बुधवार, 9 मई 2012

रिश्तों पर वंशानुक्रम का प्रभाव



- राजकुमार सोनी

        सृष्टिï का यह सामान्य नियम है कि समान से समान जीव ही उत्पन्न होता है, अर्थात् जैसा बीज बोयेगा, वैसा ही फल होगा। गुलाब से गुलाब ही उत्पन्न होगा, मोतिया या चमेली नहीं। हाथी के बच्चे भी हाथी होंगे, घोड़े या ऊँट नहीं। इस प्रकार मनुष्य से भी मनुष्य ही उत्पन्न होंगे, जानवर नहीं। बालक में यह समानता केवल शारीरिक रचना तक ही सीमित नहीं, अपितु अन्य मानसिक उपलब्धियाँ जैसे- बुद्घि, रुचि आदि के रूप में पाई जाती है।
        बालक अपने माता-पिता के दाय के रूप में उन सभी गुणों को प्राप्त करता है, जो उसे उसके पूर्वजों से मिले हैं, परंतु वे गुण तथा विशेषताएँ जो माता-पिता अपने जीवनकाल में स्वयं परिश्रम और शिक्षा द्वारा अर्जित करते हैं, उन्हें बालक प्राप्त नहीं करता। इसकी सत्यता जानने के लिए जर्मनी के वाइसमैन ने कई चूहे पाले। जब इन पूँछ कटे चूहों के बच्चे पैदा हुए, तो देखा गया कि सभी की पूँछें हैं, परंतु वाइसमैन को इससे संतोष न हुआ और बराबर 20-25 पीढिय़ों तक चूहों की पूँछ काटते रहे, प्रत्येक बार इन चूहों की पूँछ उगती रही। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि इन चूहों ने अपने माता-पिता को पैतृक दाय के रूप में ग्रहण नहीं किया। प्रत्येक पीढ़ी के चूहों ने अपने माता-पिता से उन्हीं गुणों को ग्रहण किया,  जो उनके माता-पिता को पूर्वजों से मिले थे। मैक्डूगल ने भी विशुद्घ श्वेत रंग के चूहों पर परीक्षण किया। उसने पानी से भरी एक नांद में कुछ चूहों को छोड़ दिया। इस नांद से निकलने के दो मार्ग थे- एक अंधकारपूर्ण तथा  दूसरे में प्रकाश था। प्रकाश वाले मार्ग में, बिजली का एक तार लगा दिया गया। चूहे जब इस मार्ग से निकलते थे, तो उनके पैर में बिजली का झटका लगता था। झटका लगने के कारण वे दूसरा अंधकारपूर्ण मार्ग खोजते थे, जिस मार्ग में बिजली का झटका नहीं लगता था। मैक्डूनल ने देखा कि उस पीढ़ी के चूहों ने सही मार्ग, जो अंधकारपूर्ण था, खोजने में 165 बार भूल की और तब जाकर वे सही मार्ग अपना सके। मैक्डूनल इस श्वेत रंग के चूहों की आने वाली पीढिय़ों पर भी यही परीक्षण दोहराता रहा। उसने देखा कि 23 वीं पीढ़ी के चूहों ने केवल 26 बार भूल की। इस परीक्षण से यह स्पष्टï हो जाता है कि माता-पिता के अर्जित गुणों का संक्रमण हो सकता है।
    हैरीसन ने, कीट-पंतगों पर परीक्षण किया, उसने देखा कि कारखानों के पास पाए जाने वाले पंतगों का रंग काला होता है, पर अन्य स्थलों पर पाए जाने वाले, उसी जाति के कीट पतंगों का रंग काला नहीं होता है। हैरीसन को यह बात बड़ी विचित्र सी लगी। उसने कुछ पतंगों को  दो भागों में उसी घास-पात पर पाला। एक भाग को उसने कारखानों के आसपास के पेड़ों के पत्तों पर पाला। इन पत्तों में घास-पात से कुछ भिन्नता थी। इन पर कारखानों के कई पदार्थ जम जाया करते थे। इन पर जीवन निर्वाह करने के कारण वहाँ के कई पतंगों का रंग काला पड़ जाता था। हैरीसन अपना परीक्षण पतंगों की कई पीढिय़ों तक दोहराता रहा। कुछ पीढिय़ों  के पश्चात् उसने देखा कि कारखानों के पास पाए जाने वाले पत्तों पर पाले जाने वाले पतंगों का रंग काला होने लगा। धीरे-धीरे वे सभी काले रंग के हो गए। परन्तु दूसरे पतंगे, जो मैदानी घास-पात पर पाले गए, उनके रंग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार देखा गया कि अर्जित गुणों का भी संक्रमण होता है।
    पैवलोव ने भी चूहों पर परीक्षण करके इस बात का समर्थन किया है। उसने श्वेत रंग के चूहों को घण्टी की ध्वनि पर भोजन के लिये बुलाना प्रारंभ किया। पहली पीढ़ी के चूहे लगभग 300 बार घण्टी सुनने के बाद भोजन के लिये आते थे। परन्तु आगे आने वाली पीढिय़ों में यह संख्या कम होती गई। अन्त में यह देखा गया कि पाँचवी पीढ़ी के चूहे 5 बार सुनकर ही आ जाते थे।
 इस प्रकार सभी परीक्षणों में निम्रलिखित बातें स्पष्टï दिखाई देती हैं-
1.     माता-पिता द्वारा अपने जीवनकाल में अर्जित गुण-दोषों का प्रभाव नहीं पड़ता। इसका कारण यह  है कि शारीरिक गुण-दोषों का संबंध जातीय बीजकोषों से है, न कि माता-पिता की शिक्षा से। इसलिए कई वंशानुगत बीमारियाँ जातीयकोषों के कारण आगे आने वाली पीढिय़ों में दिखाई देती हैं।
2.    मानसिक गुण-दोषों का संक्रमण होता है, परन्तु वे ही मानसिक गुण-दोष संक्रमित होते हैं, जिनको प्राप्त करने के लिये माता-पिता अपने जीवनकाल में प्रयास करते हैं और अपनी इच्छा शक्ति से प्रयास करते हैं। पूँछ कटे चूहों की सन्तान पूँछ कटी इसलिये नहीं हुई, क्योंकि चूहों की पूँछ उनकी इच्छा के विरूद्ध काटी गई और उनका उसमें कोई प्रयास नहीं था। परन्तु मैक्डूगल और पैवलोव के प्रयासों में चूहों की भूलों की संख्या इसलिए कम हो गई क्योंकि उनको सीखने में चूहों ने परिश्रम किया और अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग किया।
3.     बालक दाय के रूप में जो ग्रहण करता है, उसमें से आधे वंश-सूत्र मातृकुल से प्राप्त होते हैं और आधे वंश-सूत्र पितृ-कुल से।
4.    गॉल्टन के अनुसार- जीव सांख्यिकी नियम के आधार पर कहा जा सकता है कि बालक अपनी आधी विशेषताएँ अपने माता-पिता से ग्रहण करता है, एक चौथाई दादा-दादी और नाना-नानी से, आठवाँ भाग परदादा-परदादी तथा परनाना-परनानी से, इसी प्रकार यह क्रम ऊपर की ओर चलता है।
5.     प्रकृति वर्ण-संकरता के पक्ष में नहीं है, वह वर्ण-संकरों की वृद्घि नहीं चाहती, यदि किसी कारणवश वातावरण के प्रभाव से किसी जाति में वर्ण-संकरता आ जाती है, तो कुछ काल के पश्चात् इस वर्ण संकरता का लोप होने लगता है और अंत में शुद्घ सन्तान रह जाती है। इस नियम को सर्वप्रथम मैण्डल ने प्रतिपादित किया उसने दो प्रकार की मटर एक स्थान पर बोकर, एक तीसरे प्रकार की वर्ण-संकर मटर को पैदा किया। फिर उस वर्ण-संकर मटर को बोया गया, उससे पैदा हुए मटर के बीजों को देखने से मालूम हुआ कि उन बीजों में आधे बीज शुद्घ मटर के थे और आधे बीज वर्ण-संकर मटर के। इन बीजों को एक बार पुन: बोने से इसी क्रमानुसार वर्ण-संकर मटरों की संख्या कम होती गई।
6.     इसी प्रकार चूहों पर भी प्रयोग किया गया। प्रयोग द्वारा यह देखा गया कि यदि भूरे चूहों का सफेद चूहों से संभोग कराया जाये, तो उनकी सन्तानों का रंग दोनों के सम्मिश्रण जैसा होगा, जब इन जारज (वर्णसंकर) चूहों के आपस में समागम से बच्चे उत्पन्न हुए, तो वह भूरे तथा सफेद  दोनों रंग के होते थे। इस प्रयोग को कई पीढिय़ों तक दोहराने से धीरे-धीरे वर्ण-संकर चूहों का लोप हो गया।
     यद्यपि यह बात सत्य है कि माता-पिता के अनुसार ही उनकी सन्तान होती हैं, परन्तु यह बातें भी देखी गई हैं कि बच्चे कई बातों में माता-पिता से भिन्न होते हैं। श्रेष्ठï कुटुम्ब में साधारण बालक तथा साधारण परिवारों में प्रतिभाशाली बालक भी देखे गये हैं।
    जीव- विज्ञान के अनुसार प्रत्येक बालक में 23 मातृकुल और 23 पितृकुल के वंश-सूत्रों का मिश्रण होता है। इस मिश्रण से 1,67,77,21,16 प्रकार की  विभिन्न सम्भावनाएँ अपेक्षित हो सकती हैं। जीव विज्ञान के आचार्यो का कथन है कि माता-पिता के वंश-सूत्रों का मिश्रण सदा समान ढंग से नहीं होता, क्योंकि उनकी शारीरिक तथा मानसिक अवस्था सदा समान ढंग से नहीं रहती। माता-पिता के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का वंश-सूत्रों पर भी बहुत प्रभाव पड़ता है। सन्तानों में भिन्नता का पाया जाना माता-पिता की विभिन्न शारीरिक तथा मानसिक अवस्थाओं से उत्पन्न वंश-सूत्रों के कारण होता है। इससे प्रकट होता है कि वंश-सूत्रों के क्रम में सदा समानता नहीं रहती है। उनमें असमानता का पाया जाना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना समानता का। इसलिए भिन्नता या असमानता का नियम आनुवांशिकता का विरोधक न होकर पोषक ही है।
    वनस्पति जगत के समान जीव जगत में भी सन्तति का विकास होता है, अर्थात् अगर पौधे लगाने से पूर्व हम जो बीज प्रत्यारोपित करेंगे, वैसा ही पौधा पनपेगा। निकृष्टï बीजों से पौधों की अच्छी किस्म और फल भी प्राप्त नहीं होगा। प्रकृति की यह प्रक्रिया जीव-जगत पर भी लागू होती है।
    मनुष्य के शील गुणों को ही प्रकृति सामान्य तौर पर प्रकट करना चाहती है। इसलिए प्रतिभाशाली अथवा निम्र श्रेणी के माता-पिता की सन्तान में सामान्य बुद्घि की ओर ही प्रकृति के गुण पाए जायेंगे। जैसे -
1.     माता-पिता में साधारण तथा प्रतिभायुक्त दोनों प्रकार के जीव-कोष होते हैं। पिता के उत्तम शीलगुणवाहक पीत्रकों से मिलते हैं, तो प्रतिभाशाली बालक का जन्म होता है, परन्तु जब सामान्य शीलगुणवाहक पीत्रकों का प्रतिभायुक्त अथवा सामान्य शीलगुण वाहक पीत्रकों से संयोग होता है, तो जो बालक उत्पन्न होता है, वह सामान्य बुद्घि वाला या कम प्रतिभाशाली होता है।
2.    जब प्रतिभायुक्त माता-पिता का किसी ऐसे व्यक्ति से संयोग होता है, जिसमें उनके समान  प्रतिभा नहीं होती, तो इस संयोग से उस प्रकार के उत्तम बीज-कोषों का मेल नहीं हो पाता, जैसा कि दो प्रतिभायुक्त व्यक्तियों के समागम से होता है। परिणामस्वरूप सन्तान उतनी प्रतिभाशाली नहीं होती जितने कि उसके माता-पिता।
3.     आनुवंशिकता में दो प्रकार के गुण प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ गुण (ष्ठशह्म्द्वड्डष्4) प्रसुप्त और कुछ गुण व्यक्त। ये दोनों प्रकार के गुण पिता से पुत्र के क्रमानुसार आने वाली सन्तान में अवतरित होते रहते हैं। परिस्थिति के प्रभाव से कभी व्यक्त गुण प्रसुप्त और कभी प्रसुप्त गुण व्यक्त हो जाते हैं। इसलिए देखा गया है कि अनेक प्रकार से कई पीढिय़ों के बाद भी पितृ के गुण-दोष सन्तान में दिखाई देने लगते हैं।
  
    रवीन्द्रनाथ  ठाकुर के नाम से सभी परिचित हैं ही। उनके दादा द्वारिकानाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्घ व्यक्तियों में से एक थे। उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ब्रह्मïसमाज के प्रसिद्घ नेता थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्वभारती के उपकुलपति थे। प्रसिद्घ चित्रकार अवनीन्द्र ठाकुर, प्रसिद्घ सिने तारिका देविका रानी तथा वर्तमान लोकप्रिय अभिनेत्री शर्मिला टैगोर इसी परिवार से सम्बन्ध रखते हैं।
    सिक्खों के नवम गुरू तेग बहादुर थे, उनके साथी मातिदास थे, जिन्होंने ..धर्म की रक्षा के लिये अपने आपको आरी से चिरवा दिया। प्रसिद्घ क्रान्तिकारी तथा आर्यसमाज .. के नेता भाई परमानन्द इसी परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनके पुत्र भाई महावीर एक महाविद्यालय के प्रधानाचार्य थे व राज्य सभा के सदस्य थे। भाई परमानद के अन्य बन्धु भाई बालमुकुन्द थे, जो रासबिहारी बोस के साथी थे। वे राजाओं के पुत्रों को क्रान्ति की शिक्षा देते थे। इसी परिवार में भाई शिवराम हुए जो सेना के अधिकारी थे। उनके एक पुत्र भाई चरणदास प्रसिद्घ डाँक्टर थे और  दूसरे पुत्र भाई भगवानदास डाकखाने के बड़े अधिकारी थे। भाई भगवानदास के एक पुत्र डॉक्टर रहे, एक प्राचार्य,एक वायुसेना के अधिकारी तथा एक बैंक के अधिकारी रहे। इस प्रकार रिश्तों की बुनियादें जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाती हैं। वास्तव में यह मनन का विषय है कि हम रिश्तों की अहमियत को सोचें और समझें। समय सारथी तो कभी रुकता नहीं और घटनायें-दुर्घटनायें भी जीवन में आती-जाती हैं, किन्तु रिश्तों की जो बुनियादें प्रारम्भ की होती हैं, निश्चित ही आगे चलकर हमें जीवन की सुखद अनुभूतियाँ प्रदान करती हैं।

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