बुधवार, 9 मई 2012

भाषा का रूप लाघव




- राजकुमार सोनी


    भाषा अर्थात् अभिव्यक्ति के तीन स्वरूप प्रकारांतर से मनुष्य-सभ्यता के आरंभिक काल से ही प्रचलित हैं - 1. दैहिक अभिव्यक्ति 2. वाचिक (वैखरी) अभिव्यक्ति 3. लिखित अभिव्यक्ति। इनमें दैहिक और वाचिक अभिव्यक्ति का विकास क्रम समकालिक ही है अर्थात् एक समान ही प्रचलित और पुराना है क्योंकि इन दोनों ही अभिव्यक्ति के माध्यमों में मनुष्य की देह का ही क्रमश: मौन तथा मुखर अथवा कहिये कि वहिरंग और अंतरंग उपयोग होता है। लिखित अभिव्यक्ति का विकास या स्वरूप तात्त्विक रूप से सनातन होते हुये भी व्यावहारिक तौर पर ज्ञान की श्रुति परंपरा के पश्चात विकसित हुआ है।
    दैहिक अभिव्यक्ति को वर्तमान बुद्धिजीवी परिवेश में शरीर भाषा अर्थात् व्यक्ति के भाव संकेतों की भाषा अथवा बॉडी लैंग्वेज कहते हैं। मनुष्य के अंगों का संचालन, स्फुरण, दृष्टिïन्यास आदि किसी भाव को अभिव्यक्त करने में कभी-कभी बोले गये वचनों से भी अधिक परिणामप्रद सिद्ध होते हैं। मनुष्य की क्रोध, घृणा, तिरस्कार, वंचना, उपहास से भरी हुई आँखों को देखने मात्र से कलह ही नहीं बड़े-बड़े युद्ध भी घटित हो जाते हैं, वैमनस्य की पीढ़ी दर पीढ़ी कुटिल कलंकित परंपराएं प्रारंभ हो जाती हैं जबकि प्रेम, सहानुभूति, औदार्य, समर्पण, सहयोग और संधि की मृदुल, मनोरम भावनाओं से भरी हुई ललित आँखें मरते हुये को संजीवनी तथा डूबते हुये को नौका व जहाज का आश्रय प्रदान कर पुनर्जीवन दान कर देती हैं। सरस दृष्टिï फटे हुये दिलों को बिना बोले ही सीती है, खाइयों को पाटती है, जीवन में प्रेम की सुधा का संचार करती हैं। ''अँखियाँ सब कहि देंइÓÓ तथा ''भरे भुवन में करत हैं नयननि ही सौं बातÓÓ। नेत्रों की भाँति ही शरीर के अन्य अंगों की विभिन्न मुद्रायें, भाव-भंगिमाएं भी बिना कहे ही सब कुछ कह देती हैं।
            नेक   कही  बैननि,  अनेक  कही नैननि।   
            रही सही सोहू कहि दीन्हीं हिचकीनि सौं।।
    वाचिक अभिव्यक्ति अर्थात् शब्द की भाषा का संसार तो व्याकरण व साहित्य दोनों ही दृष्टिïयों से अनंत ही है। शब्द के उच्चारण के सुखद-दुखद परिणामों की भी सर्वविदित,सर्वत्र विदित एवं सदा विदित परंपरा है। कहावत है कि -        कागा का  कौ धन हरै,  कोयल काकों देइ।
            मीठे बचन सुनाइ कै, जग अपनौ करि लेइ॥
    शब्द की कर्कशता और मधुरता के कारण भी इस धरती पर विग्रह-संधि के साथ ही अज्ञान जनित अंधकार व ज्ञान जनित प्रकाश की लोक-परलोकजीवी अनंत परंपरा विद्यमान रही है। शब्द को 'ब्रह्मï पदÓ भी प्राप्त है। शब्द योग, शब्द ब्रह्मï, शब्द प्रकाश जैसे महत्तम पद (ह्लद्गह्म्द्वह्य) हमें बोले गये शब्द के प्रति अति गंभीर एवं दायित्ववान रहकर शब्द अर्थात् भाषा से कल्याणकारी, लोकमंगलमय परिणाम उत्पन्न, निष्पन्न करने के प्रति सचेत करते हैं।
    शब्द का भौतिक उच्चारण हमें लौकिक उत्कर्ष प्रदान करता है जबकि शब्द के आत्मिक मनन से प्रभूत उच्चारण मंत्र बनकर हमारे जीवन में नैसर्गिक उपलब्धियों की निष्पत्ति करता है। मननपूर्वक उद्भाषित शब्द का उच्चारण हमारे बहिरंग जीवन को अभ्यंतर, आध्यात्मिक ऊर्जा से पुष्टï करता है। इस प्रकार भाषा के वाचिक स्वरूप की महत्ता व व्यावहारिक उपयोगिता को समझ लेना भी व्यक्ति के लिये श्रेयष्कर ही है तथा इसे समझने में कोई कठिनाई भी नहीं है।
    भाषा का तीसरा प्रकार लिखित अभिव्यक्ति का प्रकार है जो किसी भी दृष्टिï से कम महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आज की भौतिकवादी तथा दिन पर दिन स्वार्थान्ध एवं अनैतिक हो रही जीवन पद्धति में तो लिखित शब्द की उपयोगिता बोले गये शब्द से भी कहीं अधिक प्रतीत होती है। कहावत प्रचलित है कि - सौ बोलने वालों की तुलना में एक लिखा हुआ दस्तावेज अधिक प्रभावशाली व प्रामाणिक माना जाता है। अत: कोई भी दस्तावेज लिखते समय शब्द की वर्तनी की पूर्णता व प्रामाणिकता सुनिश्चित की जानी चाहिये। भाषा की लिखित अभिव्यक्ति में शब्द की रचना, मात्रा व विराम चिह्नïों की त्रुटि या अंतर से अर्थ का विस्तार या अर्थ का संकोच होना ही संभव नहीं है बल्कि अर्थ का अनर्थ होने की भी संभावना बनी रहती है। कुछ अक्षरों में शिरोरेखा आदि के अंतर से भी अर्थ में अंतर निर्मित हो जाता है। उदाहरण के लिये 'भÓ और 'मÓ अक्षर का अंतर शिरोरेखा से ही प्रकट होता है। अविराम शिरोरेेखा लगाने से 'मÓ तथा टूटी हुई शिरोरेखा लगाने से 'भÓ अक्षर बनता है। इसी प्रकार 'घÓ और 'धÓ अक्षरों के लेखन में भी शिरोरेखा की अनिवार्य उपयोगिता है। 'बÓ और 'वÓ तथा 'पÓ और 'षÓ अक्षरों के आकार के बीच में तिरछी रेखा डालने या न डालने (सरल भाषा में कहैं तो पेट चीरने या न चीरने) से ही अक्षरों के स्वरूप व अर्थ की स्वायत्तता सुरक्षित रहती है।
    उपर्युक्त विवेचन से स्पष्टï है कि भाषा मनुष्य के जीवन का एक नैसर्गिक तत्त्व है जो उसे मनुष्य जाति से ही नहीं बल्कि पशु पक्षियों के प्रति उसकी भावना को व्यक्त करने में भी अद्वितीय सहायक है। प्रकृति के उपादानों को सम्वेदित करने में भी मनुष्य की दैहिक भाषा का भी महत्त्व है। उदाहरण के लिये एक ऐसा पौधा भी होता है जो उँगली दिखाने मात्र से मुरझाता है -            
         'इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं।
         जे  तर्जनी  देखि  मरिजाहींÓ।।  -  तुलसीदास
     भाषा का मनुष्य की संकल्प शक्ति (बिल पॉवर) से भी सीधा सम्बन्ध है। वक्ता का प्रबल संकल्प बोले गये शब्द में प्रभावोत्पादकता का संचार करता है जबकि प्रभाव पूर्वक बोला गया शब्द श्रोता की संकल्प शक्ति का हृास या उत्कर्ष करता है। यही कारण है कि सक्षम व्यक्ति द्वारा की गई प्रशंसा श्रोता की हताशा का शमन कर उसमें उत्साह का संचार कर देती है जबकि सक्षम व्यक्ति द्वारा की गई निंदा या भत्र्सना श्रोता में लज्जा या भय का संचार करती है।
    अतएव हमें एक सभ्य, सुशिक्षित, संस्कृत नागरिक के रूप में भाषा के प्रति अपने दायित्व की गंभीरता तथा भाषा के दैहिक, वाचिक व लिखित रूपों से हमारे जीवन पर पडऩे वाले प्रभावों की गंभीरता को समझना
   

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