शनिवार, 12 मई 2012

हिन्दी नवगीत आंदोलन में ग्वालियर का योगदान


-  राजकुमार सोनी

    'नवगीत न सिर्फ नयेपन की तलाश है और न कोई कविता का नया संस्करण है, अपितु यह एक स्वतंत्र विधा है। इसका सर्वप्रथम नामोल्लेख फरवरी 1958 में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के 'गीतांगिनी नामक काव्य-संग्रह में मिलता है। इस संग्रह के गीत अनेक वर्गों में विभक्त हैं और उनका विभाजन अवैज्ञानिक है परन्तु इन गीतों को दिया जाने वाला नाम 'नवगीत पर्याप्त लोकप्रिय हो गया। यद्यपि उस समय कवि ने यह नाम छायावादी और छायावादोत्तर गीतों से अपने काव्य को पृथकता देने के लिए अपनाया था, किन्तु जल्दी ही यह स्पष्टï हो गया कि 'नवगीत एक नई विधा है जो लोक चेतना, लोक संस्कृति, जातीय संस्कार और जातीय सौन्दर्य बोध से जुडऩे की अपनी निजी विशेषता के आधार पर विकसित हुई है।
    नवगीत विधा मानस-हृदय के संवेगों को व्यक्त करने की आकुलता का परिणाम है। जब जब मानव अपने मन में सुख-दुख, राग-विराग की संवेदना को व्यक्त करने के लिए बेचैन हुआ, तब-तब गीत का जन्म हुआ। नवगीत इसी प्रकार की एक कड़ी है। नवगीत के आंदोलन में ग्वालियर के साहित्यकारों का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। नवगीत आंदोलन में ग्वालियर के साहित्यकारों ने एक नई ऊर्जा प्रदान की जिससे नवगीत विधा का सृजन व संवर्धन खूब हुआ।
    जब मानव - मन किसी सौन्दर्य के खण्ड से, किसी राग के बोध से अथवा किसी सत्य के कोण से छू जाता है, वहीं गीत की भूमि होती है। लोक जीवन के रस से सिंचित होने का प्रयास नवगीत में ही दिखाई देता है। यही इनका महत्व है।
    राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के पाँच तत्वों का उल्लेख किया है - जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति तत्व और परिसंचय।
    डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने नवगीत की परिभाषा करते हुए लिखा है - 'नवीन पद्धति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भाव-सरणियों को अभिव्यक्त करने वाले गीत जब भी और जिस युग में लिखे जाएंगे, नवगीत कहलाएंगे।Ó
    एक ओर जहाँ बालस्वरूप 'राहीÓ ने आधुनिकता को नवगीत की अनिवार्य शर्त माना है वहीं रवीन्द्र 'भ्रमरÓ ने उसमें हार्दिकता तथा अनुभूति की प्रधानता को आवश्यक माना है। नवगीत की रचनाओं का एक विहंगम पर्यावलोकन यह सिद्ध कर देता है कि उनमें लोकोन्मुखता का भाव अत्यन्त प्रबल है। इसी विशेषता ने नवगीत के स्वरूप को सजाया-संवारा है और उसे एक नई विधा के रूप में प्रतिष्ठिïत किया है।
    एक ओर जहां धर्मवीर भारती, शंभुनाथसिंह, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, ठाकुर प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, राजेन्द्र प्रसाद सिंह तथा चंद्रदेव सिंह आदि साहित्यकारों ने नवगीत विधा को ख्याति दिलाई वहीं दूसरी ओर ग्वालियर के वीरेन्द्र मिश्र, आनंद मिश्र, मुकुटबिहारी सरोज, प्रकाश दीक्षित, डॉ. पूनमचन्द्र तिवारी, महेश अनघ, रामप्रकाश अनुरागी, राजकुमारी रश्मि, डॉ. अन्नपूर्णा भदौरिया, परशुरामशुक्ल विरही, विद्यानंदन राजीव, ओमप्रभाकर , दामोदरदास शर्मा, शत्रुघ्न दुबे आदि ने नवगीत आंदोलन में जबरजस्त भूमिका निभाई।
    वीरेन्द्र मिश्र का नाम नवगीत काव्यान्दोलन के प्रवर्तकों में से एक है। नवगीत का एक काव्यधारा के रूप में विकास छठवें दशक में हुआ था और यह एक प्रकार से नयी कविता की बौद्धिक गद्यात्मकता के विरुद्ध रागधर्मी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया। इस आंदोलन ने गीत को पारंपरिक रूमानी और कल्पनाशील ढांचे से अलग करके उसे जीवन के वस्तुगत अनुभवों से जोडऩे की कोशिश की। वीरेन्द्र मिश्र के गीतों में प्रारंभ से ही नव्यता और समकालीनता के तत्व थे और उनकी सुदीर्घ काव्ययात्रा के बाद अब इन्हें स्पष्टï पहचान मिल चुकी है। उनके गीतों में एक मोहक अल्हड़ता है, जो झरनों जैसी गतिशील, तितलियों जैसी रंगीन और मलयवायु जैसी गंधमाती है।
    'मेरा देशÓ और 'नया एशियाÓ जैसी लोकप्रिय कविताओं में उनके युद्धविरोधी स्वर बहुत स्पष्टï हैं। 'पंख और पांखुरीÓ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने अपनी इस गीतधर्मिता का कारण बताते हुए कहा है - गीतधर्मिता का छायानट आम आदमी के अधिक निकट है, यद्यपि उसकी अभिव्यक्ति कठिन है। इसी कठिन अभिव्यक्ति को ग्रहण करने के लिए बिखरे हुए सही श्रोता और सही पाठक जब एकात्म हो जाते हैं, गीत की कलात्मक शक्ति स्पष्टï हो जाती है। मैं इसी दृष्टिï से लेखन करता हूँँ तथा भाषा को कथ्य के अनुरूप ढालते हुए सस्वर हो जाता हूँ। उन्होंने लिखा कि - 'नित नये वैज्ञानिक उपकरणों के इस बदलते युग में, शब्द का अस्तित्व तो रहेगा, लेकिन मुद्रित रूप में नहीं। संभवत: उसकी अभिव्यक्ति मंच और संगीत की दिशा में जोरों से होने लगेगी। तब नवगीत ही प्रमुख होगा - स्वभावत: अधिक कलात्मक, अधिक भारतीय और अधिक यथार्थवादी।Ó उनके प्रमुख काव्य संग्रह गीतम, लेखनी बेला, अविराम चल मधुवंती, झुलसा है छायानट धूप में, धरती गीताम्बरा, शान्ति गंधर्व, कांपती बांसुरी काफी लोकप्रिय रहे।
    इसी तरह आनंद मिश्र ने नवगीत आंदोलन में महती भूमिका निभाई। इनका मात्र 18 वर्ष की आयु में ही पहला कविता संग्रह 'साधनाÓ (1952) में प्रकाशित हुआ और पुरस्कृत होकर काफी चर्चित रहा।
    आनंदजी शास्त्रीय धारा कवि थे और प्रबंध लेखन के प्रति उनका गहरा लगाव था। यह इसलिए आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि जिन दशकों में उन्होंने काव्यलेखन किया, वह नई कविता की प्रमुखता वाले दशक थे और लम्बी कविताएं या इतिवृत्तात्मक लेखन चलन में नहीं रह गए थे। ओज और प्रसाद आनंद जी की कविता के सहज गुण हैं। उनकी भाषा प्रांजल है, शब्द की गति और शक्ति पर उनका अनूठा अधिकार है।
    कला अभिलाषा की अभिव्यक्ति कला सुषमा की शिव-आसक्ति
    कला जग के अभाव का भाव,सत्य का रसमय जीवन-द्राव
    असुन्दर की सुन्दर प्रतिमूर्ति, कला जड़ता की चेतन-पूर्ति
    परिधियों में आनंद अनंत विजन वन का चिरकाल बसंत।

     हालांकि मुकुटबिहारी सरोज ने नवगीत आंदोलन से अपने को कतई संबद्ध नहीं किया, लेकिन उनके गीतों का कथ्य और उनका शिल्प-गीतकाव्य के तमाम प्रचलित ढांचों से अलग है। आपने ग्वालियर के नव हस्ताक्षरों को नवगीत लिखने की प्रेरणा दी तथा उन्हें प्रोत्साहित किया। इसी तरह विद्यानंदन राजीव नवगीत काव्य-धारा के एक समर्थ हस्ताक्षर हैं, जिनकी रचनायें सशक्त व बेजोड़ हैं। उनके गीतों का संकलन 'छीजता आकाशÓ कार्फी चर्चित रहा। राजीव जी प्रारंभ से ही एक प्रतिबद्ध गीतकार हैं, उनकी गीतयात्रा के तीन सोपान हैं - प्रथम सौन्दर्यमूलक गीतों का रचनाकाल जिनका केन्द्रीय रस श्रृंगार था, द्वितीय मानव और मानवेतर प्रकृति के समन्वय को ध्वनित करने वाले गीतों की रचना का काल और तृतीय यथार्थ और समकालीन बोध से उत्फुल्ल होने वाली सिसृच्छा से उद्भूत गीतों का रचनाकाल। गीतकाव्य के भाषा प्रयोगों में परिवर्तन, यथार्थवादी कथ्य और गीतों के रूप-विन्यास में आने वाले बदलाव को राजीव जी गीतधारा पर नयी कविता के प्रभाव के रूप में देखते हैं।
    'छीजता आकाशÓ की भूमिका में राजीव जी ने लिखा है - 'आज के गीत में कथ्य के स्तर पर नयापन देखा जा सकता है। प्रकृति-चित्रण, मानवीय-प्रेम जैसे परंपरागत प्रसंगों में वायवी कल्पना के स्थान पर यथार्थ-अनुभूति देखी गई है। मध्यवर्गीय संत्रास, निम्नवर्ग की रूढिय़ां और पीड़ा, जीवन के विभिन्न स्तरों पर बिखराव, परिवार का विघटन, समाज और मानव संबंधों जैसे अनेक विषयों को गीत ने जिस कुशलता और सहजता के साथ प्रस्तुत किया है, वह अभूतपूर्व है। संक्षेप में हम यह स्वीकार करते हैं कि आज का गीत, पूर्व की अपेक्षा, जीवन के अधिक निकट है। उसमें अनुभूति की व्यापकता और विविधता है।Ó
    नवगीत आंदोलन ने गीत के कथ्यात्मक कलेवर को ही नहीं बदला, बल्कि उसके छान्दिक विन्यास में भी अनेक परिवर्तन किए हैं। नवगीत का संरचनात्मक शिल्प पारंपरिक गीतों से बहुत भिन्न है। इस ओर संकेत करते हुए राजीव जी अपने गीतों के संबंध में लिखते हैं - 'गीतों के रूप-विन्यास अथवा शिल्प में भी एक उल्लेखनीय बदलाव आया है। इस प्रसंग में गीत, छन्द की परिपाटी को तोडऩे का प्रयास करता रहा है। यदि कहीं छंद भी है तो वह नवीन और लघु है, अथवा लय को ही महत्व दिया गया है। इस परिवर्तन से ही गीत में भावों की अन्विति को बल मिला है। गीत भाषा के लिए कर्णप्रिय छंद, कोमलकान्त पदावली और अनुप्रास की भरमार का युग अब नहीं रहा।Ó
    1948 के बाद जब हिन्दी काव्य में प्रगतिशील व प्रयोगवादी काव्यधारायें अधिक प्रबल होती हुई और निराला के अतुकांत से प्रभावित होकर जनमानस तक पहुँँची उस समय गीतात्मक काव्य धारा की एक बार फिर से ललक कवियों के मन में आई और दो धारायें साफ सामने आने लगीं, एक गीत विधा की और दूसरी छन्दहीन अतुकान्त धारा की; जिसमें लय तो थी, वस्तु भी थी परन्तु रागात्मकता न होने के कारण मन को छूने वाली वह अनुभूतिजन्य गहराई न थी। परिणाम यह हुआ कि 1954 में नई कविता के आगमन के साथ गीतों की परंपरा तेजी से उभरी और उसमें नीरज जी, नेपाली, सोम ठाकुर, महादेवी वर्मा, विद्यावतची कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा आदि की गीतात्मक रचनायें देशभर में सुनीं गई, सराही गईं। गीत में लय है, छन्द है, राग है और शब्द विन्यास में एक विशेष सुगन्ध है। उसकी अपनी शब्द सीमा है, उसमें रहस्य और सांस्कृतिक परंपरायें पूर्ववत कही जा सकती हैं। 1954 के बाद अब समकालीन कविता तक यह गीत विधा विशेषकर नवगीत विधा अतुकान्त से बहुत आगे बढ़कर सुनी जा रही है।
    1964 में नवगीत का पहला समवेत संकलन 'कविता - 64Ó प्रकाशित हुआ था। ओमप्रभाकर उसके संपादकों में से एक थे, इस तरह से वह इस आंदोलन के प्रारंभकर्ताओं में से एक हैं। नवगीत के संबंध में उनकी मान्यता है - 'नवगीत नयी कविता की प्रतिक्रिया नहीं है। अत: स्पष्टï है कि वह नयी कविता का विरोधी भी नहीं है। साहित्य-विधाएं परस्पर विरोधी कभी नहीं होतीं। विरोध प्रवृत्तियों में होता है, विधाओं में नहीं। नयी कविता और नवगीत में विधागत भेद तो है ही, शिल्पगत और कथ्यगत भेद भी है।
    वह सब कुछ गद्यात्मकता, दुरूहता, आधुनिकता के नाम पर समसामयिकता, बल्कि क्षणिकता, छंदहीनता या छांदिक अज्ञान के कारण छंदमुक्ति, विदेशी अंधानुकरण, आरोपित नवीनता, जाली और घिसे हुए बिम्ब-प्रतीक, नकली और थर्र्डहैण्ड अनुभूति, अति प्रचलित भाषा जो नयी कविता में है, नवगीत में नहीं है, बल्कि है लय, एक बदली हुई काव्योचित लय, सहजता, जातीय संस्कृति,भावोद्भूत और ताजगीपूर्ण बिम्ब-प्रतीक, टटकी भाषा, अभी तक अदृश्य और अस्पृश्य अत: नितान्त सद्य: प्रस्तुत दृश्य और वास्तविक जीवन की गहन अनुभूतियां, युग-संपृक्ति और आज की विषमता और जटिलता के चटकते हुए व्यक्ति के लिए एक सांत्वनाप्रद, सहलाता हुआ आत्मिक स्पर्श।
    डॉ. पूनमचन्द्र तिवारी ने नवगीत आंदोलन में अपनी महती भूमिका निभाई। उनकी रचनायें मर्मस्पशी, हृदयग्राही हैं -
        कहां गई वे कल-कल नदियां नृत्य-विशारद नटखट झरने।
        कहां गई रंगीन तितलियां बनफूलों के गजरे - कंगन।।

    इसी तरह देश के बारे में उन्होंने 1 जुलाई 1974 को अपनी कविता में एक जगह लिखा है -    ये शहर व्यंग्य है, गांव नंगे हुए, जंगलों में टहलती हैं चिनगारियां
        संसदों में शिखण्डी, पहुंचने लगे देश फिर तोडऩे की हैं तैयारियां।।
        घोंसला अधबना, हर दिशा में लपट नाम खुशियों ने अब तक पुकारा नहीं
        खण्डहर खांसते, नींव टूटी पड़ी रीढ़ दुखती हुई है, वही की वहीं।

एक अदभुत रचना की पंक्तियां देखिये -
        छोड़ गई चिडिय़ा बहुरंगी पंख, क्यों मेरे लिए, मैं हैरान हूँ
        छोड़ नई नदिया, रेती में शंख, क्यों मेरे लिए, मैं अनजान हूँ।।

(आकाशवाणी, ग्वालियर से प्रसारित)

                
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