शनिवार, 12 मई 2012

संगीत समयसार


 -   राजकुमार सोनी

मनुष्य की विभिन्न स्वाभाविक प्रवृत्तियों में संगीत भी सहज व्यापार है। उमड़ी भावनाओं के आवेग के वशीभूत हो वह उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये आतुर हो उठता है। भावों के उद्वेग के अनुसार ही उसके स्वरों में उतार-चढ़ाव आ जाता है और तब वह उनहीं स्वर लहरियों के सहारे पनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर व्याकुल हृदय को शान्त करने का प्रयत्न करता है। यहीं संगीत का जन्म होता है। यह संगीत अभिव्यक्ति का सशक्त व सक्षम माध्यम है।
"Unspecied but deep feelings unexpressive through language belong to the realme of sure music."
भावार्थ - अनिश्चित किन्तु गहरी भावनायें जो भाषा के माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकती वे विशुद्ध संगीत से संबंद्ध होती हैं। दूसरे शब्दों में जो भावनायें भाषा / काव्य के द्वारा व्यक्त नहीं हो सकती वे संगीत का सहारा लेकर अभिव्यक्त हो सकती हैं। क्योंकि संगीत हृदय और आत्मा से स्फुरित होता है।
    परमात्व तत्व के प्राप्ति साधन के रूप में गान को ही सर्वश्रेष्ठï बनाया गया है। पूजा से कोटि गुणा स्तोत्र, स्तोत्र से कोटि गुणा जाप, जाप से कोटिगुणा श्रेष्ठïतर है गान और गान से परे (श्रेष्ठï) कुछ नहीं।
        ''पूजा कोटिगुणं स्तोत्र, स्तोत्र कोटिगुणो जाप:।
        जपात्कोटि गुणं ज्ञानं, गानात पर तरं नहि॥ÓÓ

मानव जन्म के साथ ही यह संगीत प्रवृत्ति जुड़ी हुई है। अवसर्पिणी काल चक्र के आदि के तीन कालों में मनुष्य किसी प्रकार का कर्म या उद्यम नहीं करता था। उसे अपनी जीवनोपयोगी सब वस्तुएं कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती थीं। इन कल्पवृक्षों में तूर्यांग जाति के वृक्ष के प्रभाव से मनोहर वादियों की प्राप्ति हो जाती थी। उस समय भोगभूमि के जीवों के कान सदा गीतों के सुन्दर शब्दों के सुनने में आसक्त थे। स्वर्गों के देव भी बड़े संगीत प्रिय होते हैं। वहाँ किल्विषिक जाति के देव गायक होते हैं - उनका काम गाना बजाना होता है।
    भगवान तीर्थंकर का जन्म होते ही अपने आप भवनवासी देवों के मंदिरों में शंख-ध्वनि, व्यन्तर देवों के नगाड़ों का बजना, ज्योतिषियों के मंदिरों में सिंहनाद और स्वर्गवासी देवों के मंदिरों में घंटाओं का गंभीर नाद होने लगता है। गंधर्व, नर्तकी आदि सात प्रकार की सेना तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के समय आती हैं। समस्त लोक नगाड़ों, शंखों आदि के मनोहर शब्दों से शब्दायमान हो जाता है और नृत्य तथा गीत सहित देवों का आगमन बड़ा आश्चर्यकारी जान पड़ता है। हा हा, हू, हू, तुम्बर, नाहद, विश्वासु आदि किन्नर जाति के देव पनी स्त्रियों के साथ कर्णों को अतिप्रिय भांति-भांति का गाना गाने लगते हैं। जन्माभिषेक के बाद इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है। देवांगनायें हाव-भावों से अति मनोहर श्रृंगार आदि रसों से व्याप्त नाच नाचती हैं।
संगीत एक वरदान है - मधुर ध्वनि तरंगों का अथाह सागर है। यह सागर एक सहज आनंद का स्रोत है जो देवता, दानव, मनुष्य, पशु व पक्षियों को ही नहीं, बल्कि वनस्पति को भी अपने विशाल अंतर में समेट लेता है। कहा जाता है कि - 'उस गीत का महात्म कौन वर्णन कर सकता है जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का एक मात्र साधक है।
        ''तस्य गीतस्य महाडडत्मयं के प्रशंतितुमीशते।
        धर्मार्थ काम मोक्षाणामिदमै वैक साधनमथ् ॥ 30॥

अत: इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संगीत मानवीय स्वात्मज्ञान के विकास का साधन है। समयसार है। संगीत समयसार -
        ''पराशय्र्य पाराशरौ भृगु यमौ संवर्त कात्याना,
        वापस्तम्ब बृहस्पती सुलिखितौ हारीत दसौ मनु:।
        विश्वग्रीव सगौतमौ मुनिवर शशङ्खïोडपि दक्षादय:,
        सर्वे मोक्षदमित्यु शान्ति मुनयो गीतं तदेगोक्तित: ॥ 211॥

अर्थात् - वेदव्यास, पाराशर, भृगु, यम, संवर्त, कात्यायन, आपस्तम्ब, बृहस्पति, सुलिखित, हारित, दक्ष, मनु, विश्वग्रीव, गौतम, मुनिवर शङ्खï और दक्ष इत्यादि सभी मुनियों ने अपनी उक्तियों के द्वारा गीत को मोक्षदायी कहा है।
संङ्गïीत चूड़ामणि में कहा गया है -
        ''योग ध्यानादिक यस्मात् सर्व लोकानुरञ्जनम।
        तस्मादनन्त फलदं गीतं स्याद मुक्ति मुक्तिदन्॥ 11॥

योग, ध्यान आदि समस्त साधनों की अपेक्षा गीत ही अनंत फल देने वाला है और भक्ति मुक्तिदायक है।
पं. रविशंकर -The highest aim of our music is to reveal the essence of the univeres it reflects and the ragas are among the means by which this essenes can be rehevided. Thus through the music are can reach God. 

भावार्थ - हमारे संगीत का उच्चतम लक्ष्य समस्त विश्व के सार को अभिव्यक्त करना है जिसे वह प्रतिबिम्बित करता है। संगीत द्वारा परमात्व पद तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन संगीत चाहे गायन हो अथवा वादन, अपनी प्रकृति के अनुसार अध्यात्मिक ही होता है, क्योंकि इसका निर्माण और आस्वादन मनुष्य की आत्मा ही करती है।
सहज स्वाभाविकता संगीत के विषय में जानने की है -
'संगीत रत्नाकरÓ में संगीत की परिभाषा इस प्रकार की गई है - 'गीत वाद्यं तथा नृत्तं त्रय संगीत मुध्यतेÓ-गीत, वाद्य, और नृत्य तीनों संगीत कहलाते हैं।
संगीत कला के दो सर्जक तत्व हैं - 1. स्वर-राग, 2. लय-ताल। स्वर से रागों का निर्माण होता। सूर्य शब्द का आधार स्वर है। अत: सवर का समबन्ध प्रकाश से माना गया है। इसलिये संगीत का स्वर पक्ष प्रकाश है।
    राग का स्रोत स्वर, स्वर का स्रोत श्रुति (सलक्ष्म नाद), श्रुति का स्रोत नाद और नाद का ध्वनि है। यह ध्वनि ही सर्वजगत का कारण है -
        ''ध्वनियानि: परासेया ध्वनि सर्वस्व कारणम्।
        आक्रान्त ध्वनिता सर्व जगत् स्थावर जङ्गïतम्॥

मंगल ध्वनि ú ही मूल ध्वनि है। यही आदिनाथ है - समस्त मंत्रों का स्वर।
नाद - संगीतोपयोगी ध्वनि को नाद कहा गया है। नाद की उत्पत्ति के बारे में शारदातिकतकै में कहा गया है कि सत, चित्त, आनंद विभूतित्रयी से सम्पन्न प्रजापति से सर्वप्रथम शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। जैन धर्मानुसार आत्मा में अनन्तसुख एवं अनंत शक्ति निहित है। नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है। जैन साहित्य में नाद कला का आकार अर्ध चन्द्रमा के समान है वह सफेद रंग वाली है और बिन्दु काले रंग वाला है।
संगीत रत्नाकर में नाद की उत्पत्ति इस प्रकार बताई है -
        'नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदु:।
        जात: प्राणाग्रि संयोगात्ते: न नादो-मिघीपते॥

अभिप्राय है - नाकर अर्थात् प्राण और दाकर अर्थात् अग्नि इन दोनों के संयोग से नाद उत्पन्न होता है। प्राणत्व का लक्षण गतिशीलता। नाद की उत्पत्ति में कंपन होता है और गतिशीलता होती है। दकार अर्थात् प्रकाश-प्रकाश ज्ञान की स्थिति है। प्रकाश में निहित गुण शक्ति है। तात्पर्य यह है कि 'दÓ में सूर्य, प्रकाश व शक्ति का समन्वय है। और प्रकाश अवस्था में 'सुन्दरमÓ से साक्षात्कार होता है। इस प्रकाश नाद के अन्तर्गत सजीवता, गति, शक्ति एवं प्रकाश (ज्ञान) का समन्वय है।
    नाद का सर्वोच्च उद्गम स्थान ú है। इसे परमात्मा का वाचक माना गया है। नादानुसंधान करते करते अन्त में ओउम् नाद की सिद्धि होती है। यह ओंकार बिन्दु संयुक्त है। बिन्दु सृष्टिï का परम रहस्य है। योगी बिन्दु संयुक्त ओंकार का नित्यमेव ध्यान करते हैं। काम और मोक्ष दोनों की प्राप्ति ओंकार से संभव है - ऐसा प्राचीन आचार्यों का मत है।
नाद के दो भेद हैं - 1. अनाहत 2. आहत  - अनाहत नाद अतिसूक्ष्म होता है। इसकी साधना कठिन है। इसके लिये गहन अवधान अपेक्षित है। यह नाद सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है। इस व्याप्त रूप में वह अनाहत नाद कहा जा सकता है। योगियों ने इस अनाहत नाद का अनुभव वर्णन करते हुए लिखा है कि यह सर्वप्रथम समुद्र गर्जन, मेघ स्तनित, मेरीख और झर्झर ध्वनि के समान सुनाई देता है, मध्य में मर्दन, शंख, घंटा और काहल से उत्पन्न ध्वनि के समान सुनाई देता है और अन्त में किंकणी, वंशी, भ्रमर और वीणा के निक्काण जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। उदाहरणार्थ तीर्थंङ्कïर का जन्म होता है तब अनाह नाद होता है -
        मति श्रुति अवधि विराजित जिन जब जनमियो।
        तिहुँलोक भये क्षोमित, सुरगन मरमियो॥
        कल्पवासि घट घंट, अनाहद वज्जियो।
        ज्योतिष घर हरिनाद, सहज दल गज्जियो॥
        गज्जियो सहनहिं, सङ्गï मावन, भवन सवद सुहावने।
        विंतर निलय पठु परइ वज्जहि, कहत महिमा क्यों बने॥
        कंपित सुरासन अवधि वलजिन, जन्म निहचै जानियो।
        धनराज तव गजराज माया-मयी, निरमय आनियो॥ 
             
 आहत नाद संगीत से संबंधित है और यह 'लोकरञ्जनम् व भवमञ्जनम्Ó दोनों गुण सम्पन्न है। आहतनाद की साधना में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने में अनाहद नाद की सिद्धि होती है। आहतनाद की उत्पत्ति के संबंध में पाणनीय शिक्षा में लिखा है -
'आत्मा बुद्धि से संयोग करते है, मन विवक्षाचीन अर्थों से युक्त होता है। वह व्यापारित मन शरीर स्थित अग्नि पर आघात करता, अग्नि वायु को प्रेरणा देता है। वह मारूत हृदय प्रदेश में उघ्र्व संचरण करता हुआ मंद स्वर (नाद) को जन्म देता है। मारूव से उदीर्ण (उघ्र्वक्षिपृ) वह मंद स्वर मूर्घ प्रदेश में अमिहित होता है और मुख्य यंत्र का अंतर्वर्ती होकर वर्णों (गाने की विविध क्रियाओं) का प्रसून करता है।
    नादोत्पत्ति का यह मार्ग नाद को स्फोट रूप प्रदान करता है, उसकी उच्चारणवस्था एवं श्रुतलम्य ध्वनि का निर्वाचन करता है। अब यदि इसकी वितोम गति पर विचार करें तो नाद के पीछे चलते हुए आत्मा के समीप पहुंच जाएंगे। यही नादोपसता का चरम प्रयोजन है।
'नाद ही संगीत कला का स्रोत है। गीत, वाद्य और नृत्य तीनों ही नादात्मक है।
        ''ननादेन बिना गीतं न नादेन बिना स्वर:।
        न नादेन बिना सानं न नादेन बिना शिव:॥

भावार्थ - न नाद के बिना वर की उत्पत्ति संभव बै, न नाद के बिना गीत रचना संभव है, न नाद के बिना ज्ञान प्राप्त हो सकता है और न नाद के बिना कल्याण की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार स्वर और गीत के माध्यम 'नाद से ही ज्ञान अर्थात् 'सत्यम् की प्राप्ति होती है। नाद से कल्याण 'शिवम की प्राप्ति होती है। नाद स्वयंमेव सुन्दर ध्वनि है। अत: नाद में सत्यम् शिवम सुन्दरम् का समन्वय है।
    आचार्य श्री विद्यानन्दजी के शब्दों में - नाद को आत्मनुसंधान सहायक निरूपित किया है। नाद की आरम्भिक साधना में शब्द, गीत, लय, ताल, वाद्य-यन्त्रादि की अपेक्षा की जाती है, परन्तु पाद के इस स्थूल रूप से सूक्ष्म की ओर प्रत्यावर्तन करते-करते शब्दादि का परिधान निष्प्रयोजन हो जाता है। तब यह नाद निग्र्रन्थ थवा दिगम्बर यथाजात रूप घर हो जाता है। शिशिर ऋतु में वृक्षों के पत्तों के समान इसके बाह्यï उपकरण मर जाते हैं, शब्द समुच्चय की निर्जरा हो जाती है और शुद्ध नाद 'ओउमÓ शेष रह जाता है। इस अवस्था में सम्पूर्ण परिसमों का अन्त होकर विशुद्ध स्व-समय की प्राप्ति हो जाती है। यहाँ आने पर संगीत या नादोपासना समयसार का सार्थक विशेषण अर्जित करती है। आत्मानुसंधान और आत्म तत्व की प्राप्ति ही तो परम उपलब्धि है।               

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