ़ावें)
कुंकुम अर्पित करें
2    मंत्र - कुंकुम कामदं दिव्यं कुंकुम कामरूपिणम्।
अखण्डकाम सौभाग्यं कुंकुमं प्रतिगृहयताम्।।
ऊँ महालक्ष्म्यै नम: कुंकु म समर्पयामि।
(कुंकुम अर्पित करें)
पुष्पसार (इत्र) अर्पित करें -
2    मंत्र- तैलानि च सुगन्धीनि द्रव्याणि विविधानि च।
मया दत्तानिलेपार्थं गृहाण परमेश्वरि।
(सुगंधित तेल एवं इत्र चढ़ावें)
अक्षत अर्पित करें
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। अक्षतान् समर्पयामि।।
(कुं कुमयुक्त अक्षत अर्पित करें)
पुष्पमाला चढ़ावें -
2    मंत्र - माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मयानीतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम।।
ऊँ मनस: काममाकूतिं वाच: सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्न्स्यमयि श्री: श्रयतं यश:।।
(पुष्प तथा पुष्पमालाओं से अलंकृत करें यथा संभव लाल कमल के
फूलों से)
दूर्वा चढ़ावें
2    मंत्र - विष्णवादिसर्वदेवानां प्रियां सर्वेसुशोभनाम्।
क्षीरसागरसम्भूते दूर्वां स्वीकुरू सर्वदा।।
ऊँ महालक्ष्म्यै नम:। दूर्वाअंकुरान समर्पयामी
(मंत्र जाप के साथ दूर्वा चढ़ावें)
अंग पूजा - रोली, कुंकुम मिश्रित अक्षत-पुष्पों से निम्नांकित एक-एक मंत्र पढ़ते हुए अंग पूजा करें।
(1) ऊँ चपलायै नम:, पादौ पूजयामि।
(2) ऊँ चंचलायै नम:, जानुनी पूजयामि।
(3) ऊँ कमलायै नम:, कटि पूजयामि।
(4) ऊँ कात्यायन्यै नम:, नाभिं पूजयामि।
(5) ऊँ जगन्मात्रे नम:, जठरं पूजयामि।
(6) ऊँ विश्ववल्लभायै नम:, वक्ष: स्थलं पूजयामि
(7) ऊँ कमलावासिन्यै नम:, हस्तौ पूजयामि
(8) ऊँ पदमाननायै नम:, मुखं पूजयामि।
(9) ऊँ कमलापत्राक्ष्यै नम:, नेत्रत्रयं पूजयामि
(10) ऊँ श्रियै नम: शिर:, पूजयामि
(11) ऊँ महालक्ष्म्यै नम:, सर्वांग पूजयामि
-  अष्ट लक्ष्मी पूजन : तदोपरान्त पूर्वादि क्रम से आठों दिशाओं में महालक्ष्मी के पास कुंकुमायुक्त अक्षत तथा पुष्पों से एक-एक मंत्र (के जाप) पढ़ते हुए आठ लक्ष्मियों का पूजन करें -
(1) ऊँ आद्यलक्ष्भ्यै नम:
(2) ऊँ विद्यालक्ष्भ्यै नम:
(3) ऊँ सौभाग्यलक्ष्भ्यै नम:
(4) ऊँ अमृतलक्ष्भ्यै नम:
(5) ऊँ कामलक्ष्भ्यै नम:
(6) ऊँ सत्यलक्ष्भ्यै नम:
(7) ऊँ भोगलक्ष्भ्यै नम:
(8) ऊँ योगलक्ष्भ्यै नम:
धूप अर्पित करें
2    मंत्र - ऊँ लक्ष्भ्यै नम: धूपमाध्रापयामि। (धूप दें) दीप पूजन (दीपोत्सव) कृपया, ध्यान रखें- दीपावली पूजन को दीपोत्सव भी कहते हंै। इसमें कम से कम 11, 21 या अधिक दीप प्रज्ज्वलित किये जाने चाहिए। किसी पात्र में (पीतल/स्टील का पात्र)। मंत्र के साथ- ऊँ दीपावल्यै नम: के साथ दीपों का गन्धादि उपचारों द्वारा - पूजन कर निम्न मंत्रों का जाप करें तथा पूजनोपरान्त धान का लावा इत्यादि पदार्थ गणेशजी, महालक्ष्मी जी तथा अन्य सभी देवी-देवताओं को अर्पित कर सभी दीपों को प्रज्ज्वलित कर पूजास्थल को अलंकृत कर दें।
(1) ऊँ लक्ष्म्यै नम:, दीपं दर्शयामी
(2) ऊँ गं गणपतये नम:, दीपं दर्शयामी
(3) ऊँ नारायणाय नम:, दीपं दर्शयामी
(4) ऊँ शिवाय नम:, दीपं दर्शयामी
(5) ऊँ ब्रह्मणे नम:, दीपं दर्शयामी
(6) ऊँ सरस्वतै नम:, दीपं दर्शयामी
(7) ऊँ महिषमर्दिनी नम:, दीपं दर्शयामी
(कलश के चारों ओर नवग्रहों हेतु दीपक रखे, मंत्र जाप के साथ)
(1) ऊँ सूर्याय नम:, दीपं दर्शयामी
(2) ऊँ चन्द्रमाये नम:, दीपं दर्शयामी
(3) ऊँ भौमाय नम:, दीपं दर्शयामी
(4) ऊँ बुधाय नम:, दीपं दर्शयामी
(5) ऊँ बृहस्पतयै नम:, दीपं दर्शयामी
(6) ऊँ शुक्राय नम:, दीपं दर्शयामी
(7) ऊँ शनैश्चराय नम:, दीपं दर्शयामी
(8) ऊँ राहवे नम:, दीपं दर्शयामी
(9) ऊँ केतवे नम:, दीपं दर्शयामी
नैवेद्य निवेदित कर- जल अर्पित करें
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम: नैवेद्यं निवेदयामि, मध्ये पानीयम, उत्तराषोऽशनार्थं हस्त प्रक्षालनार्थं, मुख प्रक्षालनार्थं च जलम् समर्पयामि
आचमन - मंत्र के साथ आचमन के लिए जल लें
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:, आचमनीयं जलं समर्पयामि।
(नैवेद्य निवेदन करने के पश्चात् आचमन के लिए जल लें)
ऋ तुफल - मंत्र के साथ मां लक्ष्मी जी को ऋतु फल अर्पित कर आचमन हेतु जल लें।
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम: अखण्ड ऋ तुफलं समर्पयामि।
आचमनीयं जलं च समर्पयामि।।
मिष्ठान - मंत्र के साथ मां लक्ष्मी जी को मिष्ठान अर्पित करें।
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:, मिष्ठानं समर्पयामि।
ताम्बूल - (पूंगीफल) - मां लक्ष्मी जी को इलायची, लोंग, सुपाड़ी ताम्बूल (पान) अर्पित करें, इस मंत्र के साथ
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम: मुखवासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि।
दक्षिणा - परिवार/व्यवसाय स्थल पर सभी उपस्थित जन दक्षिणा चढ़ावें, मंत्र जाप के साथ।
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम:, दक्षिणां समर्पयामि
प्रदक्षिणा (हाथ जोड़कर)-
2    मंत्र - यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणिनश्यन्तु प्रदक्षिणपदे-पदे।
प्रार्थना (हाथ जोड़कर)
2    मंत्र - ऊँ महालक्ष्म्यै नम: प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि।
(प्रार्थना करते हुए नमन करें)
पूजन के अंत में - (समर्पण)
2    मंत्र - कृतेनानेन पूजनेन भगवती महालक्ष्मीदेवी प्रीयताम् न मम।
(यह मंत्र उच्चारण कर समस्त पूजन कर्म भगवती महालक्ष्मी को समर्पित करें तथा जल गिराएं। उपस्थित जनों को तिलक लगाएं और हाथ में मौली बांधें।)
2    आरती - मां महालक्ष्मी जी आरती करें सभी उपस्थित श्रद्धालुओं के साथ। अन्त में - प्रसाद वितरण कीजिए।
धनतेरस-दीपावली शुभ मुहूर्त
दीपावली का शुभारभ धनतेरस को दीप जलाकर करते हैं। धनतेरस तिथि का शुभ मुहूर्त 11.11.2012, रविवार को प्रात: 10 बजे से 12.11.2012, सोमवार को
प्रात: 8.15 मिनट तक, तदोपरांत छोटी दीवाली (नरक चैदस)। दीपावली 13.11.2012
को प्रात: 6.15 से रात्रि अन्त तक। 14.11.2012 को गोवर्धन पूजा।
लक्ष्मीपूजन का मुहूर्त 13 नवम्बर, 2012 दिन मंगलवार को सांय 5.15 से
रात्रि 2.20 तक। पूजन का विशेष शुभ मुहुर्त रात्रि 7.30 से 9 बजे एवं रात्रि 10.30 से 2.20
के मध्य है।


- पंडित पीएन भट्ट
अंतरराष्ट्रीय ज्योतिर्विद,
अंकशास्त्री एवं हस्तरेखा विशेषज्ञ
संचालक : एस्ट्रो रिसर्च सेंटर
जी-4/4,जीएडी कॉलोनी, गोपालगंज, सागर (मप्र)
मोबाइल : 09407266609
फोन : 07582-227159,223168 


शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

दर्शकों के दिलों में बसना चाहता हूं : दिलजान




सुर क्षेत्र में कमाल दिखा रहे पंजाब की शान दिलजान से बातचीत




परिणीता नागरकर

'फतह सुरों की, जीत संगीत की पर आधारित सुर-क्षेत्र रियल्टी शोज के बादशाह गजेन्द्र सिंह का भव्य पैमाने पर बना सिंगिंग रियल्टी शो है जो दर्शकों का पंसदीदा शो बन गया है। सहारा वन, कर्लस और पाकिस्तान के जियो टी वी पर प्रसारित हो रहे इस शो में 12 प्रतियोगी भाग ले रहे हैं। इन प्रतियोगियों में करतारपुर (जालन्धर) में जन्मे युवा गायक दिलजान की गायिकी के सभी दीवाने बन गये हैं। उनकी आवाज का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। पंजाब की शान दिलजान पिछले दिनों दुबई में इस शो की पहले भाग की शूटिंग खत्म करने के बाद पंजाब आए तो उन्होंने इस शो के बारे में अपने अनुभवों को बड़े फक्र से बताया। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

इस शो की खासियत क्या है?
'सुर-क्षेत्र एक अलग फार्मेट पर बना सिंगिंग रियल्टी शो है जो भारत और पाकिस्तान में छिपी संगीत प्रतिभाओं को दुनिया के सामने प्रस्तुत करेगा। इस शो के सभी 12 प्रतियोगी आजकल दर्शकों का दिल जीतने की कोशिशकर रहे हैं।

आपका इस शो के लिए चयन कैसे हुआ?
दिसंबर 2011 में सुर-क्षेत्र के लिए लुधियाना में आंडिशंस हुए थे। तकरीबन 300 चुने गये प्रतियोगियों में से केवल मुझे ही मुबंई में फाईनल ऑडिशन के लिए चुना गया। मैंने ऑडिशनस में गजलों के बादशाह स्वर्गीय जगजीत सिंह का यादगार गीत चिट्ठी न कोई संदेश और सूफियाना गीत 'आयो नी संयो गाया। गजेन्द्र सिंह की टीम को मुझमें एक सुरीली आवाज नजर आयी। मुंबई में भी मैंने अपनी गायिकी के बल पर हिमेश रेशमिया जैसे गायक और संगीत निर्देशक का दिल जीता।

आपकी नजर में हिमेश रेशमिया और आतिफ असलम कैसे हैं ?
देखिये हिमेश रेशमिया भारतीय टीम के कप्तान हैं और आतिफ असलम पाकिस्तान टीम के। दोनों संगीत क्षेत्र के धुरंधर माने जाते हैं। सेट पर दोनों अपने अपने प्रतियोगियों का हौसला बढ़ाते हैं। मुझे हिमेशजी से बहुत कुछ सीखने को मिला है। उन्होंने मेरी प्रतिभा को परखा और पहचाना अैर अब मैं उनकी और दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरने की कोशिश करूंगा।

संगीत में आपके गुरु कौन हैं?
मेरा बचपन से यह सपना था कि मैं एक गायक बनूं। मेरे पिताजी ने मुझे इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा दी। मुझे उस्ताद पूर्ण शाह कोटी का आशीर्वाद मिला है। मेरे सिर पर मास्टर सलीम जैसे अच्छे गायक का हाथ भी है। मैं इन सभी संगीत की चर्चित हस्तियों का शुक्रगुजार हूं जिनकी बदौलत मैं आज इस मुकाम पर पहुंचा हूं।

सुर क्षेत्र के जजों के बार में बताएं?
आशा भौसले जी, आबिदा परवीन जी और रूना लैला जी इस शो की जज हैं। तीनों का अपना अपना नजरिया है। सभी जज प्रतियोगिता में अच्छे सुरों का विशेष ध्यान रखते हैं। सुरों का जिसे अच्छा ज्ञान है वो ही इस शो का विजेता होगा। मै आशा जी से बहुत प्रभावित हूं। उन्होंने कई बार खड़े होकर मेरे गाये गीतों की प्रशंसा की है। मेरी नजर में तीनों जज बाखूबी अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

आपका संगीत का अब तक का सफर कैसा रहा?
मेरा संगीत का सफर अब तक अच्छा ही रहा है। मैं 2006 में 'आवाज पंजाब दी म्यूजिकल कंटेस्ट में रनर अप रहा। 'मेरी एक माता की भेंटों की एलबम आ चुकी है। दूसरी एलबम भी लगभग तैयार है जो इस शो के बाद रिलीज होगी। मेरी दूसरी एलबम का संगीत सचिन आहूजा ने दिया है।

आपका लक्ष्य क्या है?
बतौर गायक दर्शकों के दिलों में बस जाना। जैसा कि सभी गायकों का सपना होता है। कि वो बॉलीवुड में भी फिल्मों में गाएं तो मेरा भी यही सपना और लक्ष्य है।

शुक्रवार, 15 जून 2012

पर्यटक स्थल सनकुआ


सिन्धु नदी वन दण्डक सौ, सनकादि सौ क्षेत्र सदा जल गाजै




- राजकुमार सोनी

शौण्ड्र शैल की सुरम्य वनस्थली, अपलक आकाश की ओर निहारते एवं भूमि पूजन के लिए कुसुमांजलि बिखेरती हुई सघन द्रुमों से शोभित गिरि श्रृंखलाएं। चरणों के कल निनाद प्रपूरित विहंगावलियों के मृदुल स्वरों से बरबस मानव मन को आकृष्ट करते कलगानों से संबंधित अरण्य की मनोहारिणी आभा। उदित और अस्त होते हुए दिवाकर की हेमाभा से रचित चित्रावलियों से अन्र्ततम को आकृष्ट करती मनोवृत्तियों को केन्द्रीभूत कर प्रफुल्लित करती एवं विभिन्न दृश्यों  से स्वर्गिक आनंद का अनुभव कराती प्रकृति का मातृ तुल्य दुलार इस सनकेश्वर क्षेत्र की अपनी एक विशेषता है। प्रकृति के सान्त वातावरण में स्थित एवं सौन्दर्य से परिपूरित यह स्थान आधुनिक परिवहन साधना के द्वारा देश के बड़े-बड़े नगरों से जुड़ा होने पर भी शासन की उपेक्षा से अन्धकूप में पड़े व्यक्ति की तरह छटपटा रहा है। उसे आशा है शासन के स्नेह मय दुलार की जिसे हृदय में संजोए वह वर्षों से बाट जोह रहा है। आइये इस स्थान की कुछ विशेषताओं पर दृष्टि डालें।
आप अनुभव करेंगे कि प्रकृति के अपरिसीमित वरदानों से समन्वित खनिजों की अपरिमित समृद्धि से संयुक्त यह उत्कृष्ट स्थान एक मात्र केन्द्रीय शासन एवं प्रादेशिक शासन की उपेक्षा से ही सौतेली मां के शिशु की तरह दुलार से वंचित रहा है।
सेंवढ़ा जिला दतिया, मध्यप्रदेश की एक मात्र पहली तहसील है। दूसरी तहसील भाण्डेर को समलित किया गया है। यह स्थान न्यायालय, एसडीओ राजस्व, एसडीओपी, एसडीओ सिंचाई, पीडब्ल्यू डी इंजीनियर, विद्युत टावर, एसटीडी की दूर संचार सुविधाओं से पूर्णत: समन्वित है। देश की समृद्धशाली बैंकों की शाखाओं एवं चतुर्दिक गमन करती बसों द्वारा यह स्थान जुड़ा हुआ है। अनाज की एक बड़ी मंडी तथा शिक्षा एवं कला में स्नातकोत्तर शिक्षा की सुविधा प्राप्त पुरातात्विक भग्नावशेषों से युक्त बड़ी नगरी है। सिन्ध नदी विन्ध शैल की श्रृंखलाओं का आश्रय लेती हुई यहां अपना अनुपमेय प्रकृति वैभव बिखेरती है। इस स्थान पर आकर सिन्धु सरिता मनोरम झरने बनाती है। ऊपर से नीचे की ओर गिरती सिन्धु धारा, दुग्ध धवल होकर बड़ा मनमोहक दृश्य कर देती है। गिरते हुए जल से ऊपर की ओर उड़ते जल कण धूमयुक्त कुहरे का सुन्दर दृश्य उपस्थित कर शरीर स्पर्श से मानव मन को शीतलता प्रदान कर हरा कर देता है। नीचे पहाड़ों को काटकर बनाई गई सुरम्योपत्यकाएं अजन्ता और एलोरा की गुआओं की होड़ सी करती हुई हमारा मन आकर्षित करती हैं। सिन्धु नदी को पार करने के लिए दो सुरम्य सेतु हैं। एक बड़ा और दूसरा छोटा। ये दोनों ही सेतु इसकी सुरम्यता में चतुर्गुण वृद्धि करते हैं।
छोटे सेतु से सरित्प्रवाह को रोकने के लिए उसके दरवाजों में खांचे बने हुए हैं। जिनमें काष्ठ के पटिये डालकर उसके प्रवाह को रोका जा सकता है, जिससे एक बांध का स्वरूप बनकर पर्यटकों के लिए स्विमिंग पूल का कार्य पूर्ण करेगा। पहाड़ी, चट्टानों से मोहक दृश्य उपस्थित करता हुआ यह स्थान मठों, मंदिरों, शिवालयों, सतियों के स्मारकों से परिपूर्ण आगत यात्रियों, पर्यटकों को आनंद विभोर कर आश्चर्य चकित कर देता है।
सेंवढ़ा (सनकुआं) के संबंध में पद्म पुराण के तीर्थ खम्ड के द्वितीय अध्याय में विस्तार से वर्णन है। नारद जी सनत्कुमारों को तपस्या के लिए स्थान बताते हुए कहते हैं -
स्थलं पुष्प फलैयुक्तिं प्रसान्त स्वापदा हृतं।
भवद्भिस्तप्यतां तत्रयेन क्रोधस्तु शान्तिग:।।

एक अन्य स्थानीय राज्य सम्मान प्राप्त संस्कृत कवि इस सरिता के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
मज्जद्देव वधू कुच द्वय गलत्क स्तूरिका कुंकुमै:।
श्वेतैश्चंदन बिंदुश्चि तनुते शोभा प्रयागोद्भवाम।।
पंचद्वीचि विनाशिता शिल पायान्जना नन्दिका।
सां सिन्धु: सनकेश मस्तक लतापायादपायाज्जगत्।।

प्रसिद्ध संत कवि अक्षर अनन्य इस स्थान के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
सिन्धु नदी वन दण्डक सौ, सनकादि सौ क्षेत्र सदा जलगाजै।
काशी सौवास घनेमठ सम्बु के साधु समाज जै बोलै सदा जै।।
कोट अदूर बनौ हिरि पै प्रभु सौ प्राथिचन्द नरेस विराजै।
उद्धित मंदिर तीर नदी तिहि आसन अस्थितर अच्छिर छाजै।।

महाकवि मैथली शरण गुप्त एवं प्रसिद्ध कवि अजमेरी जी भी इसके प्राकृतिक वैभव का दर्शन कर लिखे बिना न रह सके। लेखक ने स्वयं भी हिन्दी एवं संस्कृत में अनेकों कविताएं अनुपम सौन्दर्यमयी सिन्धु के दिव्य दृश्यों से प्रभावित होकर लिखी हैं। जिनमें से संस्कृत का उदाहरण देखिये-
सुर सुरेन्द्र मनस्पृशे में कारिणी।
नियति क्रीडनिका सुखदा स्थली,
सनकादि तप प्रभचन्ति प्रवितनोतु रसं सरसमेन:।।
अति सुरम्य प्रकृत्यखिला मुदा,
सुरभि पुष्प चितन्वित सुद्रुमा;
तरुलता हरितां गिरि श्रृंखला,
सुमन रञजयतं गिरिकानन: गिरि शिखरे।
परिस्म्य शिवालय: विविध आश्रमसंत महत्व:
लसति निर्झर मञजु सरिच्छटा किरति
दिव्य हिमांशु रसंमुदर
शुंभ सरिंत्सलिलाद्रं सुखप्रदा वसंति सिंधु
तटं व्याभिरामसा।
सनकनंदन पावन तीर्थ या लसतिसा
सेवदेति शुभ प्रदा।

सिन्धु के किनारे निर्मित राज प्रासाद की उतुंग अट्टालिकाओं का दृश्य जन मन को आकर्षित करता है एवं प्राचीन दुर्ग की प्रार्चा में व बुर्ज स्थान की शोभा में वृद्धि कर पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र बन जाते हैं। वास्तु कला की दृष्टि से दुर्ग के अन्तरस्थ रनवासों, प्रासादों की निर्माण कला अत्यंत उत्कृष्ट है। शत्रु के आक्रमण से सुरक्षा की दृष्टि से भी ये दुर्ग अपने में अनूठा और बेजोड़ है।
सनकादि ऋषियों की तपस्थली होने के कारण यह सृष्टि के आरंभ में भी गणमान्य स्थानों में था। इस कारण पौराणिक काल में यह समृद्ध स्थानों की श्रेणी में आता रहा होगा, जिसके प्रमाण यहां के मठ, मंदिर और भवन दुमंजिले, तिमंजिले खण्डर हैं। अत: पुरातत्वविदों के लिए यहां पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। प्राचीन मूर्तियां यहां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अमरा ग्राम से प्राप्त एक शिव मूर्ति जो उत्खनन से प्राप्त है, बौद्ध कालीन मूर्तिकला में बेजोड़ है। राजराजेश्वरी माता मंदिर के पास स्थित चबूतरे पर जो नव दुर्गा की मूर्ति थी वह कला की दृष्टि से अद्वितीय थी जिसमें पत्थर को बारीक काटकर आभूषण पहनाये गए थे, वह आश्चर्य चकित कर देने वाली मूर्ति थी, यह मूर्ति सन् 1992 में चोरी चली गई। इसी तरह अजयपाल के विकट प्राप्त पत्थर की बारीक कटाई से युक्त प्राचीन सुन्दर मूर्तियां भी चोरी चली गईं। टंकन कला में अद्वितीय ये मूर्तियां सुरक्षा की व्यवस्था न होने से प्रतिवर्ष चोरों की जीविका का साधन बनी हुई हैं। ये चोर विदेशों में इन मूर्तियों को ऊंचे दामों में बेच देते हैं।
पुराने सेंवढ़ा में उत्खनन से नक्काशीदार पक्के रंगीन चित्रकारी से युक्त जो भवन भूमि के नीचे से निकाले गए हैं वे पुरातत्वविदों के लिए शोध की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करने में बहुत सहायक हैं।
सेंवढ़ा से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विशाल रतनगढ़ वाली माता का अत्यन्त प्राचीन सिद्ध मंदिर है। यह स्थान अब जन आकांक्षाओं को पूर्ण करने वाला स्थान बन गया है। यह स्थान हर सोमवार को दर्शनार्थियों के आवागमन से परिपूर्ण रहता है। दीपावली की दौज को हर साल विशाल मेला लगता है, जिसमें लाखों भक्त दर्शन करने आते हैं और अपनी मुरादें पूरी करते हैं। भाईदौज, दीपावली को द्वितीया के दिन अपार जन समुदाय और दुकानदारों के आगमन से एक विशाल मेले का रूप धारण कर लेता है। इस मंदिर के पीछे कुंवर साहब बाबा का स्थान है जिनके नाम से सर्प के बंध लगाए जाते हैं। कोबरा, काले विषधर सर्प का काटा हुआ व्यक्ति भी इनके नाम से बंध से बच जाता है। बंध काटने के दिन व्यक्ति को बेहोशी के चिन्ह आते हैं और रोगी बच जाता है। उपरोक्त स्थान के संबंध में ऐतिहासिक घटना है जो सत्य बताई जाती है। राजस्थान की पश्चिमी के अतिरिक्त अलाउद्दीन खिलजी ने राजा रतन सिंह की पुत्री रतनकुंवर के रूप सौन्दर्य की प्रसंसा सुन रखी थी। रूप सौन्दर्य में अद्वितीय रूपकुंवर को पदमिनी ही कहा जाता है। अत: उसने इस स्थान पर चढ़ाई कर दी। सात पुत्रों और एक पुत्री के पिता राजा रतनसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी से लोहा लेने में ही अपना हित समझा। अलाउद्दीन की विशाल सेना के समक्ष एक सामान्य राजा कहां तक लड़ सकता था, अत: रत्नसिंह के सातों राजकुमार तथा स्वयं रत्नसिंह केशरिया बाना पहनकर युद्ध में काम आये। पुत्री रत्नकुंवर ने पृथ्वी मां से प्रार्थना की और वह उसी स्थान पर पृथ्वी में समा गई। रनवास की स्त्रियों ने जौहर किया और वहीं जल गईं। इस युद्ध की सत्यता को प्रमाणित करने वाला हजीरा जो हजारों सौनिकों के मरने की स्मृति स्वरूप बनाया जाता है। आज भी मरसैनी के आगे रतनगढ़ मार्ग पर बना हुआ है। जहां रत्नसिंह की तोपों से अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक मारे गए थे। वहीं राजपुत्री रतनकुंवारी देवी के रूप में आज भी पूजी जाती हैं। जहां सभी दर्शनार्थियों की इच्छाएं पूर्ण होती हैं। तथा उनके सातों भाई कुंवर साहब के रूप में पूजे जाते हैं। जिनके स्मारक वन्य शैल पर स्थान-स्थान पर बने हैं। बड़े भाई के नाम पर कुंवंर साहब का बंध लगाया जाता है जो सर्पदंश से रक्षा करता है। अन्य भाइयों के स्थानों पर भी लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस स्थान से दो किलोमीटर पर देवगढ़ का सुरम्य स्थान एवं किला है जहां विशालकाय हनुमान जी की मूर्ति सद्य सिद्धि देने वाली है।







रविवार, 13 मई 2012

नारी उत्पीडऩ समस्या व समाधान

- सुशीला मिश्रा
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता:।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो: नम:॥

    भारत वर्ष में नारी की शक्ति रूप में पूजा होती है इसलिये यहाँ माँ सम्मानित और श्रद्धेय मानी गई है। सृजन से लेकर पालन कत्री के रूप में आदर्शों को संस्कार देकर वह पूज्य बन गई है परिवर्तन के साथ-साथ समाज के अनेक रूप बदलते गये प्राचीन काल में वैदिक मंत्रों से लेकर यज्ञों में सहयोग देती रही है।
    मुगल काल में पर्दाप्रथा और अशिक्षा ने उसको कुंठित कर दिया पर अंग्रेजी शिक्षा ने वर्तमान समय में उसमें आत्मविश्वास जगाया है वह समाज परिवार और राष्टï्र के प्रगति में अपना योगदान देने का प्रयास करने लगी है। अब अर्थयुग में अपने अधिकारों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिये संघर्षों से उलझती हुई मार्ग बना रही है। बच्चों के भविष्य के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी आवश्यकता है बिना धनोपार्जन के स्वास्थ्य जीवन समृद्ध परिवार जिसमें डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर आदि सहयोग देकर उसे सुधरने का अवसर दे रहे हैं।
    अनेक पर्तों में जीने वाली नारी उत्पीडऩ का शिकार भी बन रही है -
परिचय इतना/ इतिहास यही/ उमड़ी कलथी
मिट आज चली  - महादेवी वर्मा।
समाज स्वयं नहीं समझ पा रहा है कि वह नारी को किस रूप में देखना चाहता है। आदर्शमाता, पत्नी, बहन या मनोरंजन का साधन, वृद्धावस्था में उपेक्षित माता-पिता कभी अतीत, कभी वर्तमान को जोड़कर आँसू बहाते हैं। कुछ अच्छी डिग्रियां लेकर भी घर के बन्धन में सिसकती रहती हैं, बच्चे पैदा करना और रोटी बनाने में उनका जीवन सिमट गया है। शिक्षा का उत्साह दमन चक्रों में फंस गया है।
    नौकरी करके महिलायें धनोपार्जन से परिवार की सहायता करना चाहती हैं परन्तु कभी मार-पीट कर उन्हें बन्द कर दिया जाता है कभी दहेज के कारण जला दी जाती है, पुलिस रुपया लेकर आत्महत्या का केस बना देता है पर कोई नहीं पूछता आत्महत्या का कारण क्या है ? दण्ड से मुक्त व्यक्ति अपने को निर्दोष घोषित करता है।
    जो घर के बाहर निकलती हैं उन्हें बदचलन, चरित्रहीन कहकर लोग अपने को संतुष्टï करते हैं। विधवाओं की दशा और भी दयनीय है घर के भीतर उनका उत्पीडऩ और भी संघर्षशील है। आदर्शों की बात करने वाले उसे मनोरंजन का साधन बना देते हैं यह वैश्या बनाकर उसको बेचते और खरीदते हैं। दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी भयानक है। गरीबी और अशिक्षा के कारण वह नगरों और देहातों में काम करने के कारण पूंजीपतियों और व्यापारियों के द्वारा सतायी जाती हैं उनको कम सुविधायें प्राप्त होती हैं और आवाज उठाने पर कठोर दण्ड के साथ शारीरिक उत्पीडऩ भी सहना पड़ता है। शिक्षा बहुत मंहगी हो गई है अब ये डोनेशन नोमनेशन और प्रमोशन के घेरे में फंस गई हैं। विद्यालय दुकान बन गये हैं जहां शक्तिशाली और रईस घरों के बच्चे सुख भोगते हैं और रैगिंग आदि से पथभ्रष्टï हो जाते हैं, यह कैसा भविष्य बनाये गये ईश्वर ही जानें। गरीब बच्चों के लिये शिक्षा साक्षतर पर अधिक बल दे रही है। स्कूलों की हालत जर्जर है वातावरण प्रदूषित है पर अध्यापक, अध्यापिकाओं का वेतनमुक्त हाथ से सरकार देकर उनसे कर्तव्य कराने में असफल है। बी-एड करके नौकरी को लड़के-लड़कियां भटक रहे हैं। प्राइवेट स्कूल में चार-पाँच सौ की नौकरी करके कभी शिक्षा, कभी अपनी डिग्रियों को देखते है, यह कैसा मजाक उनके साथ हुआ है। 'जीवन में छात्र चौदह वर्ष न्यौछावर करके भटक रहा है न रोटी का पता है न देहरी का पता है। कहां वह सहारा पायेगा क्योंकि वह शिक्षाविद् है वर्तमान शिक्षा की उपज है।Ó वर्तमान समय में हमें बुनियादी चरित्र को जिसमें शिक्षा स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर मुख्य ध्यान देना होगा समाज के सुधार के लिये चरित्र-निर्माण को शिक्षा के साथ ही जोडऩा पड़ेगा तभी यह नारी और बाल उत्पीडऩ से मुक्ति पा सकेंगे। क्योंकि गरीब बच्चे पांच साल की उम्र से कमाऊ पुत्र बन जाते हैं उनको शिक्षा के लिये समय नहीं है और माता-पिता को इसका ज्ञान नहीं है। राष्टï्रीय महिला संस्थान इन्हीं उद्देश्यों को लेकर सन् 1975 से लेकर आज कर संघर्षशील है। अध्यक्ष स्व. श्रीमती प्रमिला श्रीवास्तव ने नारी जागृति में विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में नई ज्योति जगाई थी। उनके पुत्र श्री आदर्श कुमार उसी मशाल को लेकर महिलाओं में संगठन और कर्तव्य निष्ठïा से सहयोग प्रदान कर रहे हैं। हम महिलायें और हमारे बच्चे इस दिशा में उनके आभारी हैं।

सम्पर्क सूत्र
प्रांतीय उपाध्यक्ष- राष्टरीय महिला संस्थानसिविल लाइंस,
उरई - 285001 जिला जालौन (उ.प्र.)
फोन : 05162 - 252371


   
   

   




जीवन साथी के आने से क्या जीवन सुखमयी गुजरेगा



- पंडित राज (एमए)

    हस्तरेखा एक गहन अध्ययन का विषयरहा है हमारे भारत वर्ष में अनेकविद्वानों ने हथेलीपर उभरती आकृतियों के माध्यम सेअनेक भविष्यवाणियां की, जो कि वास्तव मेंअटल सत्य की भांति घटित हुईं। हस्त विज्ञान के महान ज्ञाता कीरो जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वास्तव में मानव के हाथों में अंकित चिन्हों सेउसके आने वाले समयका सही मूल्यांकन किया सकता है।
    विवाह रेखा (Marrige Line) या फिर लगाव रेखा (AffectiomLine) के संबंध में विचार करते समय यह देखनाभी अतिआवश्यकहै कि हाथ किस ग्रह सेप्रभावित है। व अन्य चिन्हों और संकेतों को भी अपनी विचार परिधि में लाना जरूरी है। केवल लम्बी सुन्दर रेखा ही विवाह संबंध या साथी दर्शातीहै, छोटी रेखायें विपरीतसंबंध प्रेम व आकर्षण विवाह करनेकी इच्छा का स्पष्टïी करण करती है।
    बुध क्षेत्रसे यह स्पष्टï अनुमान लगाया जा सकता है है कि विवाह संबंध किस आयु मेंहोगा। विवाह रेखा कनिष्ठïा उंगली के मूल से हृदय के ऊपर की आड़ी रेखाओं को कहा जाता है। यह रेखा हृदय रेखा के नजदीक हो तो यह आयु 15 से 19 व मध्य में हो तो 21से 28 वर्षतृतीयचरण पर हो तो 28 से 35 वर्ष की अवस्था में विवाह या जीवन साथी जिन्दगी में आएगा। सही तौर पर हृदय से कनिष्ठïा के मूल तक 60 वर्ष मान लें व बीच 30 वर्ष उसी के माध्यम से आयु की गणना करें।
    जिस जातक के हाथ में सूर्य पर्वत अधिक प्रबल हो वह जातक युवास्था में कदम रखते ही विवाह कर लेता है। ऐसा व्यक्तिजीवन साथी सुन्दर आकर्षकव तेजस्वी पसंद करता है इसके विपरीत  िमलने पर वह सुखी नहीं रह पाता है। गुरुपर्व अधिक प्रबल होने पर जातक विवाह को अधिक महत्व देता है। ऐसे जातक के हाथ में हृदय रेखा के समीप ही विवाह रेखा अंकित होगी व ऐसे जातक का विवाह छोटी आयु में हो जाएगा। शनि क्षेत्र प्रबल होने पर जातक विवाह को पसंद नहीं करता है धनवान होगा तो उसके दुर्गुण छिपे होंगे वह विवाह से पहले ही कई स्त्रियों से शारीरिक संबंध होंगे ऐसा व्यक्ति निश्चित तौर पर जीवन साथी का चुनाव ठीक तरह नहीं कर पाता है। हाथ में प्रथम लगाव रेखा पत्नी व मध्य आयु में पहुंचते-पहुंचते गहरी हो जाएंगी। शनि पर्व के साथ शुक्र क्षेत्र भी प्रबल हो तो ऐसा जातक दुष्कर्मी व भोग विलासी में लिप्त रहता है।
    बुध पर्वत पर स्पष्टï विवाह रेखा अंकित हो और साथ ही सूर्य रेखा सुन्दरता से गहरी सीधी अंकित हो व विवाह रेखा से एक रेखा निकल कर सूर्य पर्वत पर पहुंच जाये व साथ ही गुरु पर्वत पर क्रास हो तो उस व्यक्ति का विवाह काफी धनवान व प्रतिष्ठिïत जगह पर होगा।
    विवाह रेखा सुन्दरता से अंकित हो और भाग्य रेखा में चन्द्र पर्वत से उभरती हुई एक रेखा (प्रभाव रेखा) शनि रेखा में आकर मिल जाये व साथ ही सूर्य रेखा सीधी व टूटी या छिन्न-भिन्न न हो तो ऐसा व्यक्ति विवाह के पश्चात सम्मानीय व धनवान हो जाता है।
    यदि भाग्य रेखा जीवन रेखा के अन्दर शुक्रक्षेत्र से आरंभ हो तो ऐसा जातक अपने जीवन साथी पर आधारित रहता है। स्त्री हो तो पति पर पति हो पत्नी पर आधारित रहता है। ऐसे जातक का भाग्य ठीक तरह सुखमय नहीं गुजर पाता है। चन्द्रक्षेत्र से प्रभाव रेखा शनि रेखा के साथ-साथ चले तो वह प्रेम संबंध की सूचक होगी। यदि वह रेखा भाग्य रेखा को काटकर प्रथम मंगल क्षेत्र पर पहुंच जाये तो प्रेम घृणा में परिवर्तित हो जाएगा। फलस्वरूप जातक अपना कैरियर चौपट कर लेगा। विवाह रेखा सुन्दरता से स्पष्टï हो व भाग्य रेखा हृदय रेखा पर समाप्त हो व दोनों हेथियों को मिलाने पर दोनों हाथ की हृदय रेखा का आधा चन्द्रमा बनता हो ऐसा जातक सुन्दर स्त्री से प्रेम विवाह (लव मैरिज) करता है। विवाह रेखा का आगे का हिस्सा हृदय रेखा की तरफ झुकाव लिये हो वह शनि रेखा हृदय रेखा पर समाप्त हो उसी जगह प्रथम मंगल क्षेत्र में एक रेखा निकलकर आ जावे व आयु और मस्तक रेखा को काट वह मणिबंध के ऊपर प्रबल के मूल में एक त्रिकोण बन जावे तो जातक एक तरफा मोहब्बत में भ्रमित होता है। वह अपने जीवन का सत्यानाश कर लेता है।
    यदि विवाह रेखा कनिष्ठïा उंगली के मूल में प्रवेश कर जाये तो ऐसा व्यक्ति आजीवन कुंवारा रहता है व शुक्र क्षेत्र से जितनी रेखाएं प्रहार करती होंगी उतने ही परिवार के लोग विघ्न डालेंगे व मंगल क्षेत्र से प्रहार करती हों तो मिलने-जुलने, जलने, ईष्र्या रखने वाले लोग विघ्न डालेंगे।
    यदि विवाह रेखा हृदय रेखा में जुड़ जाये व आगे बढ़ती हुई मंगल क्षेत्र पर उसकी एक शाखा पहुंच जाये तो जल्दी ही उसके जीवन साथी का साथ छूट जाएगा व उसके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। जिस जातक के हाथ में विवाह रेखा नहीं है ऐसे जातक को हृदय से संबंधित रोग हो जाएंगे व शनि प्रबल हो साथ ही शुक्र प्रबल हो और लालिमा लिये हो तो ऐसा व्यक्ति वासनात्मक स्थिति में पहुंच जाता है। अगर हृदय रेखा छिन्न-भिन्न हो तो हृदय रोग से मृत्यु तक की संभावना होगी।
    विवाह रेखा पर क्रास, दीप, द्विशारणी हो जाये तो ऐसे व्यक्ति का जीवन विवाह के पश्चात जीवन साथी से तनाव व कलह बना रहेगा। व मंगल क्षेत्र पर मंगल रेखा व आयु के बीच की उध्र्व रेखा टूट जाये या हल्की पड़ जाये या मंगल क्षेत्र से एक रेखा निकल कर विवाह रेखा में मिल जाये तो स्थिति तलाक तक पहुंच जाएगी।
    विवाह रेखा जातक के हाथ में झुकी हुई हो तो उसके जीवन साथी की उससे पहले मृत्यु होगी। पति के हाथ में झुकी हो पत्नी की और पत्नी के हाथ में झुकी हो तो पति का स्वर्गवास पहले होगा।

ज्योतिष रहस्य भ्रम एवं निवारण





    वर्तमान समय में भारतीय ज्योतिष शास्त्र के नाम पर लिखित एवं अलिखित कुछ ऐसी परिभाषायें प्रचलित की जा रही हैं जिसके चलते भारतीय ज्योतिष शास्त्र की गणना एक अन्ध विश्वास के रूप में आने वाले काल खण्ड में की जाने लगेगी - ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता - भारतीय ज्योतिष शास्त्र के आधार पर प्रचलित फलित के ज्योतिषाचार्यों, ज्योतिर्विदों और कर्मकाण्डियों के द्वारा एक भ्रम जो बहुत महत्वपूर्ण ढंग से प्रचलित एवं प्रसारित किया जा रहा है वह है कालसर्प योग। राहू और केतु के बीच में समस्त ग्रहों के होने, केतु और राहू के बीच में समस्त ग्रहों के होने से इस योग का फलित किया जा रहा है। कई दवा कम्पनियों द्वारा बड़े - बड़े सर्पों के बीच में श्री शिवजी जी मूर्ति जहर उगलते सैकड़ों मुखों वाले सर्पों के फोटो जो देखते ही भय उत्पन्न करते हैं, प्रचारित किये जा रहे हैं और उस काल सर्प-योग की शांति के लिये विशिष्टï स्थान विशिष्टï पूजा का निर्देश जिसमें हजारों लाखों रूपये का खर्चा होता है, वह निर्धारित स्थान पर जमा करने को जातकों को पहुँचाया जा रहा है। यह एकदम से ज्योतिष शास्त्र के फलितकारों की अज्ञानता को ढंकने का कुप्रयास है क्योंकि जन्म पत्रिका का अवलोकन करने परजब समझ में गोचरफल महादशा फल या कुण्डली के भावों का निर्धारण न आवे तो पितृ दोष - कालसर्प योग या मारकेश बताकर जातक को धमरा कर दिया जाता है।
    कालसर्प योग का वर्णन एवं समाधान आज से 20 वर्ष पूर्व तक किसी भी बड़े ज्योतिषाचार्य या स्थापित पुरातन आचार्यों वराहमिहिर, जैमिनी आदि ने नहीं किया यहां तक कि राहू एवं केतु की गणना गोचर एवं अष्टïकवर्ग में भी स्थान नहीं दिया गया है। राहू एवं केतु की गणना क्योंकि दशा महादशा में की गई इसलिये यह भी नहीं माना जा सकता कि महर्षि पाराशर आदि आचार्यों को राहू और केतु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं था। जहाँ तक मेरा मत है कि राहू और केतु की स्वतंत्र सत्ता को इन आचार्यों ने नहीं माना एवं छाया ग्रहों के रूप में दूसरे ग्रहों का प्रभाव लेकर अपना प्रभाव दिखाने की व्यवस्था दी गई है। इस संबंध में महर्षि पाराशर के वृहत्पाराशर होरा शास्त्र के 34 वें अध्याय का निम्नलिखित श्लोक देखें :-
    ''यदभावेश युतौ-वापि यदभाव समागतौ।
      तत् तत् फलानि-प्रबलौ प्रदिशेतां तमौ ग्रहों॥ÓÓ
    ''यदि केन्द्रे त्रिरोणे वा निवेसतां तमौ ग्रहौ।
      नाथे नान्यतरेणाढयौ दृष्टïौ वा योग कार कौ॥ÓÓ
अर्थात् राहू और केतु ये दोनों ग्रह जिस भावेश के साथ अथवा जिस भाव में रहते हैं तद्नुसार ही फल करते हैं। राहू और केतु केन्द्र में हों और त्रिकोणपति से युत या दुष्टï हों अथवा त्रिकोण में हों अथवा केन्द्रपति से युत या दुष्ट हों तो भी ये योग धारक रहते हैं।
    इसलिये इन छाया ग्रहों के राजयोग का फल अन्य ग्रहों की भाँति के स्वामित्व द्वारा नहीं किया जाता क्योंकि इनका किसी भी राशि का स्वामित्व नहीं है। राहू और केतु की परतंत्रता के कारण है अष्टïकवर्ग - होरा पद्धति (दिन की काल होरा) मुहूर्त एवं फलित में नहीं किया जाता। इनका अपना प्रभाव व इनके लिये प्रचलित एवं परम्परागत रूप से शनिवत राहू एवं कुजवत् केतु (मंगल) की तरह किया जाता है। यवनाचार्य के मतानुसार राहू केतु के शुभफल कुण्डली एवं गोचर (चन्द्रमा से) में 1-3-5-7-8-9 तथा 10 स्थानों में शुभ, बाकी में अशुभ होता है।
    उपरोक्त परिभाषा एवं विवरण से ऐसा कहीं पर स्पष्टï नहीं होता कि यह ग्रह इतने वली हैं कि इनके बीच में सप्त ग्रह के आने से कुण्डली के जातक का नुकसान या नाश होता है।
    लेखक का ऐसा अनुभव है कि बड़े-बड़े राष्टï्राध्यक्षों-राजनीतिक नेताओं, फिल्मकारों, जनरलों (मोक्ष दायान) की कुंडली में यह योग रहा और उन्होंने प्रसिद्धि के कीर्तिमान स्थापित किये। उदाहरण के लिये पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की कुंडली प्रस्तुत है :-

कुंडली जवाहरलाल नेहरू




श्री कृष्ण ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र शक्तिपुरम शिवपुरी के संस्थापक आचार्य पुरुषोत्तम दास गुप्त (पी.दास) के शोध में वास्तविक अर्थ यह है कि ज्योतिष के महान आचार्यों ने प्रकृति एवं ज्योतिष का एक बड़ा गहरा रिश्ता स्थापित करके सूर्य को केन्द्र मानकर एवं 6 ग्रहों को जो पृथ्वी की आकाशगंगा में सूर्य की आकर्षण शक्ति एवं अपनी स्वयं की ऊर्जा के आधार पर अपनी धुरी पर घूम रहे हैं एवं सूर्य के साथ प्रभाव लेकर पृथ्वी की व्यवस्था को प्रकाश एवं ऊर्जा के माध्यम से संचालित कर रहे हैं एवं विशिष्ट नक्षत्रों से गुजरते हुये अपना प्रभाव दिखाते हैं। उसको ही परिभाषित किया है। पंचांगों में प्रतिदिन की कालहोरा का आधार लें तो सूर्य से शनि तक ढाई घटी अर्थात 1-1 घंटे की 7 होरा प्रतिदिन मार्गों के लिये ली जाती है। इसमें कहीं भी राहू केतु को स्थान नहीं है।
    प्रत्येक ग्रह की दिशायें निर्धारित है किन्तु राहू केतु की कोई दिशा निर्धारित नहीं है। जिस प्रकार से पाराशरी पद्धति में दशाओं के लिये राहू केतु की स्थिति ली गई है उसी प्रकार से हथिया भारत में प्रत्येक दिन के लिये राहू काल कुबेला का वर्णन है। किन्तु किसी भी प्रकार से राहू एवं केतु जो वर्तमान में मेष एवं तुला राशि में क्रमश: चल रहे हैं और एक वर्ष के लगभग ये काल सर्प योग बारबार 3 चार माह के लिये भागा 15 दिनों के लिये जब चन्द्रमा वृश्चिक से मीन राशि तक भ्रमण करता है यह योग नहीं रहता, तो क्या इस वर्ष विश्व में जन्म लेने वाले लगभग 30 करोड़ जातक दुखी परेशान एवं असफल रहेंगे, क्या 2004 में सन्दर्भित स्थिति के जातक दुर्भाग्यशाली हैं।
    इस कालसर्प योग पर शोध करने पर ज्ञात हुआ कि भारतीय ज्योतिष में प्रत्येक ग्रह की आदमी के जीवन काल के महत्वपूर्ण पक्षों के निर्माण के लिये ग्रहों की आयु का प्रमाण किया गया है। बृहस्पति 16 वर्ष सूर्य 22 वर्ष चन्द्रमा 24-25 वर्ष मंगल 28 वर्ष बुध 30 वर्ष शुक्र 32 वर्ष शनि 36 वर्ष राहू 42 वर्ष केतु 48 वर्ष रहता है।
    जब जब भी कालसर्प योग वाले जातकों को लेखक ने परेशान एवं दुखी एवं असफल होते देखा है वह वर्ष खंड या तो 42 से 48 वर्ष राहू का समय, 48 से 54 वर्ष केतु के समय देखा है। लेख की एक प्रसिद्ध भविष्यवाणी जो पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के बारे में एक दैनिक समाचार पत्र में छपी थी उसमें एक श्लोक का संदर्भ देकर यह कहा गया था कि श्री नरसिंहराव कांग्रेस को डुबा देंगे - उसका कारण यह था कि उस समय श्री नरसिंहराव की राहू की महादशा प्रारंभ हुई थी (दिनांक 25.05.1995 से) और उसी राहू की अन्तर्दशा चल रही थी। श्लोक के साथ नरसिंहराव की कुंडली भी दी जा रही है :-

कुंडली
पी.वी. नरसिंहराव


द्वितीय भाव में राहू

श्लोक
    धन गते रविचन्द्र विर्मदने
    मुखतांकित भावयुतो भवेत्
    धन विनाशकरो हि दरिद्रतां
    स्व सुदृदां न करोति वचोग्रहाम
अर्थात् - जो धन स्थान में राहू हो तो वह पुरुष मुखरता से अंकित भाव से युक्त हो तथा धन का नाश करने वाला दरिद्री हो और अपने मित्रों का कथन न मानने वाला होता है।
अष्टïम स्थान पर राहू की दृष्टिï - 
निधनवेश्वनि राहू निरीक्षते वंशहानि बहुदुखितो नर:।
व्याधि दु:ख परिपीडि़तोऽथवा नीचकर्म कुरतेऽत्र जीवित:॥
    अष्टïम भाव पर राहू की दृष्टिï हो तो वंश हानि और वह पुरुष बहुत दुखी होता है। व्याधि के दु:ख से पीडि़त हो और अपने जीवन में नीचकर्म करने वाला होता है।
    उपरोक्त 25-5-95 के बाद चुनावों से पूर्व नरसिंहराव ने अर्जुनसिंह एवं स्व. महाराज माधवराव सिंधिया एवं वरिष्ठï नेताओं पर हवालाकाण्ड एवं अन्य आरोप लगाकर पार्टी से निकाला एवं कांग्रेस का चुनाव में सफाया करा दिया।
    लेखक का राहू और केतु के बारे में स्पष्टï रूप से यह मानना है कि जि मार्ग पर पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है या कहिये कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है, वह क्रांतिवृत एवं चन्द्रमा का पृथ्वी के चारों ओर का मार्ग वृत (अक्ष) ये दोनों जिन बिन्दुओं पर एक दूसरे को काटते हैं उनमें से एक का नाम राहू और दूसरे का नाम केतु है। आकाश के उत्तर की ओर बढ़ते हुये चन्द्रमा की कक्षा जब सूर्य को काटती है तब उस सम्पात बिन्दु को राहू और दक्षिण की ओर बढ़ते हुए चन्द्रमा की कक्षा जब सूर्य की कक्षा को पार करती है उस सम्पात बिन्दु को केतु कहते हैं।
    उपरोक्त परिभाषा से स्पष्टï है कि ये दोनों सम्पात बिन्दु हैं और इसी आधार पर जब सभी ग्रह परिक्रमा पक्ष पर इन बिन्दुओं के बीच में आते हैं तब उसी को काल सर्प योग बोला जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी व्यक्ति के पुण्यों का फल समाप्त होकर संचित पाप उदय होते हैं जो इसी जीवन में किये हुये होते हैं उस समय जब भी राहू केतु की दशा अन्तरदशा या गोचर विपरीत आता है तब व्यक्ति भय एवं भ्रम का शिकार होता है। इस समय का साधारण उपचार है। मूलत: भय निवारण हेतु अध्यात्म ज्योतिष में श्री हनुमान जी की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है। वहीं राहू केतु को धार्मिक आधार पर नष्टï करने का कार्य श्री विष्णु ने मोहिनी रूप रख कर किया था।
    अत: विष्णु को प्रिय चंदन (सफेद) की माला को धारण करना एवं अगर मृत्यु भय हो तो श्री शिव स्त्रोत चालीसा का पाठ या रुद्री के पाठ के साथ सोम प्रदोष या चतुर्दशी को रुद्राभिषेक करवाने से सर्व प्रकार की शांति होती है।
    अंत में पाठकगणों-विद्वानों से यह विशेष अनुरोध है कि कालसर्प योग या आंशिक कालसर्प योग के भ्रम में फंसकर अपना जीवन नष्टï न करें। ''प्रारब्ध पहले बना पीछे बना शरीरÓÓ यह सनातन धर्म की स्थापित मान्यता है। अपने इष्टïदेव की पूजा एवं सत्कर्म ऐसे विपरीत समय में करें, ऐसा समय दो या तीन वर्ष के लिये अवश्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आता है। अत: उपरोक्त उपचार या साधन से स्वस्थ एवं प्रसन्न होकर उत्साह पूर्वक जीवन यापन करें।



पुरुषोत्तमदास गुप्त 'पी.दास
शक्तिपुरम, (खुड़ा), शिवपुरी म.प्र.
फोन - 07492 - 233292
मोबाइल - 94251-37868
   
   

   
   




   






   

कालसर्प योग से भयभीत न हों



- पं. सत्यप्रकाश दुबे शास्त्री

कालसर्पयोग दोष से पीडि़त व्यक्ति आज चारों ओर भयभीत दिखाई दे रहा है। वह तांत्रिकों, ओझाओं व ढोंगी पंडितों के चक्कर में पड़कर धन व समय बरबाद करता रहता है, जबकि कालसर्प योग के आने से कतई नहीं घबराना चाहिए। पहले आप देंखे कि आपकी जन्मपत्रिका में कालसर्प है भी या नहीं अथवा किसी ने यूं ही बता दिया है जिससे आप खुद ही परेशान हैं। देखें - आपकी जन्म पत्रिका में बारह राशियों के बारह स्थान होते हैं जिसमें राहु-केतु सदा एक दूसरे से सातवें सन पर ही होते हैं। जब राहू-केतु किसी एक ओर अन्य कोई सात ग्रह एक तरफ आ जायें तो ऐसा योग ही कालसर्प योग कहलाता है। ऐसे कालसर्प योग व्यक्ति का जीवन संघर्षमय कटता है। इसके 3 भेद होते हैं - 1. इष्टïकारक 2. अनिष्टï कारक 3. मिश्रित।
कभी-कभी कालसर्प पीडित व्यक्ति सहज तरीके से नहीं वरना महासंघर्ष करके धन तथा सर्वोच्च पद भी प्राप्त कर लेता है तथा सर्वोच्च पद होने पर भी उसके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कालसर्प योग बहुच ऊंचाई अथवा बहुत नीचे ले जाता है। लेकिन इससे भयभीत नहीं होना चाहिए।
    कालपर्स योग की दशा में महामृत्युंजय पाठ, भगवान शिव का रुद्राभिषेक व पूजा-पाठ नित्य करने से इसका दोष कम हो जाता है। महामृत्युंजय का जाप योग्य पंडित द्वारा ही कराया जाना उचित रहता है। इसके जाप से अकाल मृत्यु, दु:ख-दारिद्र, भय का नाश हो जाता है। जातक को महामृत्युंजय यंत्र भी धारण करना चाहिए। इसके धारण करने से मारकेश, अनिष्टï योग व दुर्घटना योग टल जाता है। मंत्र इस प्रकार है -
ú ह्रïौं जूं स: भूर्भुव स्व:
ú त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिïवद्र्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धांमृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
ú भूर्भुव: स्व: जूं हौं ú

चेतना का शिखर यात्री - ताल-मर्मज्ञ - दशग्रीव




कवि, लेखक अपने साहित्य जगत में स्वतंत्र विचरण करता है, परन्तु उसकी रचना समाज को दिशा अवश्य देती है, वह जनमानस का वैचारिक पोषक भी होता है, कवि, लेखक, चिंतक सनकी होकर, सनक की हद भी पार कर सकता है और फिर 'सनकुआ का निवासी यदि सनकी हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं, भले ही वह 'समालोचना का शिकार क्यों न हो जाय। फिर भी प्रस्तुत है - एक सनक रचना का उदाहरण, बानगी या प्रेरक प्रसंग।

जीवन सदैव, उत्सव मय, रहना चाहिये -''नित्योत्सवो,  नित्य सौख्य नित्य श्रीर्नित्य मंगलम यही हमारी ऋषि प्रणीत, परंपरा रही है। वैसे तो - हमारे यहाँ - प्रत्येक तिथि, वार, दिवस - व्रत-त्योहारों से भरे पड़े हैं, किन्तु उत्सव तो पांच हैं - जो सभी को विशेष कर मुझे अधिक प्रिय हैं :-
1. धनतेरस
2. काली चौदस (कार्तिक कृष्ण 14)
3. दीपावली
4. अन्नकूट
5. भाई दौज।
भावन्त से ओतप्रोत जीवन क्षण - रामनवमी
श्रद्धा समर्पण से, भरा जीवन क्षण - जन्माष्टïमी।
(इसे साधना व भक्ति की पराकाष्ठïा का समय भी कहते हैं।)
1. धनतेरस का अर्थ :-
    हमारे पास जो भी हो, या आवे - द्रव्य-पात्र-अन्न, मानव-दानव, उसे अपने रस में लिप्त कर - अपना बनाकर ही वापस करें। आपके पास जो भी है - अन्न, वस्त्र, द्रव्य, पात्र, विद्या, सुख-शांति आदि - उसे आवश्यकतानुसार सभी को वितरित करें - उससे जो रसोद्भूति होगी वही धन्य है-'धनतेरसÓ जिसको कि रावण ने पाया। वह रसधन्य है। प्रभु ने जो भी दिया है उसे रस की तरह वितरित करें। अभावग्रस्त को तो देना ही है - जो भाव से परे है उसे भी देना तभी वह धन्य है। वैसे तो -
    के हरि मूंछ-फणिन्द मणि, पतिव्रता की देह।
    सूर कटारी-विप्र धन, मरें चांय कोऊ लेय॥
    रावण ने सब को बाँटा, आज भी शिव पूजन विधान 'रावण प्रणीत प्रचलित हैÓ वह तो अपना मस्तक भी दे देता था- वह कहता था - 'सीस दिये जो गुरु मिले, - तो भी सस्ता जानÓ रावण जिस दिन धरा पर आया - वह दिन धनतेरस। (घेरण्ड संहिता द्वि.खं.)। उसके रस को धन्य है वह रसिक है, ज्ञानी भी। शंकर-रसमय, राम रस तो है ही (राम नहीं तो रस भी नहीं) नमक कृष्ण तो रसौ वैरस:, रस-सम्राट। कोई धरम जानता है कोई करम जानता है, किन्तु जो मरम जाने - वही ज्ञानी। पक्का चरित्र निर्माण - व्यक्ति के विचार (स्वभाव से) होता है। रावण ने कहा है -  'गिव मी योर हैबिट-आइ विल गिव यू करैक्टरÓ - मन के रुझान को स्वभाव और शरीर के अभ्यास को, आदत कहते हैं।
    रावण चरित्र-प्रतिभा युक्त है। उन्होंने अनेकों बार कहा है - नीति बदलती रहती है समयानुसार बदलना भी चाहिये - किन्तु प्रीति नहीं। कारण - प्रीति बिना भक्ति नहीं। 'वह शमा क्या बुझे-जिसे रोशन खुदा करेÓ लंकेश-कहीं भी अमर्यादित नहीं। श्रीराम यदि मर्यादा पुरुषोत्तम; तो रावण-मर्यादा पालक। वेद पुराण, इतिहास, शास्त्र किसी ने भी रावण को अमर्यादित निरुपित नहीं किया। महाराज रावण का कथन है - यदि उस परमेश्वरी की, गुरु की कृपा चाहते हो तो उन पर संदेह मत करो।
    स्वामी रामकृष्ण परमहंस को रात्रि में अपने आसन पर न देखकर कुछ शिष्यों को शंका हुई .... सोचने लगे शारदा वाई से मिलने तो नहीं गये? कांचन-कामिनी, त्याग कठिन है, किन्तु अर्धरात्रि में, जब खोजा, तो ज्ञात हुआ (पंचवटी गये हैं) लज्जित हुए।
    अरे! महाकाली से प्रत्यक्ष जिस की वार्ता हो, जिस गुरु से संदेह की निवृत्ति हो, उसी पर संदेह फिर समाधान कौन व कैसे करायेगा? गुरु कृपा पाने के लिये - श्रद्धा परमावश्यक है। स्वामी जी से एक शिष्य ने पूछा, महाराज! गुरु का त्याग किया जा सकता है या नहीं? उत्तर - जो गुरु धन एवं भौतिक पदार्थ चाहे, आध्यात्म मार्ग को न बता सके, वह गुरु ही नहीं ,ऐसे गुरु का त्याग किया जा सकता है। और जिसे - अपने माता-पिता, गुरु या इष्टï के प्रति निष्ठïा - आस्था नहीं, संदेह हो - ऐसे शिष्य का भी त्याग कर्तव्य है। अंत:करण की वृत्ति ही प्रमाण होती है। गुरु वाक्य ही प्रमाण है। अरे! हनुमान जी से स्वयं तुलसी बाबा ने कहा- मैं मात्र आपकी कृपा चाहता हूँ। (जय हनुमान गुसाईं - कृपा करहु गुरुदेव की नाई) गुरु की भांति मेरे ऊपर कृपा करें।
    आज भी भारत का युवा श्री मारुति का आश्रय लें, तो निश्चय ही कल्याण होगा - कारण वह अजर-अमर (महावीर हैं) चतुर्युग प्रतापी हैं - वह दाता हैं -
    तसबीह के दाने पर निगह कर दाना।
    गर्दिश में गिरफतार है - जो है दाना॥
    माला लेकर, जप करने वाला, असत्य नहीं बोल सकता। यदि बोलता है तो निश्चय है कि उसने, सत्संग नहीं किया। अधिकारी वह है जिसके पास जिम्मेदारी है। वानरराज ने जिम्मेदारी ली है अपनों के संरक्षण की। हनुमान चालीसा - स्त्री-पुरुष, सभी कर सकते हैं।
    मंगल मूरति - मारुति नंदन।
    सकल अमंगल मूल निकंदन॥
श्री हनुमंत योगाचार्य हैं। हमें यदि परमात्मा से जुडऩा है तो, हनुमान का आश्रय अत्यावश्यक है। चालीसा पाठ करे उस दिन कहीं भी, कोई भी बंदी मुक्त हो जाता है। इसे असत्य न समझा जाये। (छूटे बंदि - महासुख होई) यह तथ्य सत्य है। अपने शिष्य (रावण को) मार्गदर्शन सर्वप्रथम हनुमंत ने ही दिया। (उलटि-पुलटि लंका सब जारी) सर्वत्र हाहाकार! किन्तु रावण के मस्तक पर ज़रा भी शिकन नहीं, क्योंकि वह जानता था कि स्वर्णलंका नाशवान है, लंका मेरा घर नहीं क्योंकि घर वहाँ होता है - ''जहाँ दिल होता हैÓÓ मेरे गुरु ही तो हैं, वह मेरे विपरीत को - मेरे पापों को जला रहे हैं, ध्यान रखिये भौतिक साधन कितना ही बाहय सुख प्रदान करे - भीतर तो खाली ही रहेगा, गुरु ने मेरे हित में जो अच्छा समझा वही किया मेरी कोई क्षति नहीं। दुनियाँ गुरु द्वार खटखटाती है, गुरु मेरा द्वार खटखटा रहा है। यदि राम, परम पुरुष है तो वह भी मेरे दरवाजे आवेगा और सभी को ज्ञात है, सेतु बंधन द्वारा समुद्रोल्लंघन कर भी राम का - रावण के चौखट पर पहुँचाना। यही लंकेश का अपने गुरु तथा अपने इष्टï के प्रति, तन्मयता का प्रमाण है। महात्मा रावण का कथन है - 'जिसके बनकर आये हो - उसी के बनकर जाओÓ उन्होंने स्वयं भी इस सिद्धान्त को निभाया। मातृगर्भ में व्यथित जीव, प्रार्थना करता है, हमें इस बार मुक्त करें प्रभो!  मैं आजन्म आपका स्मरण करूँगा।
    ''आये ते कौल कर - जाय, हरि नाम लेय।
    आन कैं भुलानों - माया जाल में परो रहो॥ÓÓ
    अपने पुत्र इन्द्रजीत को - उत्तराधिकारी, नहीं बनाना चाहते थे, उसकी क्रूरता अविवेक के कारण विमुख ही रहा। सर्वप्रथम विभीषण को ही राम के पास पहुँचाया उपरांत - क्रमश: अपने मंत्रियों, कर्मचारियों तक को उस मार्ग का अनुसरण कराया। उदाहरणार्थ - शुक+पिकादि गुप्तचरों को वहाँ की माहिती लेने - रामादल में भेजा - वानर रूप धारण किया। भले ही पकड़े गये, प्रताडि़त भी हुये लक्ष्मण के कहने से विरूप नहीं हो पाये, उनका पत्र लेकर लंका वापस आये, किन्तु ऐसे प्रभावी हुए कि - राम के बनकर ही वापस लौटे और राम की छवि, स्वभाव, वातावरण, आनंद, सौन्दर्य-शौर्य तथा अद्भुतरस का वर्णन- रावण को सुनाया 'व्यक्ति के शील से - उसके जीवन की शैली बनती हैÓ जो रसज्ञ हैं - वही धन्य हैं (धन्य: ते रस: हे रस मय! तुम्हारे रस को धन्य है) गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में -
    सिगरे गुन को रिपु, लोभ भयो; -
    फिर औगुन और भयो, न भयो।
    जिनके मुख सों, चुगली-उगली-
    फिर पाप को बीज, बयो, न बयो।
    जिनकी अपकी रति फैल गई -
    वह जम लोक, गयो न गयो॥
    अर्थात् - मन को शुद्धकर 'रस को प्राप्त करने के प्रयास मेंÓ रत - रहकर - धन्य होना, यही धनतेरस है।
2. चौदस -
    रूप चतुर्दशी, या काली चौदस (नर्क चतुर्दशी) इसके पर्याय हैं।
    ''कालस्य शक्ति: - कालीÓÓ
    काल - अर्थात् समय।
    इस काल ने तो - ''बड़े-बड़े जौम बारे - मोम से, मरोर डारेÓÓ महिषासुर-हिरण्याक्ष।
    शिशुपाल-दुर्योधनादि मात्र पृष्ठïांकित रह गये। वह समय, जिसने हमें साधा कब? कहाँ? घोर अंधकार में - उसे नर्क में - जहाँ प्रकाश का नाम नहीं था, (मातृ गर्भ में) वह गर्भ में आया कहाँ से? पूर्वजों से।
    हम नर्क गति को पुन: प्राप्त न हों, (पुनरपि जनन, पुनरपि मरणं-पुनरपि जननी जठरे शयनं) की स्थिति से रहित हो। इष्टï का ध्यान करते हुए अपने पूर्वजों को नमन करना, तथा निर्दिष्टï मार्ग पर चलना ही इसका प्रमुख हेतु है। इष्टï माने लक्ष्य- इष्टï माने - देवता। उस दिन आटे के 14 दीपक, सन्ध्या समय शिव को अर्पित कर, धरके प्रत्येक-प्रकोष्ठï में, स्थापित कर - छोटी दिवाली मनाते हैं। यह है - दशेन्द्रिय + अंत:करण चतुष्टïय से, हम अपने इष्टï को, गुरु को समर्पित हों। यह तिथि - रावण के साधना प्रारंभ की तिथि है।
                    - घेरंड संहिता से।
3. तीसरा पर्व (अमा) - दर्श
अ, अर्थात् नहीं, मा = प्रकाश ''घनांधकार में दिवस जैसा प्रकाश उत्पन्न करनाÓÓ अर्थात् - स्वयं जलकर कष्टï सहन करते हुए, सभी को प्रमुदित कर - सन्मार्ग पर प्रवृत्त करना। अंधकार = पाप, घर-बाहर कहीं भी न रहने देना, और सभी को चैतन्य की ओर मोडऩा, यही दीपावली है। ''तमसो मा ज्योतिर्गमयÓÓ का लक्ष्य बताती है। नम्रता का संदेश देती है। दीपक रखोगे, तो झुकना पड़ेगा, घड़ा झुकता है तभी, उसमें पानी भरता है, हम झुकते हैं - तभी तो आशीर्वाद मिलता है। वरदान मिलता है और झुकने वाला - कृतकृत्य हो जाता है। ''कर सजदा, तो सर न उठाÓÓ खुदा से मांग, उसका वादा है, वह देगा।
    आशीर्वाद माने लूट नहीं आशीर्वाद - बहुमूल्य है। कीमत चुकाए बिना, न आशीर्वाद मिलता है न वरदान मिलता है न सिद्धि मिलती है, न चमत्कार मिलता है और न मनोकामना पूरी होती है, प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक वस्तु का, मूल्य चुकाना पड़ता है। महापुरुष की सफलता के मूल में - तप की ही प्रमुखता रही है।
    ब्रह्मïा + शंकर द्वारा रावण को वरदान या आशीर्वाद का दिवस (अमा) इसे दर्श भी कहते हैं। अपने तपोबल से तपस्वी रावण ने वरदान मांगा - 'हम काहू के मरहिं न मारे - वानर मनुज जाति, दोई बारेÓ वानर कौन? हनुमान। हनुमान कौन? मेरा शंकर मैं अपने गुरु शंकर के द्वारा ही मारा जाऊँ। यदि मनुष्य मारे तो साधारण पुरुष से नहीं; उस परम पुरुष से, जो मुझसे भी अधिक पुरुषार्थी हो इसे ही मैं अमरत्व मानूंगा - (व्यक्ति पवित्र मन से स्मरण करे - वही समाधि)।
    हे दशानन, राजेश्वर, लंकेश्वर! तुम्हारे विचार धन्य हैं; आप अनेकों विषयों के आचार्य हो। 'आचार्य ही जीवन के मर्म को जानता हैÓ वाणी की पहुँच तो कानों तक सीमित होती है - परन्तु आचरण, प्राणों तक पहुँचता है। तुम्हारे आचरण को तो, तुम्हारा गुरु ही समझ पाया। गुरु या इष्टï के प्रति समर्पित होकर - जीवन को प्रकाशित करना ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या है।
4. चौथा पर्व - अन्नकूट
अपनी प्राप्त विद्या का, साधना का, सत्पात्र को वितरित करना ताकि वह अधिकाधिक जनहित कर सके।
5. पाचवाँ पर्व - परम महोत्सव, अत्यन्त मार्मिक-
'भाई दौज-भाऊ-बीज, अथवा भ्रातृ द्वितीयाÓ
    परस्पर पवित्रता का संदेश या संकेत मस्त होकर ईश चिंतन का दिवस -प्रसन्न रहने के दो उपाय हैं-1. अपनी आवश्यकता कम करें एवं 2. परिस्थितियों से ताल-मेल बैठायें। कारण - विवाद से विषाद पैदा है।
    'मन की तरंग मार दे - हो गया भजन।
     आदत बुरी सुधार ले - हो गया भजन॥Ó
    शूर्पनखा ने रावण को जगाया कहा - तूने प्रेम को, वस विलास कर डाला। अब पतन की कोई सीमा नहीं रही, तुमने इतना विकास कर डाला। मेरी माया ही मेरा जुल्म बन गई। देख-मेरी दुर्दशा को? रावण ने कारण पूछा तो उत्तर देती है कि- दो सुंदर तपस्वियों से मैंने विवाह प्रस्ताव किया और बदले में यह प्रतिफल मिला।
रावण-शादी रस्मों से ज़रूर होती है। मगर हक (अधिकार) से नहीं। तूने हक जमाया होगा। हक से रिश्ता नहीं बनता। निश्चय ही तुमने कोई अभद्र व्यवहार किया होगा। क्या उनके सौन्दर्य को तूने नमन् किया था? किसको - कितना झुककर प्रणाम करे, यह भी एक हुनर है और उसे तुम नहीं जानतीं। उन्होंने नहीं तूने उनकी मुहब्बत पर डाका डालने की कोशिश की यही तेरा अपराध है। स्वप्नों का महल बनाने चली थी।
शूर्पनखा - मैं तेरा भाषण सुनने नहीं - तुझे अपनी दुर्गती बताने, व तेरा शासन बताने आई थी। 'तेरे घर पर आना - मेरा काम है, और मेरी बिगड़ी बनाना तेरा काम। धिक्कार है, तेरे शासन में होने वाले जुल्मों को। देख मेरी विरूपता को, तुझे मेरे एक-एक आँसू का जवाब देना होगा। जान सको तो जानो- मान सको तो मानो।Ó
रावण - जा बहिन जा - तूने मेरे शासन पर दावा किया, अब मैं उसका उल्टा वादा करता हूँ - जुल्म की रात भी कट जायगी, आस के दीप जलाये रक्खो। यदि तू विकृत हो गई है - तो संशोधन भी होगा। वह जागा - और उसी दिन से उसका जीवन बदला। गुप्त रूप से - प्रतिक्षण, प्रतिपल, जो आपके कृत्यों (कर्मों) का चित्र लेता रहे - वह चित्रगुप्त। जो आपका एकाउन्ट रखता है प्रति मिनट का विश्वास रखिये - आपके कर्म चित्र (स्वयमेव) आटोमैटेकली, दत्तकृतानुसारी निहंता के पास पहुँच रहे हैं। यह उस 'एकाउन्टटैंटÓ .... के पूजन का दिवस भी है। एक गुरु ने शिष्य से पूछा - कान और आँख में कितना अंतर है? पहिले ने कहा - चार अंगुल का। दूसरे ने कहा- कानों से सुनी और आँखों से देखी बात ही महत्व की होती है। तीसरे का उत्तर था - आँख, लौकिक देखती है, कान पारलौकिक भी। चौथे ने समाधानात्मक उत्तर दिया - गुरुदेव। कान-आँख दोनों ही आवश्यक इन्द्रियां हैं। अंतरमात्र इतना - कि, कान से पूर्व ही आँख रहस्य जान लेती है। नेत्र, शीघ्र ही वस्तुस्थिति को परख लेते हैं। ''नैन, ऐन कहिदेतÓÓ, नजर चली गई तो नजारे चले जाएंगे॥ यदि परमात्मा को चाहते हो तो, बरवाद होने से, बदनाम होने से, - बलिदान होने तक 'ममत्वÓ - जितना तोड़ सको, तोड़ दो। मोह के तंतुओं से, भगवत योजना नहीं बंधती। अपने इष्टï का स्मरण करे वही समाधि।
    मैं कांप उठता हूँ, यह सोचकर तनहाई में।
    मेरे चेहरे पै - तेरा नाम न पढ़ ले कोई॥
मीरा भी कहती थी -
काली करतूत वाली, काली दुनियाँ में। ताकि,
- काली -काली कोई आँख, मुझे देख पावै ना॥
अर्थात् - उस परम सत्ता के प्रति, अपने को, समर्पित करने तक, हमें - स्वयं को छिपाये रखना पड़ेगा। अन्यथा समाज हैरान करेगा।
    दिल को उस राह पै चलना ही नहीं है,
    जो मुझे, तुझसे जुदा करती है।
    चलना उस राह पै है ..... जो,
    तेरी खुशबू का पता करती है॥
    जिन्दगी मेरी थी, लेकिन,
    अब तो तेरे कहने में रहा करती है।
    दु:ख किया करता है कुछ और बयाँ -
    पर बात कुछ और हुआ करती है।
   
    जमाने में बेबफा, जिन्दा रहेगी।
    मगर, कुत्तों से - शर्मिन्दा रहेगी॥
   
    कुत्ता कातिक मास में, तजत, भूख अरु प्यास।
   तुलसी - कलि के नरनकों, कातिक बारउ मास॥
    विरक्ति - अनुरक्ति, यह सब मन का विषय है। जब तक लौ नहीं लगेगी, तब तक मजा नहीं आएगा।
    - 'लौ, लागी तब जानिये,
    जब आर-पार हुई जाय।Ó
    कहा जाता है - हम दीन हैं। दु:खी हैं। जो, सत्य की शरण में नहीं गया वही दीन है। बाहय या भौतिक पदार्थों के अभाव का जो अनुभव करे, वह दु:खी है।
महर्षि अगस्त के आश्रम का नाम था - वेदपुरी।
भरद्वाज का प्रयाग में - प्रशिक्षण शाला।
विश्वामित्र का - सिद्धाश्रम।
द्रोण का - चन्द्रमौलि।
सांदीपन का - चन्द्रचूड़ (अवंतिका में)।
वसिष्ठï का - कामधुक् ..... (वसिष्ठïाश्रम में)
    साठ हजार विद्यार्थी एक साथ पढ़ते थे। करोड़पति, लेखा-जोखा रखते थे। इन सभी ने अजनाभखण्ड (भारत) की संस्कृति को, विखंडित नहीं होने दिया। जो गुरु के आश्रम में नहीं गया, उसे आश्रम कहाँ? आज इसी कारण उस परंपरा को (एक दिन के लिये ही सही) गुरुपौर्णिमा को गुरु के यहाँ जाकर निभाया जाता है।
    जिस प्रकार शारीरिक दु:खों का नाम - व्याधि और मानसिक दु:खों का नाम - आधि। इन सभी से मुक्त होने का एक ही उपाय है - इष्टï से भ्रष्टï न होना।
अरे! सुख की तलाश में भागे - वह संसारी, पीड़ा में जो जागे - आध्यात्म या जीवन। विचार और कर्म के समन्वय से संस्कार बनते हैं। प्राय: का अर्थ - तप और चित्त का अर्थ है - निश्चय। तप का निश्चय ही प्रायश्चित है, न कि पछतावा। जैसे कि एकांत का अर्थ - 'अकेलाÓ नहीं। उस एक में अपना अंत करना। (आत्मलीन होना) एकांत में ही शांति रस घुलता है। प्रभु का नाम जपना है तो पहिले - वैखरी (बाराखड़ी) से, फिर मन से, और फिर ध्यान से किन्तु यह सब करना होता है जतन से, और जतन बताता है - गुरु। वही इष्टï के पास पहुंचाता है। यदि वह गुरुनिर्दिष्टï मार्ग पर जाता है तो उसका मोक्ष हो जाएगा। निर्वाण हो जाएगा .....। मुख्यत: 'वासना क्षय ही निर्वाण हैÓ संसार में दु:खों के तीन कारण हैं - अज्ञान-अशक्ति और अभाव। शक्ति तंत्र के अनुसार - ह्रïीम् - अज्ञान को, श्रीम् अभाव को, क्लीम् अशक्ति को दूर करते हैं। साधना से सिद्धि मिलती है। साधना के बल पर लंका में स्थित रावण और अमेरिका में बैठा अहिरावण परस्पर भली प्रकार वार्तालाप किया करते थे। उन्हें किसी रेडियो-ट्रान्समीटर, मोबाइल आदि की आवश्यकता नहीं थी। विमान, बिना पेट्रोल के उड़ते थे। ब्रह्मïाण्ड की हलचलों से परिचित होना - यह सब मंत्र, योग शक्ति एवं आध्यात्म विज्ञान से होते थे। यह सब भारतीय विज्ञान था। जिसका आधार था - साधना। प्रत्येक कार्य में त्रास होता ही है। त्रास का अर्थ, कष्टï नहीं होता - चिंता होता है, जैसे -
1. राम त्रसित हैं - अपने वामांग के अभाव से, तो रावण त्रसित हैं उसे प्राप्त करने के भाव से दोनों के हृदय में सीता (सीता = शक्ति:) शक्ति में ही समूचा अस्तित्व सिमटता है।
2. राम का अस्तित्व, सीता; तो-रावण का मातृत्व सीता।
3. राम, भावुक हैं (विह्वïल हैं), तो रावण भावना। ध्यान रखिये - भावुकता, बुजदिली सिखाती है, जबकि भावना, अपने इष्टï के प्रति समर्पण।
4. राम का हेतु-कामना (सीता प्राप्ति) तो-रावण का हेतु - मोक्ष सर्व श्रेयस्करी सीता द्वारा अपना कल्याण करना।
रावण कहते हैं - मैं राम से किसी प्रकार न्यून्  नहीं।
5. सीता यदि राम के वाम भाग में, तो वह मेरे हृदय भाग में। कितनी आस्था है, निष्ठïा है शक्ति के प्रति।
6. राम यदि पत्नी व्रती, तो मैं वैरव्रती। (जप शुरु कर दो - नाम में बड़ी ताकत है।)
    वैरव्रत रहस्य, रावण को अपने गुरु शिव द्वारा मिला था। व्रत का अर्थ उपवास नहीं। विशेष तपस्या है। यदि कुछ भी न कर सको तो वैर करना ही सीख लो। वैरव्रती बन जाओ तो भी कल्याण हो जाएगा। कारण-दु:खों की चोटों से - 'अंतर्चेतना मेंÓ निखार आता है। रावण-वैरव्रती, कंस वैरव्रती।
''आसीन: शयाम:, भुंजान: पर्यटन् महीम् -
चिंतायानो हृषीकेशं, अपश्यत्तन्मयं जगत।ÓÓ
    इसे ही पराभक्ति कहते हैं -    
    पराभक्ति याको कहैं - जित तित श्याम देखात।
    नारायण सो ज्ञान है - पूरन ब्रम्ह लखात॥
    महत्वपूर्ण प्रयोजनों में, अपने को नियुक्त करना ही साधना कहलाती है। साधना, उपासना और आराधना यह एक दूसरे के पूरक हैं। अत: 'दशग्रीवÓ को जब भी आवश्यकता होती थी, कैलाशस्थ मान सरोवर के समीप आकर तपश्चर्या करते और अपने इष्टï को रिझाते। उन्हें ज्ञात था - कि ज्ञान किसी के ताले में बन्द नहीं होता। अहंकार की पथरीली भूमि से - तपस्या का अंकुर फूट नहीं सकता। स्वयं को गुरु के प्रति अर्पित करता तथा अपनी परंपरा का स्मरण कर मूल चेतना का विस्तार करता। तोडऩे वाले पर ईश्वर प्रसन्न नहीं होते, जोडऩे वाले पर होते हैं। कारण - कि व्यतीत हुआ समय एवं टूटे हुए संबंधों का पुन: वापस आना, लगभग असंभव ही होता है। रावण - राम से कम नहीं, यदि उसके रहस्य को समझ लिया जाये। रावण - निर्वाण यज्ञ का आचार्य है। कहीं भी अमर्यादित नहीं। यदि चाहता तो सीता को अपने प्रासाद के अंत:पुर में भी, पवित्र स्थान पर रख सकता था। किन्तु नहीं। अपने शक्ति की स्थापना, दूरस्थ, प्रमदा-वन - अति रमणीय अशोक वन में की, जाता भी कम था और यदि गया भी तो एकाकी कभी नहीं, कभी मंदोदरी, तो कभी और कोई साथ में ले जाता था। यह भी उसका मात्र दिखावा था। वह मानता व जानता था कि वही वस्तु देर तक साथ रहती है जो दूर है। हाँ , उसने एक बार सीता से अवश्य कहा था - देवी! मात्र तुम्हारे मूल रूप का दर्शन चाहता हूँ।
    जो झुके तेरे आगे, वो सर मांगता हूँ -
    तुझे देखने की नजर मांगता हूँ।
    न घर मांगता हूँ, न ज़र मांगता हूँ।
    हम रावण का पुतला जलाते हैं। रावण प्रसन्न होकर कहता है ओ धर्मांध। तुम किसको जला रहे हो? मेरा तो कभी का मोक्ष हो चुका है। मैं तो राम मय हो चुका हूँ। और यदि तुम राम के प्रति आस्थावान हो तो अभी तक अयोध्या में राम मंदिर भी न बनवा सके। जलाना सहज है उसकी स्मृति में जलना सीखो, जलाना नहीं। 'सौ में अस्सी बेईमान, फिर भी देश महानÓ - तुम्हारे यहाँ। नेताओं के किले बन गये, विधायक मालामाल और जनता बेहाल। आपके यहाँ का नेता कुछ भी कर जाये, मगर मौज से रहता है। अन्न तो क्या, प्रजा पानी को भी तरस रही है। नल से उतना ही पानी आता है जितना दूध में मिलाया जाता है। जो अपराधी, वही - आदर्शों के पाठ पढ़ाता है, मात्र यही तुम्हारा धर्म रह गया है।
(गीता की कसौटी पर यदि रावण खरा उतरे तो मानना)
राम - सत्य है, तो रावण सत्यव्रती।
राम, सत्य से भी परे (त्रिसत्य) तो, रावण भी त्रिकाल, उसे प्राप्त करने को संतृप्त।
राम- यदि सत्य में निहित है, तो रावण - सत्य प्राप्ति में निमग्न। दूसरों की परिस्थिति देखकर अपने को मत तौलो। अपने को मत कोसो।
    ऋतु बसंत याचक हुआ। हरष दिये द्रुम पात।
    तुरतहिं पुनि-नये भये, दियोदूर नहिं जात॥
    धनी वे हैं जो अपनी जेब में हाथ रखते हैं। कुछ देने की इच्छा होगी - जेब में हाथ उसी का होगा - जिसके पास कुछ होगा दाता बनिये, याचक नहीं, क्योंकि जो देता है, वही आकर्षक लगता है। किन्तु यह श्रद्धा, क्षमता तथा औदार्य का विषय है। आज श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। स्मरण रहे श्रद्धा विश्वास को उत्पन्न करती है। विश्वास से अनुभव, अनुभवी - तर्क वितर्क नहीं करता कारण, उसकी तन्मयता बढऩे लगती है। वह खोजता है। भक्ति खोजने से नहीं खो जाने से मिलती है और फिर उसे औदास्य होने लगता है। वह प्रथकत्व एकाकी रहना चाहता है। विवाद नहीं चाहता। किसी का उपदेश भी नहीं चाहता।
    रावण कहता है - मुझे उद्बोधन मत दो जो दु:ख में परेशान हो, सुख में विलासी हो जाये, वही अज्ञानी। मैं उन अज्ञानियों में नहीं हूँ। मेरे द्वीप में (सिंहल द्वीप - लंका में) भी असंख्य मंदिर हैं। साधना स्थल है। (प्रमाण - श्री हनुमंत हैं - मंदिर - मंदिर - प्रतिग्रह बोधा) - कहता है -  ''आई एम बैड मैन, मैड मैन, सैड मैन - डोंट टच मी, लैट मी एलोन, बिकौज गोड इज़ हीयर - देयर एण्ड ऐब्रीव्हेयर।ÓÓ आई नो एब्रीथिंग. बट गोड इज़ टू बी रियलाइज़्ड आन, ब्लाअण्ड फेथ। एब्रीथिंग कैन बी पासीबल - इफ, गोड टच इज़ देयर। प्रभु कृपा हो तो - दैट व्हिच कैननाट बी सैड - ''मस्ट नाट बी सैडÓÓ - जो अकथनीय है - उसे कहना भी नहीं चाहिये। हृदय में रखना चाहिये। 'दिस इज दि व्यूटी आफ डिवाइन लवÓ विशुद्ध प्रेम का यही रहस्य, और यही तकज़ा है। प्रेम में आदान-प्रदान का प्रश्न ही नहीं। वहाँ - आई नहीं, यू नहीं, मात्र लव है। (मैं-तू नहीं) भोगवादी को भय होता है।
    मंदोदरी के समझाने पर कहता है - 'मैं जानता हूँ मिजाज तेरा, इसलिये, हाँ में हाँ मिला देता हूँ।Ó किन्तु मैं दीवाना हूँ अपने दीवानेपन का। भिखारी से भीख नहीं माँगी जाती - शरीर संयम से, व मन स्वाध्याय से, क्षमतावान बनता है तथा प्राणबल, तपोबल से मिलता है।
    जो समुद्र से भी भीख माँग रहा हो, स्वयं तृष्णा का भिखारी हो, उससे मेरी साम्यता करती है। ''न भूतपूर्व व कदापि दृष्टï:, न श्रयते हेम मर्ई कुरंग: तथापि तृष्णा, रघुनंदस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि:। राम, आबद्ध है - मैं समृद्ध हूँ। सुग्रीव- विभीषणादि भिखारियों के पास रहते - रहते - 'राम कोÓ भीख माँगने की आदत पड़ गई है। उसने अपना स्वाभिमान खो दिया है। स्वाभिमान के साथ .... जियो, व जीने दो ...। इस युग में - सुभाषचन्द्र बोस ने भी यह कहा है -    
    एक दिन भी जी - मगर तू ताज बनकर जी।
    मत पुजारी बन- स्वयं भगवान बनकर जी॥
    हर प्राणी अपने धर्म का विधान, स्वयं बनाता है। धर्म व्यक्तिगत है। आत्मा - जो आवाज़ दे - वही धर्म। अरे! प्रथम धर्म द्वितीया श्रमी का मैं जानता हूँ  मंदोदरी।
    वह तो ग्रहस्थ धर्म से भी रहत है। सहधर्मिणी के प्रति अपने कर्तव्य को भी नहीं निभा सका है। मैं योग-भोग सूत्राचार्य भी हूँ जिसमें ऋषियों के शोध, उनके अनुभव अंकित हैं। जिसे अर्धांग के प्रति स्नेह या अपनत्व नहीं उसके सुख दु:ख का भागी नहीं, कटु व्यवहारी, अप्रिय वाणी का प्रयोगी, कुटिलता का कुत्सित व्यवहारी पति, मन, वचन, कर्म से, अशांत रहेगा। उसके यहाँ का वातावरण - सुख शांति से रहित हो जाता है। वह स्वयं व्याधिग्रस्त-कुष्टïादि चर्म रोगी इस जन्म में तो रहेगा ही, अगले जन्म में - वृक्ष बनता है एवं नाना प्रकार के अनेकों कष्टïों को अनेकों वर्ष पर्यन्त भोगता है। उसे समाज - हेय दृष्टिï से देखता है।
स्त्रीणां निंदा प्रहांर च, कौटिल्यं चा प्रियं वच:।
आत्मन:क्षेम मन्विच्छन-सद्भर्ता विवर्जयेत्॥
- मार्कण्डेय पुराण - मीमांस प्रकरण श्लोक सं. - 57 से 59।
    एतेनां, वृषलानां, रजस्तम: प्रकृतीनां,
    धनमदरज उत्सिक्तमनसाम्।
    हिंसा विहारिणां, भतृणां गति: -
    कुष्टïो वा, स्थाविरोऽथवा॥
- आश्वलायन सूत्र, कर्मगति पर्व ऋचा - 83-93।
ममतनया (मंदोदरी) तू नहीं जानती। मैं अनेक शास्त्र सम्पन्न हूँ। फिर भी, अपने एहसासों में - कुछ कमी रखता हूँ।
$गम का जिसको नाज़ हो- ऐसी खुशी रखता हूँ मैं।
कुछ वजह होगी कि, उनसे-दुश्मनी रखता हूँ मैं॥
    000
दिल के झगड़ेमजबूत दिल से होते हैं,
दिल से दिल मिले - तो दिल की बात हो गई।
बिन बाँधे ही बँध जाती है - दो श्वासों की डोरी।।
प्रिये! मंदोदरी,
    जहाँ दो दिलों की - मुलाकात होगी,
    जुबाँ चुप रहेगी - मगर बात होगी।
    गुरु, साधु, $फकीर-वेदज्ञ, ब्राह्मïण, समस्त - कलाकार- लेखक-पत्रकार, कवि इसलिये शुभ माने जाते हैं - कि इनकी चिंतनधारा सतत चलती रहती है। ये तापस होते हैं। कामादि रहित निर्विरोधी भी। अधिकांश अक्रोधी भी।
    ध्यान रखिये - क्रोध, मूर्खता से आरंभ होता है, और पश्चाताप पर समाप्त हो जाता है।
    रावण - पूछता है, हे गुरुदेव! महादेवाधिदेव!! आप सदैव, जप में निरत रहते हैं। आप पंचमुख हैं। मुझे क्या आदेश है। मैं अपनी संकीर्ण अवस्था को चोडऩा चाहता हूँ। ब्रह्मï साक्षात्कार द्वारा - यह बिन्दु - सिंधु में समाविष्टï होना चाहता है। मैं चाहता हूँ साधना - रात्रि में करूँ, दिन में नहीं। (प्रकाश डिस्टर्व करता है) बाधा डालता है। अंधकार नहीं। घोर अंधकार में ही मार्ग मिलता है। ''प्रकाश, यदि परमात्मा है - तो अंधकार भी परमात्मा है।ÓÓ
    शारीरिक विश्राम में भी, प्रकाश बाधक है। (प्रकाश में बात भी खुल जाती है) अंधेरे में नहीं। बिना भक्ति के कौन सुख? मुझे विशुद्ध भक्ति दीजिये। अविरल, अखण्ड, निरंतर, शाश्वत हो।
    गुरु की आज्ञा उसे मिली - ''और वह अपनी शिखर यात्रा पर चल पड़ा -ÓÓ जप व तप से मानव प्रज्ञावान बनता है और पाप प्रक्षालन भी। रावण ने तपश्चर्या के लिये - मान सरोवर के पास - 'राक्षस तालÓ का चयन किया। 'तालÓ ताल माने - रस। बिना मेल के अपूर्ण, अधूरा, सीधा अर्थ जो मिला दे वही ताल। अन्यथा - बेताल या बेसुर।
    'राक्षसÓ : शब्दार्थ - रा अर्थात् राम , स - माने, सीता, क्ष का अर्थ किरण (एक्सरे का जो काम करे)
अर्थात् - जो शक्ति + ब्रह्मï से जुड़ा दे अथवा अपने इष्टï से सम्बन्ध करा दे। वह ताल 'राक्षस तालÓ जो सब में त्याग-प्रेम भर दे। ताल पर ही राग चलता है (माल कंस, आसावरी, भैरवी, ठुमरी आदि) एक ताल - त्रिताल आदि पर गतिशील होते हैं। ताल और राग मिला कि - अनुराग स्वयं ही आ जाता है। नाम जपना है तो अनुराग से जपो। जहाँ कोई विक्षेर न हो, व्यवधान न हो - उसे ताल कहते हैं। रावण कहता है कि मेरा उस राम से, अभिराम से, शीघ्र तालमेल हो, किन्तु-विरोध के साथ। शीघ्र हो - ताकि सीता रूपी अस्तित्व को प्राप्त कर अपने निर्वाण का हेतु बना सकूँ और मैं यह भी जानता हूँ - मेरे हेतु के लिये - राम को भी सेतु बनाना पड़ेगा - मेरा गुरु ही मुझे कृतार्थ करेगा और रचना करने लगता है
- तालबद्ध स्तोत्र की - 'शिव ताण्डवÓ की-
    जटा कटा हसभ्रम - भ्रमंनिलिप निर्झरी।       
 विलोल वीचि बल्लरी, विराजमान मूर्धनि।
    धगद-धगद, धगज्वल ललाट पट्टï पाव के,   
 किशोर चन्द्र शेखरे-रति प्रतिक्षण मम।
    स्मरांतकं, पुरांतकं, भवांतकं, मखांतकं -        
राजाच्छिदांधकांतकं, तमंतकांतकं भजे।
रिझा रहा है - गुरु को, खुशामद कर रहा है (नृत्यादि से)।
    दशग्रीव के, साधना की अविराम गति में - लय का संगीत है। गुरु को माध्यम बनाकर - तन्मय होकर तालबद्ध नृत्य भी, अहर्नििशि 40 दिन तक। जिसे भक्ति मिली, उसे सब कुछ मिला। जिसे देह का भी भान नहीं, जिसके नृत्य को देखकर प्रकृति स्तब्ध, समस्त - देव मण्डल चकित। लंकेश्वर - राजेश्वर के साधना करते-करते वाद्यतंतु टूटने पर - अपनी आंत निकाल कर जोड़ देता व पुन: गीत बनाकर तन्मयता से -षड्ज, ऋषभ, गांधार, धैवत, मध्यम, पंचम आदि स्वरों का स्वयं निर्माण कर - राग का अलाप करता। शिव को प्रसन्न करता। शिव स्वयं नटराज हैं। रावण के स्वर में विलक्षता थी। वह संगीत-पारंगत, निष्णात विद्वान, सस्वर वेदपाठी, अनन्य भक्त, मंदोदरी भी - संगीतज्ञा - विदुषी थी।
    रावण के संगीत सभा में - अनेक, गायनाचार्य, उर्वशी, हेमा, रम्भा, मेनका, मिश्रकेशी और तिलोत्तमादि उच्चकोटि की प्रवीण नृत्यांगनायें विद्यमान थीं। कभी-कभी गुरु को रिझाने में इनका सहयोग भी लेता था। 'रावणेयम्Ó नामक ग्रंथ में रावण के संगीत दक्षता की पुष्टिï है। वह कहता है -
'नेस्ती, हस्ती है यारो, और हस्ती कुछ नहीं।
बेखुदी, मस्ती है यारो, और मस्ती कुछ नहीं।Ó

धन्य है विश्रवा का बेटा - दशग्रीव :
    'राम यदि रघुवंशी - तो रावण - ऋषिवंशीÓ
    सम्बन्ध, तो तरंगों का है - तरंगों में टकराव भी होता है। समुद्र पांच मील गहरा है। नीचे उसका पता नहीं। गंभीर है, धीर है महान भी, मद, मदन, मत्सर को मारे वह महान, जिसे कोई परिस्थिति कायर न बना सके, जो किसी से न डरे - कोई उससे भी न डरे, वह महान। मद् होता है पद से, इस श्रेणी से रहित - दो ही विभूतियाँ परिलक्षित हैं (भरत+ पवनात्मज) जिन्हें - मद स्पर्श ही नहीं कर पाया। गुरु-शिष्य सम्बन्ध पवित्र व प्रगाढ़ होता है, प्रगाढ़ इतना हो कि पति-पत्नी भी गुरु - शिष्य बन जायें। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी भामिनी को पढ़ाया, साक्षर किया, आध्यात्म की ओर मोड़ा और अंत में गुरु बने। यही स्थिति - गोपाल कृष्ण गोखले, राना डे, तिलक की भी रही।
    जीवन में कर्म करना जितना आवश्यक है, उससे निवृत्त होना भी उतना ही आवश्यक है। 'यही निवृत्ति मार्ग हैÓ जिसका दशग्रीव ने पूर्णतया पालन किया। ऐसे महान अवतारी के प्रति नमन् करने में ही हमारा श्रेय है। इसी में - भारतीय संस्कृति की श्लाघा है।
अरे! शिव तो, शिवा को, सतत उपदेशित करते रहते हैं।
    उमा कहहुँ निज अनुभव अपना।
    सत हरि भजन-जगत सब सपना॥
    गुरु - शिष्य का मूल है और शिष्य गुरु का फूल - मूल कभी फूल की खुशबू नहीं चाहता। मूल चाहता है श्रद्धा। कोई शिष्य - श्रद्धा के जल से सींच दे। जिस पर कि आज के युग में तुषार पड़ गया है। पुराने वट वृक्ष को किसी के जल की जरूरत नहीं, फिर भी सींचा जाता है, पूजा जाता है ज्येष्ठï मास में, कारण वह वृक्ष ज्येष्ठï है। ईश्वर रूप है।
    गुरु चाहता है - यह मेरा पुष्प है (शिष्य)। महादेव चरणों में अर्पित हो। पौधे या वृक्ष का तना सेतु है, यही गुरु कुल है। जो कि फूल और मूल को जोड़ देता है। जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है। फूल कैसा भी हो - गुरु का ही है। मेरा शिष्य - 'फले-फूलेÓ यही गुरु चाहता है। इस सम्बन्ध में शूल नहीं। मानाकि - किन्हीं पुष्पों में काँटे होते हैं, किसी बालक को काँटा लगने पर, उसकी माता, काँटा निकाल कर उसके हथेली पर रख देती है कारण - मातृत्व है - ममत्व है।
    किन्तु - गुरु , निकाल कर हाथ पर नहीं रखता, चबा जाता है। अत्यद्भुत सम्बन्ध है - 'त्रय: शूल निर्मूलनंÓ दुख रहित कर देता है। इस मोहरात्रि दीपावली पर्व पर हम सभी - श्रद्धा विश्वास रूपी, शूलपाणी-पुरारी का, दशग्रीव की भाँति भावगम्य चिंतन करें, प्रेम पूर्वक नमन् करें। दिव्य भाव से प्रकाश पर्व मनाते हुए - परं ज्योति से ज्योतिर्मय बने, अपनी कमियों को पूर्ण करें और चेतना का प्रखर यात्री बनकर - अपने जन्म को सफल बनावें।

आचार्य पंडित श्रीधरराव अग्निहोत्री
राज्याचार्य एवं राजज्योतिषी
होलीपुरा, दतिया (म.प्र.) पिन - 475661